भारतीय राजनीति में मोदी फैक्टर – 6
मोदी, सुनते हैं, पढ़ने में औसत थे और वाद प्रतियोगिता में बहुत प्रभावशाली। आज भी बोलते हैं तो लगता है किसी कालेज के डिबेट में हिस्सा ले रहे हैं। मुझे यह खटकता है, परन्तु मुझे अपने बोलने का तरीका उससे अधिक खटकता है। मुझे केवल नामवर जी की वक्तृता शैली सबसे अधिक पसन्द आती है। सबसे अधिक पसन्द आती है कहते समय मेरे सामने कृपालानी, मेनन, राधाकृष्णन, नेहरू, जय प्रकाश नारायण, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रणदिवे, दिग्विजयनाथ, अज्ञेय, सभी, जिन्हें कभी सुन रखा है आते हैं। सधे हुए वाक्य, स्पष्ट, निरुद्वेग, सुश्रव्य उच्चारण और विषय का ऐसा विवेचन जिससे वक्तृता के स्थापत्य को समझा जा सके। ये आदर्श मेरे सामने है, परन्तु मैं कोशिश करके भी इनमें से कोई गुण अपना नहीं पाया। बोलना आरंभ करूंगा तो बड़ी कोशिश के साथ निरुद्वेग रहने की कोशिश करूंगा, इसमें सबसे अधिक श्रम लगता है, फिर किसी पक्ष को लेकर अपने स्वाभाविक दबाव में आया तो रफ्तार तेज हो जाएगी, वाक्य संयुक्त होते जाएंगे, श्रव्यता अस्पष्ट होती जाएगी, आवेग बढ़ता जाएगा, और यदि इस विषय में सचेत हुआ कि आवेश को नियंत्रित करके सम पर आऊं तो क्या कह रहा था, यह भी भूल जाएगा, और आगे क्या कहना है यह भी। कई बार यह सोच कर कि लोग निर्धारित समय सीमा से अधिक समय ले लेते हैं, सुनने वाले ऊब जाते हैं, कहीं मैं भी ऐसा न कर रहा होऊं, एक पक्ष का विवेचन करके छुट्टी पा लूंगा।
निष्कर्ष यह कि हमारा एक अन्त:राग होता है, वह सध जाता है तो वह स्वभाव का अंग बन जाता है। यह हमारे सिगनेचर जैसा है। हमारे स्व-भाव में हमारा सोचना, बोलना, हंसने का तरीका, उच्चारण, लिखने और बोलने की रफ्तार सभी आते हैं। इसलिए हमें जो अपने कल्पित आदर्श के अनुरूप न लगे उसके साथ अपने काे
समायोजित करना चाहिए अन्यथा हम सुनते हुए भी कुछ सुन या समझ न पाएंगे।
परन्तु उनका असाधारण प्रखर न होना उनको मिला सबसे बड़ा वरदान है। असाधारण प्रखरता के लोग हमें प्रभावित तो करते हैं परन्तु उनका सकल योगदान उन लोगों से कम होता है जिन्हें हम मीडियाकर कह कर मजाक उड़ाते हैं (देखें, कोसंबी, राजकमल, पृ.14-16, इतिहास का वर्तमान, पृ. 91, इतिहास का वर्तमान खंड – दो, पृ. 236)। गांधी से लेकर आइंस्टाइन तक इसी कोटि में आते हैं। हो सकता है यह मैंने अपने बचाव में तैयार किया हो क्योंकि मैं पढ़ता बहुत धीरे हूँ और लिखने की रफ्तार इतनी मन्द कि कभी किसी परीक्षा में सभी सवाल लिख नहीं पाता था। सन्तोष यह कि इसके बाद भी नंबर सबसे अधिक होते थे। लोग पचीस तीस की उम्र में धूम मचा देते हैं मैं पचास की उम्र तक लिखने की तैयारी ही करता रह गया।
सभी मीडियाकर ऊंचाई पर नहीं पहुंच पाते । इसलिए मीडियाकर होना कोई उपलब्धि नहीं है। इनमें से जो पहुंचते हैं वे अपनी सत्यनिष्ठा और कार्यनिष्ठा के कारण, अपनी दृढ़ता और आत्मविश्वास के बल पर। इनमें खोट हो तो वे महारथियों के कुचक्र में कुचल दिए जाएं। सत्यनिष्ठा और कर्मनष्ठिा का यह कवच महारथों के पहिए मोड़ देता है। सत्यनिष्ठा के अभाव में, धूर्तता से अर्जित सफलता चन्दरोजा होती है।
