Post – 2016-10-05

स्‍वच्‍छता अभियान – 4

“Long is the way and hard, that out of Hell leads up to light.”
John Milton, Paradise Lost

सांप्रदायिक संगठन कभी अपने संप्रदाय का पूरा प्रतिनिधित्‍व नहीं करते। ये कुछ लोगों के द्वारा उसके नाम पर गढ़ लिए जाते हैं और ये उनके व्‍यक्तिगत प्रभाव क्षेत्र से आगे बढ़ कर उतने लोगों में फैलते जाते है जिन तक पहुंचने की युक्ति और शक्ति का विस्‍तार वे कर पाते हैं। अपने को उसका प्रतिनिधि सिद्ध करने के लिए वे उसे उत्‍तेजित करते हैं और उत्‍तेजित करने के लिए उत्‍तेजक समस्‍याओं को उठाते या जन्‍म देते हैं। मुस्लिम लीग यदि समस्‍त मुसलमानों का संगठन होता तो उसे सीधी कार्रवाई के नाम पर दंगे भड़का कर और हजारों बेगुनाह लोगोंं की जान लेने की जरूरत पैदा नहीं होती। यह किया गया कि नफरत पैदा हो और अलगाव बढ़े और उस ध्रुवीकरण का लाभ उसे मिले। लोग इसके शिकार हो गए यह कहना भी गलत है, अन्‍यथा कम्‍युनिस्‍ट पार्टी को इसके समर्थन की जरूरत न पड़ती।

ठीक इसी तरह कहा जा सकता है कि संघ या हिन्‍दू महासभा कोई भी हिन्‍दुओं का प्रतिनिधि न रहीं। इसका एक बड़ा कारण इनका मुस्लिम विरोधी तेवर था जिससे ये मुक्‍त न हो सके जब कि हिन्‍दू समाज के संस्‍कारों में समावेशिता है और वही उसकी एकमात्र शक्ति है जिसके बल पर इसने अपने विरोधियों काे नैतिक मात देते हुए अपनी पराधीनता के दिनों में भी अपना अस्तित्‍व कायम और माथा ऊंचा रखा। लोग तलवार की ताकत को जानते हैं, सद्भाव की ताकत का अन्‍दाज तक नहीं लगा पाते जिससे हिंस्र पशु भी इशारों पर नाचते हैं।

स्‍वभाव के इस अन्‍तर के कारण, संघ ने भीतर से मुस्लिम द्वेषी होने के बावजूद कभी कोई ऐसा अभियान आज तक नहीं चलाया जो मुस्लिम समाज के लिए अहितकर हो, अपितु उसे मध्‍यकालीन मानसिकता में रखने के लिए जिन अहितकर प्रवृत्तियों को कांग्रेस बढ़ावा देती रही, उनका विरोध किया। विभाजित भारत में भी खून की नदियां बहा देने वाली भाषा का प्रयोग उसने नहीं किया और इस भाषा का इस्‍तेमाल करने वालों के यहां सजदा करने के बावजूद, या इसके कारण ही, अपने को सेक्‍युलर कहने वाले दलोंं ने संघ के प्रति घृणा-प्रचार में कभी कसर नहीं रखी। उनका उद्देश्‍य सांप्रदायिक घृणा को उभारते हुए अपने लिए मुसलमानों को वोटबैंक में बदल कर उस पर अधिक से अधिक उत्‍तेजक और विभाजक प्रस्‍तावों से कब्‍जा करने का था।

मैंने पिछली पोस्‍ट में दो गलतियां की जिनकी ओर मेरा ध्‍यान अब जा रहा है। पहला यह कि जिसे मैंने मुसलमानों के प्रति घृणा कहा, वह मुसलमानों के प्रति आशंका और सन्‍देह हैै और इसके ठोस और पर्याप्‍त कारण उनके ही चिन्‍तकों ने जुटा रखे थे और इसके आधार पर ही उसकी लामबन्‍दी करते रहे थे – वह था विश्‍व इस्‍लामवाद या पान इस्‍ला‍मवाद – ‘हिन्‍दी हैं हम वतन है हिन्‍दोस्‍ता हमारा’ के ‘मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहां हमारा’ में बदलने की उल्‍टी साधना, जिसका ही परिणाम खिलाफत का आन्‍दोलन था। एक बड़े नाम के पीछे छिपे छोटे इरादों को भांपने में गांधी जी से चूक हुई और स्‍वतन्‍त्रता संग्राम को इसका बहुत बड़ा खमियाजा भोगना पड़ा।

फेस बुक एक तरह का आईना है और इसमें यात्रा करते हुए मैंने पाया कि अधिकांश मुसलमानों की सारी चिन्‍ता मुसलमानों को लेकर ही है, वे कहीं के भी हों। दूसरे सवालों को भी अधिकांश इसी नजरिए से देखते हैं। इसलिए इस आशंका और भय को, जो भी आत्‍मरक्षा की चिन्‍ता से जुड़ा हुआ है, मैं अकारण नहीं मानता। यदि कारण है तो उसे दूर किया जाना चाहिए, न कि उसे उचित ठहरा कर उसका विस्‍तार। परन्‍तु इसे इतना एकपक्षीय और जुगुप्‍सु बना कर पेश किया जाता रहा है कि दूसरे लोगों की तरह मैं स्‍वये भी इसे मुस्लिम द्रोह मान बैठा।

