भारतीय राजनीति में मोदी फैक्टर (कच्चा चिट्ठा) – 12
अरविन्द कुमार के निदेशक बनने से पहले ट्रस्ट की पुस्तकें जितनी पाठकों के काम नहीं आती थी, उससे अधिक दीमकों के काम आती थीं। दीमकों के काम आने का एक लाभ यह था कि हिसाब किताब में अन्य खातों की तरह दीमक खाते भी हुआ करता था। अरविन्द ने अपनी असाधारण सूझ बूझ से इस मृत संस्था को एक जीवन्त संस्था बना दिया था, फिर उनके बाद ट्रस्ट वहां के अधिकारियों की चरागाह में कैसे बदल गया यह शोध का विषय है। ट्रस्ट की नियमावली में जरूर कुछ खामियां रह गई थी अन्यथा एक सुयोग्य व्यक्ति को तीन साल की अवधि की लक्ष्मण रेखा की उपेक्षा करके उन्हें तब तक काम करने दिया जाना चाहिए था जब तक उनके विरुद्ध कोई गंभीर आरोप न आता। नियम तो नियम है। फिर गिरावट । रह गया कुछ तो अरविन्द कुमार द्वारा आरंभ किए गए कुछ प्रयोगों का निर्वाह, जैसे देश के विभिन्न नगरों में पुस्तक मेले और दिल्ली में विश्वपुस्तक मेले का आयोजन पर संस्था पहले जैसी मरणासन्न अवस्था में नहीं पहुंची।
यह बात तो विपिन चन्द्रा के शोक समाचार से पता चला कि वह मुझसे आयु में केवल तीन साल ही बड़े थे। 2004 में मैं जब उनसे मिला था तो वह मुझसे एक युग बड़े लग रहे थे। उनकी आंखों से बहुत कम दिखाई देता था। वह एक मैग्नीफाइंग ग्लास जो कोरों से उठा हुआ चौकाेर सा था उसे पन्ने पर रख कर सरकाते हुए पढ़ते थे । मेरी एक आंखों में भी मोतियाबिन्द का असर हो रहा था और जब मैंने यह बताया तो वह बहुत चिन्तित भाव से वैसा ही शीशा खरीदने की सलाह देने लगे। वह अमेरिका से उन्होंने मंगाया था पर मैने अपने पुत्र और पुत्री को जब यह बताया तो वे उसकी बनावट समझ नहीं पाए। जो लाकर दिया वह मेरे काम का न था। मेरी समस्या मोतियाबिन्द के आपरेशन से दूर हो गई।
मैंने पाया अधीनस्थ अधिकारी उनकी बात पूरे आदर से सुनते थे, हामी भर कर भी चले जाते थे, पर उनके लिखित आदेश का भी पालन नहीं करते थे। ऐसा ही एक आदेश था कि मुद्रण के समय प्रतियों का उल्लेख हो जिससे मनमानी घालमेल न हो सके, इसका उनका आदेश यह कह कर निष्प्रभाव कर दिया गया कि यह पुरानी बात हो गई, अब ऐसा कोई नहीं करता। काशीराम शर्मा की कोई पुस्तक लंबे समय से स्वीकृत पड़ी थी, उसका प्रकाशन नहीं हो रहा था। फोन पर बात चीत में उन्होंने जिक्र किया था। मैंने इसका जिक्र किया तो विपिन जी ने उसके प्रकाशन के लिए लिखा, पर उसका पालन नहीं हुआ। बाद में उनके एक दो और आदेशों की अवज्ञा की ओर उनका ध्यान दिलाया तो पाया उन्हें इससे खीझ हो रही थी। अपमानजनक लग रहा होगा। अधिकारी विपिन चन्द्रा जो चाहते थे वह नहीं करते थे, विपिन चन्द्रा अधिकारी जो चाहते थे उस पर हस्ताक्षर करने की आदत डाल चुके थे।
मैं उसके बाद फिर न उनसे मिला न उधर ध्यान दिया और पाया कि मेरी पुस्तक के प्रति जो शत्रुभाव था जो विपिन चन्द्रा के पूर्ववर्ती और जनता शासन में नियुक्त ब्रजकिशोर शर्मा के काल में उसके प्रकाशन में अनियमितता आ गई थी वह पुन: लौट आई थी। रायल्टी के भुगतान रुक गए थे। एक पत्र मैंने चार साल बाद डाइरेक्टर को इस विषय में लिखा तो चार सालों की रायल्टी के एक लाख कुछ का चेक भेज दिया गया। आगे पुनर्मुद्रण रोक दिया गया, तो एक दो साल बाद मैंने ईमेल से कारण बताते उसका प्रकाशनाधिकार वापस लेने का पत्र लिखा तो कोई उत्तर नहीं आया। मैंने इसका अधिकार सस्ता साहित्य मंडल को दे दिया।
