Post – 2016-10-20

भारतीय राजनीति में मोदी फैक्‍टर – 13
(सांप्रदायिकता : एक प्रवेशिका की शवपरीक्षा

यदि मेरे एक विद्वान मित्र ने इस पुस्‍तक की महिमा ऐसे शब्‍दों में न गाई होती मानो यह विपिन चन्‍द्रा की सर्वोत्‍तम पुस्‍तक हो, सांप्रदायिकता को समझने के लिए गीता जैसी महत्‍वपूर्ण है तो मैं जिस दिशा में सोच रहा था, उससे विचलित हो कर इस प्रश्‍न को न ले बैठता जो मोदी फैक्‍टर से यदि कोई संबंध रखता भी है तो हाशिए की लिखावट जैसा। सांप्रदायिकता की मीमांसा मैं बाद में करने वाला था और करूंगा भी। परन्‍तु यह व्‍यवधान भी इस अवसर पर जरूरी था।

मेरी कुछ बहुत निर्णायक टिप्‍पणियां हैं जिनमें से किसी का प्रतिवाद किसी विद्वान ने नहीं किया। उनमें से एक है भारतीय राजनीति में सेक्‍युलरिज्‍म मुस्लिम लीग की मान्‍यताओं और पूर्वाग्रहों से परिचालित रहा है और कम्‍युनिज्‍म, सेक्‍युलरिज्‍म आदि स्‍वतंत्र भारत में उसी के मुखौटे हैं। मैंने बड़े सहज भाव से इस सवाल को खेल के नियमों के तहत निर्वैर भाव से उठाया था कि मैं मोदी के पक्ष में अकेला खड़ा होता हूं और आप लोगों पर प्रहार करता हूं और बुद्धिजीवियों की पूरी अक्षौहिणी को मेरे प्रहारों पर अपना बचाव और उलट कर मुझ पर प्रहार करें। यह एक ऐसा खेल हो जिसमें जो उचित हो उसे दोनों मानते चले और जीत उस निष्‍कर्ष के रूप में आए जिस पर हम सभी पहुंचे परन्‍तु मेरी समझ में नहीं आता कि कोई अपना बचाव तक नहीं कर पा रहा है फिर भी छी: थू: के स्‍तर को जारी रखा जा रहा है। यह बौद्धिक स्‍तर तो न हुआ। मैं उत्‍तर के अभाव को मौन सहमति मानता हूं । और प्रतिवाद के रूप में छी: थू: को वह बौद्धिक गिरावट जिसमें विचार का स्‍थान घृणा प्रचार ने ले लिया है। इस घृणा प्रचार के कारण सोचने का स्‍तर भी गिर गया है और सोच-विचार का दायरा भी सिकुड़ गया है।

इस कारण ही मैं यह भी मानता हूं कि जिनको पिछले पचास सालों के समाजशास्‍त्र की विविध शाखाओं में प्रकांड विद्वान कह कर प्रचारित और स्‍थापित किया जाता रहा है वे प्रकांड तो नहीं पर प्रचंड विद्वान अवश्‍य हैं और उन सबके भीतर, दिमाग के उस कोने में जहां से अन्‍तर्दृष्टि पैदा होती है हिन्‍दुत्‍व के प्रति विरक्ति भरी हुई है इसलिए वे अपने विषय की चुनौतियों तक का सामना नहीं कर सकते । यदि न ऐसा होता तो अनुवाद के पेशे से जुड़ और समस्‍त सुविधाओं से वंचित व्‍यक्ति को आर्यद्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता और हड़प्‍पा सभ्‍यता और वैदिक साहित्‍य न लिखना पडता, उसे अधिक सलीके से, और पहले, उन्‍होंने लिखा होता। पर बौद्धिक स्‍तर यह कि उसे समझने और मानने से बचने के लिए दो दशक तक बहाने तलाशते रहे और मानने को विवश होने में तीस साल लगा दिये ।

उक्‍त कारण से ही मैं यह मानता था कि सांप्रदायिकता की समस्‍या को भारतीय सेक्‍युलर घराने का कोई व्‍यक्ति समझ ही नहीं, सकता, वह इसके नाम पर भी सांप्रदायिकता का ही विस्‍तार करेगा। अत: इसे देखने और अपने विचारों से दूसरों काे अवगत कराने के लिए सोचा यदि यह पुस्‍तक सांप्रदायिकता को समझने की गीता न भी हुई तो सेक्‍युलरिज्‍म में अन्‍तर्निहित सांप्रदायिकता के कारोबार को मापने का फीता तो बन ही सकती है।

