भारतीय राजनीति में मोदी फैक्टर – 11
इस दृष्टान्त को मैं एक किश्त में समेटना चाहता था, परन्तु विषय की मांग है कि इसे दो किश्तों में पूरा करूं।
इसका संबंध उस जनबल मैन पावर से है जो मोदी को अपने साहसिक और उनके आलोचकों की नजर में भी, किसी के लिए अलभ्य, लक्ष्य को पाने के लिए उन्हें मिला है।
मोदी के विषय में कुछ तथ्यों की ओर ध्यान दिलाते हुए मैंने यह कहा था कि वह संघ से निकले तो हैं, पर संघ के सांचे में ढल कर नहीं निकले हैं । वह कुछ अलग किस्म के नेता हैं। फ्रीक ।
संघ में शिक्षा और अध्ययन पर जोर नहीं दिया जाता। अधिकांश लोग अपना छोटा मोटा कारोबार चलाते या नौकरी चाकरी करते हैं। स्वजनों की दूकान पर काम करते हुए भी मोदी ने अपने अध्यवसाय से उच्चतम शिक्षा प्राप्त की। व्यापार काे बढ़ाने की ओर ध्यान न दिया। प्रथम दृष्ट्या वह अध्ययनशील नहींं दिखाई देते पर विरल अवसरों पर मननशीलता का परिचय मिलता है । रविशंकर प्रसाद को छोड़ कर मुझे किसी दूसरे के चेहरे से अध्ययनशीलता और मननशीलता का वह आभास नहीं मिलता जो अदृश्य आरेखों में और त्वचा की कोशिकाओं के विचित्र संकुुचन और विस्तार से एक स्थायी मुद्रा का रूप ले लेता है।
मैं पहले ही लाठी पर अधिक बल देने वालों के लिए अपनी भाषा परंपरा में प्रयुक्त शब्दों – उददंड और लंठ का हवाला दे आया हूं और मेरी नजर में इसकी छाप ही संघ से निकले लोगों की आम छाप बन जाती यदि उनके व्यवहार में मृदुता न होती । आडवाणी जी, रज्जू भैया, जैसे कुछ विरल अपवादों को छोड़ कर प्रथम दृष्टि में अध्ययनशीलता और चिन्तनशीलता का प्रभाव नहीं पड़ता। अलट जी भी बोलते और कविता पढ़ते हुए वीर मुद्रा में आ जाते थे जिसमें अंगचेष्टा शब्दों से कुछ अधिक बोलती थी और शब्द चयन भी सामान्य काव्य भाषा से कुछ अलग होता था। इससे जुड़ेे अध्यापकों, इसके पत्रों के संपादकोंं, और संरसंघ चालकों तक से यही शिकायत हो सकती है। कुछ के चेहरे और व्यहार से स्वभाव की सरलता और मृदुता का असर अवश्य पड़ता हैा
इसके ठीक विपरीत मार्क्सवादी सोच के सुपठित लोगों के मिजाज में मृदुता भले गायब मिले, ऐंठ तक मिल जाय, पर अध्ययनशीलता और चिन्तनशीलता का असर पड़े बिना नहीं रहता।
चेहरा दर्पण है ही इस अर्थ में कि गलत नहीं बोलता। अध्ययन और ज्ञान की दृष्टि से जितने योग्य व्यक्ति वाम पंथियों में मिलेंगे, उनसे काफी पीछेे पर दूसरों से आगे कांग्रेस से लगाव रखने वाले सुपठित लोगों में मिलेंगे।
भाजपा में ऐसे लोगों का अभाव रहा है और इन्हीं से मोदी कामचलाऊ प्रतिभाओं को लेकर अपना सांस्कृति काम चलाना है।
परन्तु यदि ज्ञान धूर्तता का रूप ले ले तो? धूर्तता किसी महान उद्देश्य से प्रेरित लगे और वह महान उद्देश्य एक छलावा लगे तो? यदि सुयोग्यतम डाक्टर किडनी के धन्धे में लग कर निठारी कांड तक जुड़ने लगे, या पैसे के लोभ में खून चूसने वालों में बदल जायं तो ? योग्यता अपने कृत्यों और परिणामों से अलग करके नहीं देखी जा सकती । ऐसी स्थिति में सही दिशा में काम करने वाले सामान्य समझ के लोग भी महिमामंडित विद्वानों और विशेषज्ञों से अधिक निरापद सिद्ध हो सकते हैं। इसके अधिक नमूनों पर चर्चा संभव नहीं है, इसलिए हम इसके लिए केवल एक सर्वमान्य और मेरे लिए भी आदरणीय विभूति को सामने रखेंगे और इसक कतिपय अरुचिकर तथ्य और यथार्थ की जटिलता को आपके सामने रखेंगे जो ऐसी ही विभूतियों के संरक्षण में फलीभूत हुआ है और कल इस महान विभूति को उसके भीतर रख कर अपने निष्कर्ष निकालेंगे । यह हैं विपिन चन्द्रा ।
