Post – 2016-10-17

भारतीय राजनीति में मोदी फैक्टर – 10

दूसरा नमूना साहित्‍यकारों के आन्‍दोलन का है। इसका आरंभ मेरे एक प्रिय लेखक ने किया जो बहुत प्रतिभाशाली हैं, पर जो कुछ विचित्र लिखने, विचित्र दिखने और विचित्र कर गुजरने के आदी है और इसके कारण समय समय पर चर्चा में रहते हैं। चर्चा में रहने वाले चर्चा से बाहर रहना पसन्‍द नहीं करते और ध्‍यानाकर्षण के लिए अक्‍सर अटपटी बातें करते रहते हैं, यह हम जानते हैं।

दूसरों से अलग और ऊपर दिखने की कलाकारों की चाह जिसे एक पद में लस्‍ट फार एक्‍सलेंस कहा जा सकता है – लीक छाडि़ तीनों चलें शायर, सिंह, सपूत – वह तो सभी साहित्‍यकारों की दुर्बलता है।

कर्नाटक में एक साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार से सम्‍मानित लेखक कलबुर्गी की हत्‍या हो गई । उन्‍हें पहले से धमकियां मिल रही थीं, इसलिए अपराधी की मोटी पहचान रही होगी। कलबुर्गी ने अपनी सुरक्षा को ले कर चिन्‍ता जताई थी, और वहां की कांग्रेस सरकार ने उन्‍हें सुरक्षा प्रदान भी की थी। सुरक्षा का आर्थिक पहलू या उससे उत्‍पन्‍न रुकावटों के चलते उन्‍होंने सुरक्षा लौटा दी थी और इसके एक पखवारे बाद ही बहुत जघन्‍य तरीके से उनकी हत्‍या कर दी गई थी। कर्नाटक सरकार की विफलता यह कि वह आज तक हत्‍यारों को गिरफ्तार नहीं कर पाई ।

कलबुर्गी साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार प्राप्‍त थे और दो वर्ष पहले ही उदयप्रकाश को भी साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार प्राप्‍त हुआ था, इसलिए इस बात से खिन्‍नता प्रकट करते हुए उदय प्रकाश ने साहित्‍य अकादमी की अकर्मण्‍यता पर चिन्‍ता जताई थी। विवादास्‍पद लेखन तो वह भी करते ही हैं। यदि कलबुर्गी के साथ यह हो सकता है तो किसी दिन हमारे साथ भी यह हो सकता है, यह चिन्‍ता भी रही होगी। मैंने भी उस चिन्‍ता को सही माना था और दूसरे बहुत मामूली राजनीतिक सवालों पर लामबन्‍द होने वाले साहित्‍यकारों से अपील की थी कि उन्‍हें इस विषय में सक्रियता दिखानी चाहिए। मेरी जानकारी समय से कुछ पीछे रहती है, क्‍योंकि तब तक कुछ संगठनों में इसे लेकर कई स्‍थानों पर क्षोभ जताया जा चुका था। अभी तक मुझे यह शुद्ध साहित्यिक सरोकार प्रतीत हो रहा था।

उदयप्रकाश ने अपने विरोध स्‍वरूप अकादमी पुरस्‍कार भी लौटाने की बात की थी। जल्‍द ही उन सभी लेखकों ने जो यह मोदी की आलोचना करते आए थे एक एक कर अपने पुरस्‍कार लौटाने आरंभ कर दिए। कन्‍नड के कुछ साहित्‍यकारों ने राज्य सरकार से प्राप्‍त पुरस्‍कार लौटा दिए। जब बात इज्‍जत की आ जाए तो आदमी जान तक दे देता है, पुरस्‍कार वापस करना तो छोटी बात है। मनोविज्ञान यह बन गया कि जो लोग पुरस्‍कार नहीं लौटा रहे हैं वे पुरस्‍कार के इतने लोभी हैं कि उनकी नजर में साहित्‍यकार की जिन्‍दगी की कोई कीमत नही। सम्‍मानित साहित्‍यकार लोभी सिद्ध किए जाने से बचने के लिए कतार में खड़े होने लगे। फिर इसे साहित्‍य से अलग ले जा कर राजनीति से जोड़ने के लिए दाभोलकर और पनसारे की हत्‍याओं को भी जोड़ा जाने लगा। मार्क्‍सवादी शब्‍द इस समय तक अपनी साख इस सीमा तक खो चुका था कि हत लेखकों के साथ बुद्धिवादी विशेषण का प्रयोग किया गया। सबमें एक बात समान केवल यह थी कि ये सभी वामपंथी थे और जैसा कि हम कई बार कहते रहे हैं, समाज को सुधारने से अधिक इनका ध्‍यान उसे आहत और अपमानित करने का रहता है और यह हिन्‍दू समाज तक सीमित रहता है।