दूसरी गलती यह कि मैंने कहा इसने कोई रचनात्‍मक कार्यक्रम नहीं अपनाया, जब कि कहना चाहिए कि इसने जिन भी रचनात्‍मक और समावेशी मुद्दों को उठाया उनका उपहास करके उनका भी तिरस्‍कार किया जाता रहा। ध्‍यान दें कि हिन्‍दू असुरक्षा से चिन्तित होने के बाद भी इसने हिन्‍दू सेना, हिन्‍दू संघ जैसा नाम नहीं चुना । राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ रखा। इस पर राष्‍ट्रवाद का ठप्‍पा लगा कर राष्‍ट्र का उपहास किया जाने लगा। संभवत: इसकी राष्‍ट्र की अवधारणा उस राष्‍ट्र से भिन्‍न थी जिसे हम भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस में पाते हैं। कांग्रेस का राष्‍ट्र सर्वसमावेशी था, संघ का राष्‍ट्रवाद यूरोपीय संकीर्णता लिए हुआ था और इससे बचना जरूरी था, यद्यपि अपने पूरे इतिहास में यह उस पर कभी अमल न कर सका।

फिर इससे पैदा हुए जनसंघ ने भारतीय जनसंघ ने हिन्‍दी भाषा और इसके व्‍यवहार को अपने कार्यक्रम का अंग बनाया। यह अलग बात है कि यह उस अर्थ में भारतीय भी न था जिस अर्थ में कांग्रेस से जुड़ा इंडियन और भारतीय ।
इसकी प्रतिक्रिया में हिन्‍दी हिन्‍दू हिन्‍दुस्‍तान का फिकरा गढ़ कर हिन्‍दी का भी विरोध करने वालों की संकीर्णता और देशविमुखता की उपेक्षा ही न की गई अपितु उस भावना का बीजारोपण किया गया जिसका नमूना दुनिया के किसी देश में मिलता हो तो उसकी जानकारी मुझे नहीं। इस अवस्‍था तक इसका अस्तित्‍व भी हाशिये पर ही बना रहा ।

परन्‍तु प्राचीन भारतीय इतिहास को हिन्‍दुओं का इतिहास मान कर उसका जिस तरह ध्‍वंस किया गया और आत्‍मपीड़न तक को आत्‍मगौरव बना कर प्रचारित किया जाता रहा, उसमें वाम और मुस्लिम और सेकुलर के अभेद और इनकी भारतविमुख और जनविमुख सोच केे खुले खेल ने पहली बार हिन्‍दू समाज के अब तक संघविमुख हिस्‍से की सोच को बदलना आरंभ किया और भाजपा के लिए जनाधार का विस्‍तार किया, उसमें अपने चरित्र के उद्घाटन के साथ दूसरे दलों का हाशिये की ओर बढ़ना और भाजपा का हाशिये से केन्‍द्र की ओर बढ़ना और एक दुर्दान्‍त शक्ति के रूप केन्‍द्र पर सत्‍ता जमाना संभव कर दिया। परन्‍तु उसकी इस सफलता से आत्‍मालोचन करते हुए अपनी नीतियों, योजनाओं और सोच में परिवर्तन लाने की जगह दूसरे सभी ने अपनी घृणा प्रचार को और उग्र किया और अपनी चिता की तैयारियों में आज भी जुटे हैं।

इसी परिवेश में देश को लूटने, बांटने, एक दूसरे से लड़ा कर टिके रहने की कोशिश में लगे इस पूरे विरोधी शिविर की बौखलाहट अपनी हताशा के अनुपात में बढ़ती जा रही है। यह वह मुकाम है जहां आग उगलने वाले फिकरों से हास्‍य रस की सृष्टि होने लगी है । हालत यह हो गई है कि पार्टियांं, स्‍वयं भाजपा और, उसके तथाकथित ‘सांस्‍कृतिक’ जनक, संघ पर से भी रोशनी फीकी होती जा रही है और एक व्‍यक्ति पर सारा फोकस केन्द्रित हो गया है। यह शुभ लक्षण नहीं है। ऐसा स्‍वतन्‍त्र भारत के इतिहास में कहले कभी नहीं हुआ, पर इसकी जड़ें उस गहराई तक जाती हैं जिसमें नेहरू की लोकप्रियता के कारण उन्‍हें यह विश्‍वास पैदा हो गया था कि भारत उनका है और वह जिसे राज सौंप देंगे वह जो भी क्‍यों न हो, वही राजा बनेगा। पार्टी का लय और उसके नेता के उदय की यह कहानी ही प्रजातन्‍त्र को व्‍यक्तितन्‍त्र में बदलने के लिए उत्‍तरदायी है। पहली बार विरोधियों को केवल एक व्‍यक्ति दिखाई देता है, मोदी और समर्थकों को जिनमें भक्‍तो की संख्‍या भी काफी है, पक्षधरों की तो होगी ही, उनको भी एक व्‍यक्ति दिखाई देता है, मोदी।