कम्युनलिस्म : ए प्राइमर का प्रकाशन वर्ष 2013 में हुआ था। इसका मूल्‍य 85 रखा गया था। पुस्‍तक 121 पन्‍नों की है जिसे देखते हुए मूल्‍य नेशनल बुक ट्रस्ट के मानकों से उचित ही कहा जाएगा। इस पुस्‍तक के प्रथम संस्‍करण की प्रतियां आज भी उपलब्‍ध हैं, यह ट्रस्‍ट के वेव साइट से पता चलता है। इसका हिन्‍दी संस्‍करण ‘सांप्रदायिकता : एक प्रवेशिका’ अब उपलब्‍ध नहीं है। इसका प्रकाशन विपिन चन्‍द्रा के अध्‍यक्ष रहते 2011 में हुआ था और मूल्‍य अपेक्षा से बहुत कम मात्र 45 रु रखा गया था। मूल्‍य में यह अन्‍तर समझ में तभी आ सकता है जब हम यह जानें कि इसे प्रचार के लिए लिखवाया गया था। अंग्रेजी में अनुवाद स्‍वयं डा चन्‍द्रा ने ही किया होगा और अपनी साख बचाने के लिए उसमें कुछ छोड़ा और जोड़ा भी गया होगा, क्‍योंकि हिन्‍दी की पुस्तिका केवल 85 पन्‍नों की थी जो अंग्रेजी में 121 पन्‍ने हो गई ।

विनय पूर्वक ही सही, परन्‍तु यदि किसी अक्षम व्‍यक्ति को किसी पद पर रखा जाता है तो उसका उपयोग किया जा सकता है और यह उपयोग तो उनकी सोच के अनुरूप भी था। डा. साहब की स्‍मृति अब तक कमजोर हो चुकी थी, दृष्टि का लेखन में बाधक तो नहीं होती, वह काम डिक्‍टेट करके कराया जा सकता है, परन्‍तु पदीय कार्यनिर्वाह में बाधक थी और फिर नियम को ताक पर रख कर उन्‍हें तीन कार्यकालों तक रखा गया था इसलिए वह अपने नियोक्‍ता के हवाले होने को बाध्‍य थे।
हिन्‍दी और उर्दू में प्रकाशित होने के बाद इसका अनुवाद अंग्रेजी में किया गया। डा. साहब की गति अंग्रेजी में थी, हिन्‍दी में नहीं । परन्‍तु जहां जरूरत प्रचार की हो वहां हिंदी उर्दू अधिक जरूरी हो जाते हैं । हिन्‍दी में इसकाेे ‘लोक विज्ञान’ रखा गया था आप चाहें तो प्रचार विज्ञान पढ़ सकते हैं। पहली बात तो यह कि किसी भी प्रकार का राजनीतिक प्रचार या इसका आभास देने वाली पुस्‍तक का प्रकाशन, या जिससे किसी तरह का धार्मिक पक्ष प्रकट होता हो उसका प्रकाशन नेशनल बुक ट्रस्‍ट की नीति के विरुद्ध है । मैंंने उपनिषदों की कहानियां और पंचतन्‍त्र की कहानियां की तर्ज पर पुराणों की कहानियां लिखने का प्रस्‍ताव रखा था उस समय इसका पता चला था। अत: यह निर्विवाद है कि पुस्‍तक अपने अधिकार का दुरुपयोग करते हुए डा. चन्‍द्रा ने किसी दबाव में अपनी ही संस्‍था की नीति के विरुद्ध किया था जो अनैतिक माना जाएगा।

यह निरा प्रचार साहित्‍य था और भारतीय जनता पार्टी की बढ़ती लोकप्रियता से आतंकित हो कर कांग्रेस के दबाव में लिखवाया गया था इसे निम्‍न अंश से ही समझा जा सकता है:
‘यह (सांप्रदायिकता) अब स्थानीय और क्षेत्रीय तथ्य नहीं रहा है. राष्ट्रीय सच बन गया है, जो बीजेपी की चुनावी सफलता और पिछले कुछ सालों में आरएसएस के दूसरे मुख्य संगठनों की बढ़ती ताकत से स्पष्ट है. बीजेपी और उसकी जन्मदात्री संस्था आरएसएस अपने कैडर्स की नियुक्ति बहुत ही सख्त और स्पष्ट सांप्रदायिक विचारधारा के आधार पर करती हैं.’