पिछले दिनों विपिन चन्द्रा की पुस्तक सांप्रदायिकता: एक परिचय, अंग्रेजी मूल संभवत- ‘कम्यूनलिज्म: अ प्राइमर’ का या तो प्रकाशन इसके अध्यक्ष ने राेक दिया, या उसकी बहुत बड़ी बिक्री पर रोक लगा दी। इस पुस्तक को मेरे एक मित्र ने सांप्रदायिकता पर गीता कहने का मन बनाया पर उन्हें याद आया कि इस पर तो संप्रदायवादियों ने कब्जा जमा लिया है, उनके कब्जे से बाहर निकाल कर इसका उपयोग करने का साहस नहीं जुटाया और इसे कुरान कहने का तो साहस किसी का नहीं हो सकता, पर उन्होंने इसके आधार पर सांप्रदायिक खतरों की उग्रता के लिए ध्यानाकर्षक विशेषणों का प्रयोग करते हुए इसके अनन्य महत्व को समझाया। अर्थात् यह एक ऐसी पुस्तक है जिसके बिना सांप्रदायिकता को समझा नहीं जा सकता।
इसमें तीन पहलू आते है, हो सकता है उनमें से कोई चौथा भी निकल आए।
पहला प्रो. विपन चन्द्रा से संबंध रखता है। वह इतने निरहंकारी, मिलनसार और विद्वानो और मुझ जैसे विद्वानेतर जनों से भी इतने सहज, आत्मीय भाव से मिलते थे कि इसकी दूसरी मिसाल मेंरे स्वर्गीय मित्र ओमप्रकाश ग्रेवाल के अतिरिक्त नहीं मिलता । स्वभाव की उनकी ऋजुता का और किसी सही प्रस्ताव पर सहमत होने की उनकी क्षमता का मैं अनन्य प्रशंसक हूं। उनका अकेला चेहरा था जो उस तनाव या ऐंठ से मुक्त था जो मार्क्सवादियों की ऐसी छाप बन जाती है कि उनकी हंसी और मुस्कराहट में भी बनी रहती है । उनकी विद्वत्ता से मेरा बहुत गहरा परिचय नहीं है, क्योंकि न तो उनका छात्र रहा न सहकर्मी और न हीं उनकी एक पुस्तक को छोड़ कर जो भी नेबुट्र (ट्रस्ट) से ही छपी थी, कोई अन्य पुस्तक पढ़ी। उनके विषय प्रतिपादन में सरलता और स्पष्टता ही उसमें लक्ष्य कर सका था। इस पुस्तक की चर्चा आई तो इसकी ओर ध्यान गया, पर कोई चारा न देख कर इंटरनेट पर जाना पड़ा जहां इस पुस्तक के ऐसे चौदह अंश दिए गए थे जिन पर संघ और भाजपा को आपत्ति हुई हो सकती है ।
दूसरा पक्ष इस तथ्य से है कि सामान्य नियम के विपरीत वह तीन पारियों तक – 2004 -१२ तक (ट्रस्ट) के अध्यक्ष बने रहे । मेरा उनसे मिलना (ट्रस्ट) में व्याप्त भ्रष्टता को ले कर हुआ था जो इतनी व्यापक थी कि उसमें सबके अंधेरे कोने सुरक्षित थे और किसी पर आंच आने पर सभी एक दूसरे की मदद करते थे । इससे पहले मैं (ट्रस्ट) को एक वकील की नोटिस भी भेज चुका था।
हुआ यह था कि एक बार मेरी पुस्तक पंचतन्त्र की कहानियां की चौसठ हजार प्रतियों की बिक्री हुई । ऐसी बिक्री (ट्रस्ट) की पहल से ही होती है। सरकारों के पुस्तक खरीद के प्रस्ताव आते हैं जिसमें अधिकारी पुस्तक का नाम सुझाते हैं और उसका आर्डर मिल जाता है। उस साल तीन राज्यों को पुस्तक सप्लाई की नौबत आई और एक ही साल में उसके तीन संस्करण हुए। रायल्टी चार लाख साठ हजार बनती थी। उपनिदेशक लेखा को यह समझ में नहीं आ रहा था कि हिसाब कैसे लगाया जाय और उन्होंने मुझे इसमें सहायता के लिए बुलाया। सहायता मोलभाव का था। कुछ प्रतिशत उन्हें चाहिए था।
मैं पूरी रायल्टी गंवा सकता था पर रिश्वत नहीं दे सकता था इसलिए उन्होंने एक लाख का चेक लगे हाथ दे दिया और बाकी को समझने को उन्हें टाइम चाहिए था। मेरे लिए जो मिल गया वह भी कल्पनातीत था। पर साल के अन्त तक उनको हिसाब समझ में नहीं आया और उनकी अपेक्षा के अनुसार मैं उनके इस सन्देश को समझने को तैयार न हुआ कि इसकी बिक्री में हमारा भी योगदान होता है इसलिए हमारा ध्यान रखेंगे तो आगे भी इसका लाभ रहेगा। मैं आगे का लाभ भी त्यागने को तैयार था पर ध्यान रखने को नहीं अत: उन्होंने कंप्यूटर फिगर को अविश्वसनीय बताते हुए अनुमान लगाया कि बिक्री इतने से अधिक की नहीं हो सकती और मुझे एक लाख पचीस हजार का शेष भुगतान किया।