यदि आप मोदी और अरविन्द केजरीवाल की तुलना करें तो मेरा आकलन समझ में आ जाएगा। मोदी ने अपने और केवल अपने गुणों के आधार पर अपने संगठन के अन्दर वरिष्ठों का आशीर्वाद लेते या उसकी याचना करते हुए उनके चाहे अनचाहे आगे का रास्ता बनाया और उनके सम्मान को अपनी ओर से कभी आहत नहीं किया। दूसरी ओर अन्ना से ले कर सुशान्त भूषण, प्रशान्तभूषण, अनन्तकुमार, राजमोहन गांधी, योगेन्द्र यादव जैसों से अपने को जोड़ते हुए अपने को उनकी कीर्ति का अंशभागी बनते हुए दिल्ली का चुनाव पीले जादू से जीता, संदिग्ध चरित्र और अज्ञात पूर्ववृत्त वाले चापलूसों का जत्था बना कर ऐसे चरित्र के लोगों को जिनके विचार सेंसर का काम करते प्रतीत हुए, उन्हें अपमानित करते हुए बाहर का रास्ता दिखा दिया और उस जमात का अनन्य समर्थन हासिल किया जिसके सदस्यों पर एक एक करके कोई न कोई केस दर्ज होता चला गया है।
मोदी ने अपने चुनाव अभियान में ऐसा कोई वायदा न किया जिसको पूरा करने के लिए वह निरन्तर और अविचलित भाव से काम पर न लगे हो, और अरविन्द ने कोई ऐसा वचन नहीं दिया था जिससे मुकर कर दिल्ली की उसी जनता को यह न बता दिया हो कि मैंने तुम्हें मूर्ख बनाया था और मेरा अटल विश्वास है कि मुफ्त बिजली पानी जैसा कोई दूसरा चारा फेंक कर मैं तुम्हें आगे भी बेवकूफ बना सकता हूं क्योंकि तुम चरित्रहीन हो और टुकड़ों पर बिकने के लिए तैयार हो जाते हो, हैसियत चाहे जो भी क्यों न हो। मुफतखोरों को मुफत का कुछ भी मिले तो वे पूरे देश को बेच सकते हैं और अपनी सफलता का महामन्त्र मैं इसे मानता हूं। देखो, कितने लोग मेरी नकल पर क्या क्या मुफत देने लगे हैं।
अपवाद है तो मोदी । यह आश्चर्य है कि इसे देखते हुए भी बुद्धिजीवियों का वाचाल वर्ग मोदी की आलोचना करता रहा है और अरविन्द के पीछे खड़ा होता रहा है, क्रमश: कुछ लज्जित और अधिकाधिक लज्जामग्न भाव से ही सही।
वह समय समय पर चीखता है, देखो, मोदी ने अमुक का भाव बढ़ा दिया, अमुक का पूरा कम नहीं किया, यह जानते हुए कि विकास कार्यों के लिए धन आकाश से नहीं गिरता, जमीन से ही उठाया जाता है और सभी विकास धन पर ही निर्भर करते हैं – कोशपूर्वा समारंभा:! जनता किस अर्थशास्त्र को जानती है कि वह बिना बोले कहती है, ठीक ही ता कर रहा है। यह रिश्वत दे कर लोकप्रियता पाने वाला बन्दा नहीं है जिसके आयोजन पिछले कितने सालों से चलते रहे हैं, हम तुम्हें इतने किलो चावल मुफ्त देंगे, इतने कंबल, इतनी साडियां, लैप टाप देंगे, सेलफेान देंगे। सिर्फ बिजली नहीं दे पाएंगे क्योंकि उसके लिए बोलना नहीं कुछ करना होता है,जिसकी योग्यता मुझमें नहीं और जिसके बिना तुम्हें दिया हुआ भी चार्ज न हो पाएगा इसलिए किसी जरूरतमन्द को बेचकर कुछ कमा लिया जाएगा ।
जो मुफ्त में दोगे भी वह कहां से दोगे भाई, उस निधि से जो राज्य को उन्नत बनाने के लिए दिया गया है जिससे लोगों की दीनता कम हो, तुम्हें उसका ट्रस्टी बनाया गया है कि तुम राज्य के सर्वोच्च प्रतिनिधि हो और सार्वजनिक हित में उसका विवेकपूर्ण उपयोग करते हुए हालात में सुधार लाओगे। तुम उस धन को बर्वाद कर रहे हो, बर्वाद करते हुए अपनी छवि का निर्माण कर रहे हो, वह छवि जो बनती है और बनने से पहले ही मिट जाती है।
मुफत का खाना और जब जीवन की आधारभूत जरूरत पूरी हो गई तो कितने भी अपमान सहने पड़ें, भिखारियों की कतार में सबसे आगे खड़े होने के संघर्ष के अतिरिक्त कोई संघर्ष नहीं। समाज पर बोझ बनने के अतिरिक्त कोई अन्य दायित्व नहीं। मन्दिरों, दरगाहों, मजारों के सामने लगने वाली कतारों को देखें। इतनी दुर्गति में रहते हुए भी, इससे अधिक सुखी कोई जीवन हो सकता है वे जानते ही नहीं। कहो, काम करो तो वे करने को तैयार न होंगे, और सच कहें तो आप भी उपदेश तो दे सकते हैं, उन्हें काम नहीं दे सकते। इसलिए जब आप उपदेश देते हैं कि कोई काम क्यों नहीं करते तो वे गाली देते हैं, सुना कर नहीं, पीछे मुड़ कर, ”साला, भीख का पैसा बचाने के लिए पैसे की जगह उपदेश दे रहा है।” अगर उसका वाक्य आपके कान में पड़ जाय और आप कुछ सोचते समझते हों तो आप कहेंगे कि बात तो यह भी ठीक कह रहा है। क्या मैं उसे काम दे सकता हूं।