यदि कोई आपसे पूछे कि बुद्धिवादी का अर्थ क्‍या होता है, तो आप कह सकते हैं, जो बुद्धिमान नहीं होता है उसे बुद्धिवादी कहते हैं। पर कलबुर्गी तो हंपी विश्‍व विद्यालय के उपकुलपति रह चुके थे, दूसरे दोनो साहित्‍यकार पत्रकार और खासे पढ़े लिखे थे। इसलिए कहा जाएगा जो धार्मिक आस्‍थाओं की अतर्क्‍यता काे मिटाने के लिए लेखन करते और आन्‍दोलन चलाते हैं उनके लिए यह प्रयोग आता है। आप इसे भी मान सकते हैं।

हम यहां इसके उस पक्ष को रखना चाहते हैं जो उस मूर्खता से जुड़ा हुआ है जिसमें यह मान लिया गया कि समझदार लोग यदि बाकी समाज को बेवकूफ मान ले और बेवकूफों को समझदार बनाने के लिए यह विश्‍वास पाल लें कि उनको उल्‍टा सीधा कुछ भी समझाया जा सकता है तो वे इसे मान लेंगे, यह समझदारी का चरम रूप है। इससे उत्‍तेजित जनता को लेकर इतना बड़ा विद्रोह आरंभ किया जा सकता है जिससे तख्‍ता पलट जाय। ऐसा ही हाल के दिनों में कुछ पश्चिमी देशों में हुआ भी और इसकी एक मिसाल गुजरात ने भी दी थी। यदि ऐसा हो गया, फिर सिंहासन खाली करो कि जनता आती है गाते हुए उल्‍टे सिंहासन पर कांग्रेस को बैठाया जा सकता है और अपने अच्‍छे दिनों की वापसी की जा सकती है। इस तरह की सोच को पारानॉयड सोच कहा जाता है । इसी सोच के लोग तर्कवादी की श्रेणी में वे लोग रखे जा सकते हैं जो कुतर्क और तर्क में अन्‍तर नहीं कर पाते। तर्क से समझ पैदा होती है, कुतर्क से उत्‍तेजना और उसके दुष्‍परिणाम।

जाने-माने वैज्ञानिक जयंत नार्लीकर ने एमएम कलबुर्गी की हत्या के विरोध में साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने को नामंजूर करते हुए कहा था कि कानून-व्यवस्था सरकार की जिम्मेदारी है और जनाक्रोश इसे बनाए रखने के लिए जिम्मेदार लोगों की तरफ होना चाहिए।

परन्‍तु तीनों मामलों जिन सरकारों के प्रशासन में ये घटनाएं हुई वे कांग्रेस शासित थी जब ये सभी अकथित रूप में उसके और मोदीपलट खेल खेलने के लिए मैदान में आ चुके थे। इसे एक ‘प्रभावशाली’ अभियान का रूप देने के लिए जो घालमेल किए गए वे निम्‍न थे:

1. इस अभियान को सफल बनाने के लिए अखबारों, लेखों और दृश्‍य माध्‍यमों से जो तथ्‍य पेश किए जा रहे थे वे अधूरे या लगभग सुनी सुनाई बातों के स्‍तर के थे इसलिए उनमें ही परस्‍पर विरोध था। अनेक में यह बताया गया था कि हत्‍यारों ने सांकल खटखटाई और कलबुर्गी ने दरवाजा खोला और उसी समय उन्‍हें गोली मार दी । कुछ में यह बताया गया कि हत्‍यारे दो थे और छात्र बन कर गए थे । पर उनमें भी अनेक का मानना था कि कलबुर्गी ने दरवाजा खोला और उन्‍हें गोली मार दी गई। फिर यह कैसे पता कि वे छात्र बन कर गए थे। कुछ ने इसे सुधारते हुए कहा कि वे कुछ देर तक उनसे प्रश्‍न पूछते रहे और फिर गाेली मार कर चल भाग गए। कलबुर्गी मर गए तो किससे पता चला कि वे उसने प्रश्‍न करते रहे। इसकी जरूरत क्‍या पड़ी।