पुस्‍तक वास्‍तविकता से अनभिज्ञता के होते हुए या बिना प्राथमिक तैयारी के लिखी गई थी इसका प्रमाण इसी उद्धरण का अंतिम अंश है । मैं इसमें प्रयुक्‍त कैडर्स का अर्थ मैं नहीं समझ पाया। यदि शाखा से जुड़े या शाखा में जाने वालों को कैडर्स में गिना जाय तो उनको किसी सख्‍त और स्‍पष्‍ट सांप्रदायिक विचारधारा के आधार पर चुना नहीं जाता अपितु उनको खेल और स्‍वास्‍थ्‍य के प्रलोभन में फुसला कर शाखा से जोड़ा जाता है और इनकी ही बढ़ती संख्‍या के आधार पर संघ यह घोषित करता रहा है कि अब हमारी सदस्‍य संख्‍या इतनी हो गई।

भाजपा ने अपना अलग सदस्‍यता अभियान चलाया था और उसका मजाक यह कि बहुत सारे लोगों को बिना उनकी जानकारी के सदस्‍य मान लिया गया था और जब स्‍पष्‍टीकरण मांगा गया तो उत्‍तर मिला कि हम इनके पास पहुंच कर बात करने वाले थे । इसलिए कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के कैडर्स का जो ज्ञान था उसे डा. चन्‍द्रा ने संघ पर लाद दिया।

आगे की जानकारी यह कि ‘‘बीजेपी और उनके साथी संगठन वीएचपी और बजरंग दल, सभी पर आरएसएस का बहुत ही चौकस नियंत्रण है, जो राम जन्मभूमि मुद्दे और उसके धार्मिक अपील से काफी संख्या में हिंदुओं के जेहन में जगह बनाने में सफल रहे और उन्हें सांप्रदायिकता पर लाकर कमजोर कर दिया.’’

नियंत्रण का हाल यह है कि मोदी की सफलता से हाशिये से बाहर खिसकते जानेे के कारण, ये दल ऐसी अनाप शनाप बातें करते हैं कि उनके किए पर पानी फिर जाय। वे राम मन्दिर के बल पर सांसे ले सकते हैं, मोदी का कहना है देवालय से अधिक जरूरी शौचालय है। देवता से अधिक जरूरी सफाई और पवित्रता है – तन की, मन की और परिवेश की । अत: डा. चन्‍द्रा का यह कथन भी कोरी लफ्फाजी है जिसे घबराई हुई कांग्रेस और उसके प्रसादग्राही ही कोई भाव दे सकते हैं।

अगला अंश इस प्रकार है, ‘धर्मनिरपेक्षता की दिशा में बीजेपी के सुधार की बात करना निरर्थक है, क्योंकि बीजेपी के शुरुआती अवतार जनसंघ के संदर्भ में 1977-78 में कइयों ने इसकी कोशिश की थी. या बीजेपी के एनडीए के कई सहयोगी भी मानते थे कि वे ऐसा कर सकते थे, या आरएसएस से अपना अल्पसंख्यक विरोधी नजरिया छोड़ने के लिए, या यह सुझाव देने के लिए कि बिना सांप्रदायिकता के बीजेपी बनी रहेगी. पर ऐसा नहीं हुआ. बिना सांप्रदायिकता के बीजेपी ‘पूरी तौर पर सही’ नहीं रहेगी. यह राजनीतिक धरातल पर जीरो हो जाएगी, और बेजीपी नेता इससे वाकिफ हैं.’

परिणामों ने, मोदी के सबका साथ सबका विकास नारे ने और इस दिशा में किए गए सतत प्रयत्‍नों ने तो इसकी व्‍यर्थता सिद्ध कर ही दी, चुनाव के परिणामों ने राजनीतिक धरातल पर जीरो होने की जगह, जिस कांग्रेसी सरकार को प्रसन्‍न रखने के लिए डा. चन्‍द्रा इतने घटिया स्‍तर की बयानबाजी कर रहे थे उसे ही जीरो पर पहुंचा दिया। उसे प्रमुख प्रतिपक्ष बनने तक केे लिए अपेक्षित मत नहीं मिले।

मैं अपने पाठकों को अधिक थकाना नहीं चाहता परन्‍तु यह पुस्तिका प्रचार पुस्तिका के रूप में लिखवाई गई थी और ऐसी वाहियात पुस्‍तक की प्रशंसा मेरे ऐसे मित्र करें जिनकी समझ पर मुझे कुछ भरोसा रहा है तो नासमझी उस स्‍तर पर पहुंच चुकी लगती है जिसमें लोग पत्‍थर मारने के लिए आंख मूंद कर पत्‍थर उठा रहे हैं और यह भी नहीं देखते कि वह कहां सं उठाया गया है।

मैं इस पुस्‍तक की बिक्री पर रोक लगाने को ही उचित नहीं मानता, अपितु इसके अंग्रेजी अनुवाद के अब भी एनबीटी के वेबसाइट पर सुलभ लिखा देख कर आश्‍चर्य भी प्रकट करता हूं। पदीय दायित्‍य व्‍यक्ति के साथ समाप्‍त नहीं होता। मैं वर्तमान अध्‍यक्ष से इस बात की उम्‍मीद करता हूं कि राष्‍ट्रीय पुस्‍तक न्‍यास से इस पुस्‍तक के प्रकाशन के अपराध के लिए वह अपनी संस्‍था के अध्‍यक्ष के नाते क्षमायाचना भी करें ।