आश्चर्य कि उसके बाद मुझे पुस्तक के पुन:मुद्रण के प्रमाण स्वरूप लेखकीय प्रतियां भेजी गईं। मैंने प्रतिवाद करते हुए बलदेव सिंह प्रधान संपादक को जिनको अब प्रकाशन और मानदेय का काम मेरी शिकायत के बाद सौंप दिया गया था, फोन किया कि इसका प्रकाशनाधिकार ट्रस्ट से अमुक तिथि को वापस ले चुका हूं इसके बाद आपने इसे छापा कैसे। उन्होंने कहा, डाक्टर साहब छोडि़ये उसे, अब बीती बातों को। चलने दीजिए । इसकी सूचना मैंने सस्ता साहित्य मंडल को दी कि वह ट्रस्ट को लिखें कि वे अब उस पुस्तक का प्रकाशन या बिक्री नहीं कर सकते । वह इसके लिए तैयार न थे, चाहते थे मैं ही यह आफत मोल लूं। उसके बाद से वही पुस्तक एक ही समय में दो संस्थाओं से छप रही है और सस्ता साहित्य मंडल उतने से ही खुश है कि यह किताब फिर भी बिकती तो हैं।
मेरी मुलाकात विपिन जी से फिर एक पुस्तक के विमोचन के अवसर पर हो गई। हम दोनो ही मंच पर थे और मैंने उस पुस्तक का परिचय देते हुए मार्क्सवादी इतिहासकारों की आलोचना करते हुए यह सवाल उठाया कि यह काम उन्होंने क्यों नही किया। विपिन जी मुझे पहचान नहीं पा रहे थे और मुझसे पूछ रहे थे, आप कहां से आए हैं। उन्होंने कहा, भई रोमिला थापर मेरी मित्र हैं, उनकी आलोचना तो नहीं कर सकता । उस अवसर का उपयोग उन्होंने यूरोपीय मध्ययुग को अन्धकार युग कहने की पुरानी धारणा में बदलाव के और उस दौर में भी कई क्षेत्रों में सक्रियता बनी रहने की बात करते हुए भारतीय मध्ययुग की कुछ हिमायत भी की थी। मेरे साथ मेरे मित्र कांतिमोहन भी थे, उनके उनसे निकट के संबंध रह चुके थे, परन्तु उन्होंने नमस्कार किया तो उनकाे भी पहचान नहीं पाए थे ।
कोई सज्जन थे जो कांतिमोहन के यहां ही एक दावत में मिल गए थे। पता चला, एनबीटी में काम करते हैं। पूछा विपिन चन्द्रा के क्या हाल हैं तेा बताया, कभी कभी आ जाते हैं और अपना मेडिकल बिल भेजते रहते हैं।
मैंने इतने विस्तार से, थकाने वाले व्यौरों के साथ इसकी चर्चा की तो कुछ कारणों से। व्यक्ति कितना भी विद्वान हो, कितना भी सरल हो, कितना भी सर्वप्रिय हो, मेरी नजर में, यदि वह किसी कार्यभार को वहन करने में स्वास्थ्य, आयु या अन्य व्यस्तताओं के कारण समर्थ न हो तो उसे कोई पद या दायित्व नहीं लेना चाहिए और लेता है तो मेरी वह अनैतिक है। विपिन जी एनबीटी के हाथों में एक मुहर थे और उनके कार्यकाल में यह संस्था शीर्ष पुरुष के होते हुए भी उससे वंचित थी और फिर भी मुहर के रूप में उनका उपयोग हो रहा था।
जिस तरह की मौजमस्ती उनके दौर में मनाई गई देश की जगह विदेशों में पुस्तक मेलों की भागीदारी में वह पहले या बाद में न हुई।
ब्रजकिशोर शर्मा जो भाजपा काल में अध्यक्ष बन कर आए थे उनके बाद विपिन जी के आने पर जो विश्वपुस्तक मेले के पंडाल लगे उनकी कीमत लगभग दूनी कर दी गई और यह सूचना मुझे विकास नारायण राय ने दी थी और इस पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि इससे अच्छे तो वे ही लोग थे। वह मेरे मित्र भी हैं और फेसबुक पर कटु आलोचक भी फिर भी शायद वह इसे भूले न होंगे।