बहुत सारे कोनों को छानने के बाद आपको वह तस्‍वीर गढ़नी पड़ती है कि वे दो छात्र थे। कालबेल सुन कर उनकी पत्‍नी ने दरवाजा खोला। उन लड़कों के हाथ में कुछ कागज थे। उन्‍होंने कुछ सवालों के विषय में शंकानिवारण के लिए उनसे समय चाहा था। कलबुर्गी बहुत ही खुले और निरहंकारी स्‍वभाव के विद्वान थे, अन्‍यथा वह उनको भीतर न ले जातीं। वह मुड़ीं तो उनके साथ केवल एक छात्र भीतर गया, जिसे कुछ ‘समझना’ या समझाना था, दूसरा बाहर रहा । वह उसके लिए चाय आदि के लिए रसोई की ओर गईं कि इसी बीच उसने गोली मार दी और आवाज सुन कर वह मुड़ीं तब तक वह खुलेे दरवाजे से बाहर हो गया और उस मोटर सायकिल या स्‍कूटर पर जो तैयार था बैठ कर भाग गया।

2. हत्‍या के कारणों में हिन्‍दू संगठन, राम सेने आदि का नाम लिया जाता रहा और इन्‍हें हिन्‍दू संगठन मानते हुए हिन्‍दू सांप्रदायिकता के उभार से जोड़ते हुए भाजपा से और फिर मोदी प्रशासन की असहिष्‍णुता से जोड़ा जाता रहा। इस बात को समझने में आपको स्‍वय कुछ खोजबीन करनी पड़ती है कि कलबुर्गी लिंगायत संप्रदाय के थे और लिंगायत संप्रदाय के विषय में कुछ टिप्‍पणियाें के कारण दो दशक पहले ही उनके संप्रदाय के लोग धमकियां देने लगे थे। कुछ टिप्‍पणियों में भी यह पता नहीं चलता कि कलबुर्गी की वे टिप्‍पणियां या उनमें से कोई टिप्‍पणी किस बात को ले कर थी। खोज करने पर पता चलता है कि कलबुर्गी ने वीरशैव मत के संस्थापक, बासव, उनकी पत्नी और बहन के बारे में कुछ अशोभन तथ्य उजागर किए थे ।

उनके ये विचार मार्ग 1 में प्रकाशित हुए थे जिनमें दावा किया गया था कि बासवेश्व र की दूसरी पत्नीव नीलंबिके के लिखे वचनों की छानबीन के आधार पर यह दावा किया था कि अपने पति से उनका शारीरिक संबन्ध न था। इसके बाद उन्होंने एक दूसरे लेख में वीरशैव संप्रदाय के एक दूसरे कवि चन्न‍बासव के विषय में लिखा कि वह बासव की बहन नागमल्लिके के एक मोची से हुए विवाह से पैदा हुए थेा। इससे लिंगायत संप्रदाय के लोग आहत हुए थे और लिंगायत मन्दिर के प्रधान ने उनको 1989 में बुला कर आपत्तिजनक अंशों को निकाल देने को मजबूर किया तो उन लेखों को निकाल दिया था। इन्हें निकालने के बाद उन्होंने कहा कि उन्होंने अपनी जान और परिवार की रक्षा की चिंता से कातर हो कर मैंने बौद्धिक आत्मंहत्या कर ली थी।

1914 में बंगलूर में एक संगोष्ठी में अन्धविश्वास निवारण के औचित्य पर बोलते हुए उन्होंने यू आर अनन्तमूर्ति की 1996 में प्रकाशित पुस्तक ‘प्रतिमा-पूजन क्यों गलत है’, में उनके द्वारा दर्ज, उनके बचपन के अनुभव का हवाला दिया था जिसमें उन्होंने एक प्रतिमा पर यह जांचने के लिए पेशाब कर दिया कि देखें देवता इस पर नाराज होते हैं या नहीं और इस पर कहते हैं दक्षिण पन्थी संगठनों के लोगों ने दोनों लेखको को धमकाया था। संभवत: यही वह पृष्ठभूमि थी जिससे आतंकित अनुभव करते हुए यू आर अनन्तमूर्ति ने अपना वह बयान दिया था कि यदि मोदी के हाथ में सत्ता आई तो वह इस देश में नहीं रहेंगे। कुछ दिनों के बाद उन्‍हें अपनी गलती का बोध हो गया था और इसे स्‍वीकार भी किया था।