मुझे इससे फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि यदि वह मुझे न मिला तो सरकार के पास तो रहा।
परन्तु जो शरारत अगले साल की गई वह यह कि पुस्तक का मुद्रण ही न किया गया, जब कि यह अधिकार एकांउट्स का नहीं था। मुझे इस बात का खेद तो न था कि रायल्टी का पैसा नहीं मिला, वह तो अपेक्षा से अधिक था, पर मेरे पाठकों को पुस्तक न मिले यह कष्टदायक था। इस समय पर अध्यक्ष का पद रिक्त था और निदेशक साहित्य अकादमी से गए हुए एक सज्जन थे जिनका अधिकतर समय कलकत्ता में कटता था। यह वहां के स्टाफ को सूट करता था।
इसके बाद भाजपा की सरकार आई और उसकी रुचि के अख्यक्ष और निदेशक जो आइ ए एस थे आए। मैने पुस्तक का प्रकाशन न होने का कारण स्पष्ट करने के लिए पिछले घोटाले का जिक्र लिखित रूप में किया तो उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि चार साल पुराने मामले को उठा कर भुगतान कैसे किया जाय जब कि फाइल पर ऐसा नोट है।
मैंने सुझाया, इस पुस्तक की छपाई के लिए कागज खरीदा गया होगा, इसके प्रिंंट आर्डर दिए गए होंगे, आपके गोदाम के रजिस्टर में इसकी प्रतियों की ऐंट्री होगी, इनसे वास्तविक बिक्री का पता चल जाएगा और उसी क्रम में पता चला कि सभी एक दूसरे के इस हद तक सहयोग करते हैं कि स्टाक रजिस्टर गायब, प्रिंट आंर्डर का पता नहीं, जो आर्डर सप्लाइ के मिले थे वे नहीं। भाजपा की पसन्द के अध्यक्ष स्वभाव से बहुत सरल और प्रकटत: ईमानदार भी थे। मुझे उनकी ईमानदारी पर आज तक शक नहीं। उनको कारण समझ में आने से प्रकाशन तो तुरत आरंभ हो गया, पर पीछे के बारेे में उनकी समझ में न आए कि इतनी चीजों के गायब होने पर , नोट के विरुद्ध किसी को भुगतान कैसे किया जाय ।
मेरा आग्रह था, मुझेे भुगतान नहीं चाहिए, मुझे हिसाब चाहिए। वह हिसाब बैठ ही न रहा था। इसकी भरपाई के लिए लेखा बिभाग द्वारा एक नया तरीका निकाला गया कि जिन संस्करणों का पूरा भुगतान मुझे मिल चुका था उसकी रायल्टी देते हुए कम से कम आर्थिक क्षतिपूर्ति तो कर दी जाय और पहले संस्करण का अठारह हजार का चेक उसके वाउचर के साथ भेजा गया। मैंने लिखा, इसका पूरा भुगतान मुझे मिल चुका है, इसलिए यह मुझे नहीं चाहिए। मैंने चेक लौटा दिया।
स्वयत्त निगमों और संस्थाओं में हिसाब किस हद तक गड़बड़ किया जा सकता है इसका यह एक नमूना था। हिसाब देने को कोई तैयार नहीं। इसी मुद्दे को लेकर मैंने वकील के माध्यम से नोटिस भेजा था परन्तु इसी बीच सत्ता पलटी और विपिन जी आ गए तो सोचा उनसे मिल कर शिकायत करूं। यही वह अवसर था जिस पर मैं उनसे मिला था और उन्होंने समुची स्थिति को समझने के बाद सलाह दी, अब मुकदमे की बात छोडिए और इसे इग्नोर कर दीजिए। मैंने केवल यह आश्वासन चाहा कि वह भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाएं। इसके लिए मैंने जो उपाय सुझाए वे भी उनको ठीक लगे और मेरे सामने ही उसका निर्देश भी दे दिया। अभी निदेशक के पद पर कोई नहीं आया था, उन्होंने कहा कि मैं इस पर एक योग्य और ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करने का प्रयत्न करूंगा जो भ्रष्टाचार पर रोक लगा सके और कुछ समय बाद निदेशक के रूप में एक मुस्लिम महिला ने पद भार संभाला जो पुलिस सेवा में थीं।