मेरे लिए सदा से यह समस्या रही है कि आदमी सच के सिवाय कुछ बोल कैसे सकता है, जो बोलता है उस पर सही सिद्ध होने से कैसे बच सकता है। मनुष्य हो कर ऐसा कोई कर नहीं सकता इसलिए यदि आप कहें कि आप दुनिया के महानतम चिंतक हैं तो मैं यह सोच कर कि अगला सही ही कह रहा होगा, मैं दुनिया का महानतम चिन्तक हूं अौर यह तेवर तब तक बना रहता है जब तक कोई ऐसा नहीं मिल जाता कि तुम टुकड़े के मोल हो। जैसा कि मैं दावा करता हूं कि मैं कभी गलत नहीं होता इसलिए इसका इसका पता लगाने लगता हूं कि इस अादमी ने जो कुछ कहा, वह भी सही होगा, क्योंकि आदमी है तो झूठ तो बोलेगा नहीं। कारण, आदमी को जानवर से अलग करने वाली कोई एक विशेषता है तो यह कि मनुष्य के पास भाषा है और जानवरों के पास भाषा नहीं संकेत प्रणाली है और कुछ विशेष स्थितियों में वह भाषा से अधिक दुर्लभ हो सकती है। भाषा स्वयं भी एक संकेत प्रणाली है पर ऐसी कि जिसकी शक्ति इसकी पवित्रता से जुड़ी हुई है। पवित्रता उसके वाचिक अर्थ की व्यावहारिकता से जुड़ी हुई है। कथन का अर्थ सन्दर्भ और देश-काल से जुड़ा है और अंतत: उस व्यक्ति की अनवलिप्तता से, किसी तरह की कीचड़ या काजल से मुक्ति से जुड़ी है और इसलिए जो भाषा की पवित्रता की रक्षा नहीं कर पाता, उसके बारे में मेरी एक ही राय बनती है, ‘यह आदमी, आदमी नहीं बन पाया है। उसके प्रति क्रोध नहीं, करुणा उपजती है, यह आदमशक्ल, आदमी से अधिक बड़ा आदमी सिद्ध होने के लिए जिस चीज काे नष्ट कर रहा है वह ठीक वही चीज है जिसने उसे जानवर से आदमी में रूपान्तरित करना चाहता है। इसलिए मेरी समझ की कमी के कारण कोई मेरा तिरस्कार करे यह मुझे स्वीकार है, इससे अकेला मैं प्रभावित होता हूं, परन्तु उस उपलब्धि को जिसकें बल पर वह आदमी बना था और अपने अनुरूप पूरे समाज को बनाना चाहता है तो पीड़ा ऐसे लोगों के इरादों के सफल हो जाने की कल्पना से मानवता के भविष्य को सोचकर होती है।
मुझे अपने खतों के जवाब में जो प्रशंशोक्तियां मिलती हैं उनसे आत्मबल मिलता है, आलोचना से, यहां तक निन्दा से अपनी गलतियों पर पुनविचार का और अपनी गलतियों के सुधार का अवसर मिलता है और मैं उनसे नसीहत लेते हुए पहले से, गलतफहमी न हो इसलिए स्पष्ट करूं कि अपने ही पहले के लिखे से, अच्छा लिखता हूं। परन्तु मैं उन आलोचनाओं को समझ नहीं पाता जो साहित्य में राजनीति करती हैं अौर अपनी राजकीति ये …