3. इस बात पर परदा डालते हुए कि कलबुर्गी को उनके ही संप्रदाय के रूढि़वादी और ऐसे लोगों ने भारा था जिनकी शिनाख्‍त करना कठिन न था, क्‍योंकि उन्‍होंने उन्‍हें धमकाया था, बुला कर अपना कथन बदलने को बाध्‍य किया था, फिर ऐसा करने के बाद यह कहने पर कि मैंने दबाव में ऐसा किया, अपने पूर्व मत को सही मानता हूं और फिर हत्‍या से पहले उन्‍होंने फिर उस संप्रदाय की दुखती रंग को छेड़ा था, इसलिए इस हत्‍या को किसी अन्‍य हत्‍या से नहीं जोड़ा जा सकता। इसके बावजूद न केवल इसके लिए लगातार खींचतान की जाती रही, अपितु जब एक रपट पर, जिसमें यह कहा गया था कि तीनों हत्‍याओं के पीछे एक ही संगठन का हाथ था, अपनी प्रतिक्रिया देते हुए रिरिजू ने बयान दिया कि इस बात की पुष्टि नहीं हुई है कि तीनों के पीछे किसी एक दल का हाथ था, तो उनकी भर्त्‍सना की जाती रही।

4. अब हम यदि यह जानना चाहें कि कांग्रेस सरकार आज तक अपराधी को पकड़ क्‍यों न सकी जब कि उसके बाद सत्‍ता में आई भाजपा सरकार ने महाराष्‍ट्र् में कांग्रेस शासन में हुई पनसारे और दाभोलकर की हत्‍याओं के अपराधियों को उनकी सही जगह पहुंचा दिया, तो इसका कारण यह है कि कर्नाटक में लिंगायत संप्रदाय केे मतदाताओं का अनुपात 15 -16 प्रतिशत है जो वोटबैंक की तरह काम करता है और इसके ही समर्थन से क्रांग्रेेस सत्‍ता में आई थी इसलिए इसके अपराधियों को हाथ लगाने का उसका साहस नहीं हुआ। परन्‍तु इस तथ्‍य काेे आज तक की चर्चाओं में लगातार छिपाया जाता रहा क्‍योंकि इससे भाजपा पर और उसके माध्‍यम से मोदी सरकार पर निशाना साधने का अवसर हाथ से जाता रहता है।

हम जब कह रहे थे कि आज की दुर्भाग्‍यपूर्ण स्थिति के लिए, जिसमें मोदी केन्‍द्रीय राजनीति में आए, हमारे बुद्धिजीवियों की जिम्‍मेदारी बनती है क्‍योंकि समाज की मानसिकता सरकारेंं नहीं साहित्‍यकार और बुद्धिजीवी बनाते हैं और वे अपनी भूमिका तक न समझ कर राजनीतिज्ञों के इशारे पर तमाशे दिखाते रहे तो ऐसा क्‍यों कह रहे थे। यदि बुद्धिजीवी अपने को अधिक चालाक और अपने पाठकों और श्रोताओं को मूर्ख समझने लगें, और यह मान लें कि वे उन्‍हें जो चाहें समझा सकते हैं तो वे अपने को तर्कवादी मूर्ख तो मान सकते हैं पर बुद्धिमान नहीं। वे अपने को धूर्त तो कह सकते हैं पर बौद्धिक नहीं।

उन्‍हें धूर्त कहते हुए मुझे दुख होता है, बिरादरी अपनी ही है,पर सक्रिय राजनीति से जुड़ाव ने उनको धूर्तों और फरेबियों की जमात में बदल दिया। वे गैर जिम्‍मेदार राजनीतिकारों की तरह लगातार तथ्‍यों को तोड़, मरोड़, स्‍थानान्‍तरित और अतिरंजित करने की ऐसी आदत डाल चुके हैं कि उन्‍हें यह भी पता नहीं कि वे कुछ गलत कर रहे हैं। हालत यह कि स्‍वयं अपना सम्‍मान और पुरस्‍कार फेंकने वाले उसे फेंकू कहने लगे हैं जो जोड़ और मिला कर रखने की राजनीति कर रहा है। कबीरदास का हमाारे मित्र लगातार नाम लेते रहे हैं, पर वे आज होते तो उनकी लड़ाई किन नए पाखंडियों से होती । जाहिर है उनसे जो पुरस्‍कार ही नहीं अपना देश तक फेंकने का कारोबार कर रहे हैं और जो इसे संभाल और बचा कर रखने के लिए कृतसंकल्‍प है उसे फेंकू कह रहे हैं।