तीसरी बात नेशनल बुक ट्रस्ट के इतिहास में सबसे योग्य निदेशक अरविन्द कुमार को अवधि की लक्ष्मण रेखा का पालन करते हुए हटा दिया गया और उसके बाद उस पद पर स्थापित व्यक्ति को काम आता ही नहीं था। वह कलकत्ता भागता रहता था। बाद में महिला मुस्लिम पुलिस अधिकारी को निदेशक बनाया गया उसके साथ भी तीन साल की अवधि ही रही। उसके बाद के निदेशक को उसी पद पर दो या तीन बार और स्वयं विपिन चन्द्रा तो तीन बार किस तर्क से रखा गया। मानव संसाधन मंत्री की कृपा।
चौथी बात जैसा मैं पहले बता चुका हूं, एनबीटी की थोक बिक्री राज्य सरकारों को एनबीटी द्वारा सुझाई गई पुस्तकों की होती है । यद्यपि जिस दौर के आर्डर की आपूर्ति रोकी गई वह उनके कार्यमुक्त होने के तीन साल बाद की है परन्तु यह उनके द्वारा अनुगृहीत निदेशक द्वारा पुराने तरीके पर सुझाया गया होगा । इससे यह लगता है यह काम पहले भी होता आ रहा था। स्वयं अध्यक्ष रहते हुए अपनी ही लिखी पुस्तक को थोक बिक्री में डाल कर प्रतिवर्ष चार पांच लाख रायल्टी के रूप में कमाना मुझे अनैतिक लगता है।
यह बहुत मामूली बात है, पर मार्क्सवादी नैतिकता में यह आता है और जिसकी आंख की रोशनी कम हो गई हो वह भी इतिहास अनुसंधान परिषद में जाकर पता लगा सकता है कि मार्क्सवादी अध्यक्षों के दौर में कितने सारे प्राजेक्ट चन्द लोग बांट कर उससे होने वाली दसियों लाख की आय स्वयं अर्जित करते रहे । यह सामाजिक अनुसंधान संस्थान में, आइएनसीआरटी में भी उनके दाैर में होता था। आश्चर्य है कि जिन दौरों में भाजपा (संघियों) का प्रभाव था उन दिनो इस तरह का कोई घोटाला सामने नहीं आया। उनके नैतिकता के मान भिन्न हैं।
यदि ईमानदार और कुछ कम योग्य व्यक्ति और ‘असाधारण’ योग्य पर लोभी लोगों के बीच, (गो यह असाधारणता भी मार्क्सवादियों के सांप्रदायिक दायरे के भीतर छवि निर्माण का परिणाम है) , चुनाव प्रबन्धकीय पदों के लिए करना हो तो मैं पहले को वरीयता दूंगा। मोदी को ऐसे ही लोग मिले हैं और मैं समझता हूं अपनी लाख प्रचारित खामियों के बाद भी ये उनसे अधिक उपयुक्त हैं जो योग्यता के नाम पर धंधा करते रहे । चाहे वह सेंसरबोर्ड हो, या इतिहासपरिषद या दूसरे संस्थान ।
मेरे पास इतनी अक्ल नहीं है कि मैं इतने पेचीदे सवाल पर अपना फैसला ले सकूं। बिरला आदि परंपरावादी पूंजीपतियों के असाधारण अधिकार प्राप्त व्यक्ति बहुत कम पढ़े लिखे लोग हुआ करते थे जब कि उनके नीचे असाधारण योग्यता के विशेषज्ञ इंजीनियर, केमिस्ट, प्रबन्धक आदि पदों पर काम करते थे। सुना है एक बार किसी ने घनश्याम दास बिरला से इसका राज जानना चाहा तो उन्होंने कहा, योग्य आदमी तो डिग्रियां लिए हुए घूमते रहते हैं, दर्जनों के भाव मिल सकते हैं जब चाहो खरीद लो। भरोसे का आदमी मिलना कठिन होता है। संचालन के लिए भरोसे का आदमी ही काफी है। मोदी सुयोग्यतम प्रतिभाओं से वंचित होते हुए थी जरूरी नहीं कि उपयुक्त कार्यनिष्ठों से वंचित हों ।
अब यदि कोई जानना चाहे कि नये अध्यक्ष ने उस पुस्तक की थोक बिक्री को रोक कर सही किया या गलत तो इसका फैसला उनको करना चाहिए जो इसे फासिज्म की आमद मान कर शोर मचा रहे थे।
परन्तु पुस्तक के गुणदोष पर चर्चा तो रह ही गई । कल देखेंगे