परन्तु यह केवल काम के अवसर के अभाव के कारण नहीं होता, निकम्मेपन को स्वर्ग कहते हैं। आखिर स्वर्ग में भी तो किसी को कोई काम नहीं करना पड़ता और केवल मौज मस्ती लेनी होती है। यदि मौजमस्ती काल्पनिक स्वर्ग के अनुरूप न रहा, पेट का इंतजाम होते ही जांघ का इंतजाम ही स्वर्गसुख देता है, तो भी यह नसीब तो है।
मुफतखोरी का इतिहास लंबा है। मैं इसके इतिहास में नहीं जाऊंगा, परन्तु यह कहना चाहूंगा कि इस नरक के निर्माण का, समाज को कृपाजीवी भाग्यशालियों, निकम्मों और मुफ्तखोरों के समाज में बदलने का, काम बहुत छोटे छोटे पर जगजाहिर पैमाने पर नेहरू जी के समय से ही आरंभ हो गया था, परन्तु यह कालाबाजारियों, और घोटालेबाजों तक सीमित था, आम जनता तक इसका प्रसार नहीं हुआ था। इन्दिरा जी के समय में पहली बार उजागर किया गया कि भ्रष्टाचार कहां नहीं है और इसकी कीमत देने के लिए इतना बड़ा वादा – गरीबी हटाआे – आरंभ किया गया। गरीबी मिटाने वालों ने गरीबों को तबाह कर दिया । अब दलालों और मुफ्तखोरों को सम्मान मिलना भी आरंभ हाे गया। यह उन भिखारियों से अलग समाज था । इससे पहले यह अपने त्याग और आत्मसम्मान के बल पर अपने को बड़ा समझता था। यह नया तबका सब कुछ गंवा कर भी तुच्छतम तक को प्राप्त करना चाहता था और किसने कितना खसोट लिया, कितना बीच में खा गया, इस कसौटी पर उसकी हैसियत का मूल्यांकन किया जाता था।
मीठा जहर पिला कर पूरे समाज को नपुंसक बनाने वाले इस माहौल में एक ऐसा व्यक्ति भारतीय राजनीतिक मंच पर उपस्थित होता है जो कहता है मैं मुफ्त में कुछ नहीं दूंगा। तुम्हें इस योग्य बनाने के लिए कि तुम अपने पांवों पर खड़े हो सको, मैं तुमसे विनय पूर्वक तुम्हारे भाग्य निर्माण में अंशदान करने काे बाध्य करूंगा। जिन्हें अंशदान की सहायता की जरूरत नहीं है उनसे अनुरोध करूंगा कि वे आत्मसम्मान का परिचय दें और स्वत: वे सुविधाएं छोड़ दें। आश्चर्य यह कि इसे लोगों ने सुना और अपनी अनुग्रहराशि वापस कर दी जब कि इससे पहले उनका नैतिक क्षरण इस स्तर का हो चुका था कि वे टुकड़ों के लिए देश भी बेच सकते थे और अपने आप को भी बेच सकते थे। बेचते भी रहे और प्रतिष्ठा भी पाते रहे।
विश्व इतिहास में अप्रिय निर्णय लेने वाले ही मूर्धन्य नेता बने है। आश्चर्य यह कि अखबार वाले उल्टा पाठ पढ़ा रहे हैं कि देखो देखो इसने राहत देने की जगह इतना और जड़ दिया, अमुक का पूरा लाभ मिला ही नहीं, इसे जानते हुए भी यह विश्वास काम कर रहा है कि यह आदमी हमें पंगुता, अपमान और ग्लानि से बाहर निकालने को तत्पर है और उसकी लोपप्रियता का आरेख नीचे आने का नाम ही नहीं लेता। जो सब कुछ मुफ्त में देने को तैयार हैं उनका घर ही संभल नहीं पा रहा है। जिस रहस्य को हमारे मुखर और अतिमुखर बुद्धिजीवी नहीं समझ पाते उसे अनपढ़ जन कैसे पढ़ लेते हैं और कैसे उसके साथ हो लेते हैं, इसपर खोज हो तो यह भी पता चलेगा कि यह लेखक क्यों चाहता है कि इस आदमी के काम मे व्यवधान न डाला जाय और रोज मस्खरेबाजी करते हुए सोच और समझ का स्तर इतना न गिरा दिया जाय कि हम अपने वर्तमान का सामना न कर सकें, भविष्य के सपनों तक पहुंचने के रास्ते न निकाल सकें और हम जहां हैं वहीं जन्नत है गाते हुए नए नरक बनाते चले जाएं।