इस विशाल देश में दुख, यातना, उपलब्धि, सक्रियता की अनन्‍त घटनाएं तक हाशिए पर चली गई हैं, केवल उनकी प्रासंगिकता बढ़ी है जिसको किसी न किसी सिरे से मोदी से जोड़ कर देखा या दिखाया जा सके। विरोधी बदहवास से कीचड़ फेंकते है, रास्‍ते में वह रोशनाई में बदल जाती है, मोदी के पास पहुंच कर वह रोशनी में बदल जाती है और फैल कर आभाभंडल तैयार करने लगती है। यह विचित्र भी है और अमंगलकारी भी, परन्‍तु इसके लिए उततरदायी कौन है, या कौन हैं।

इसका बहुत सुन्‍दर नमूना हाल की उस दुखद घटना में मिल सकता है जिसमें पाकिस्‍तान का हाथ था। उरी के शहीदों के दर्द को बढ़ाते हुए उनके परिजनों के दुख दर्द और उसी केे पीछे यह संकेत आता रहा कि यह सब मोदी के कारण हुआ है। ललकार आने लगी, ‘कहां है छप्‍पन इंच का सीना।’ जवाब दो, हमें भी कि पाकिस्‍तान को ऐसा ही जवाब कब दे रहे हो। लोकतन्‍त्र का ऐसा उत्‍कर्ष विश्‍व में कभी आया न होगा कि ऐसे गधे भी सरकार से आए दिन जवाब मांग रहे हैं जो यह तक नहीं जानते कि जवाब किसी को बता कर नहीं दिया जाता। जो यह नहीं जानते कि जवाब मांगने के लिए उन्‍होंने अपने प्रतिनिधि चुन कर संसद में भेज रखे हैं और यह काम हर ऐरे गैरे का नहीं उनका है। वे भी बिना समय गंवाए इनके साथ खडें हो जाते हैं और संसद से बाहर ही जवाब मांगने लगते हैं, क्‍योंकि संसद को तो वे चलने ही नहीं देते। प्रतिनिधि हो कर भी प्रतिनिधित्‍व नहीं कर पाते। सड़क को संसद और संसद को सड़क बना देते हैं।

जब जवाब कूटनीतिक हथकंडों से दिया जाता है और शत्रु को कठघरे में खड़ा करके कि वह पंगु बना दिया जाता है तो बेताब हो जाते हैं। बस यही। इतने से काम नहीं चलेगा। जब उसकाेे गफलत में डालने के लिए जल आपूर्ति कम करने का उनका ही सुझाव मानते हुए विचार किया जाता है तो वे शोर मचाते हैं। पानी के लिए मत तरसाओ बेचारे को। मौजूंं जवाब दो और जब वह जवाब मिलता है तो शब्‍दकौशल के इतने तरीके अपनाते हुए कहते हैं हम तुम्‍हारी बात नहीं पाकिस्‍तान की बात मानते हैं। तुम झूठ बोलते हो। कुछ नहीं किया, कुछ नहीं हुआ। और जब इन्‍हीं शंकालुओं और छिद्रान्‍वेषियाें में एक अखबार सचाई को जगागर कर देता है, तब भी अपनी लाज बचाने के लिए ही सही अपने फेसबुक से उन फिकरों को निकाल बाहर करने का भी ध्‍यान नहीं रखते। नंगा नाचै फाटै का।

सारा हमला एक आदमी पर और जवाब में नि:शब्‍द फटकार, फिर थप्‍पड़, फिर तुम्‍हारे जूते से तुम्‍हारी पिटाई और उसके बाद भी सोचा नहीं कि जो कुछ हुआ सब तुम्‍हारे कहने से हुआ, और तुम अपनी ही दुम चबाते हुए निढाल चीख रहे हो फासिज्‍म आने वाला है। इतना अपमान इतिहास में अपने को बुद्धिजीवी कहने वालों पहले नहीं किया होगा। आश्‍चर्य इतिहास में इतनी विचित्र चीजें पहली बार हो रही हैं। तुमने केवल यह सिद्ध किया है कि मोदी स्‍वर्ग भी उतार दे तो तुम उसे नरक बना दोगे। कला और साहित्‍य के नाम पर यही किया गया है। मिल्‍टन की एक उक्ति के साथ इसे आरंभ किया था, उन्‍हीं की एक पंक्ति के साथ इसकी समाप्ति:
“A mind not to be changed by place or time.
The mind is its own place, and in itself
Can make a heav’n of hell, a hell of heav’n.”
― John Milton, Paradise Lost
तुमने साठ सालों के दौरान बड़े श्रम सेे जिस स्‍वतंत्र भारत को अपना नरक बनाया था, उसे मोदी स्‍वर्ग बनाने के अभियान में जुटा है और तुम उसे दुबारा नरक बनाने के लिए कृतसंकल्‍प हो। खुली धूप और खुली हवा में कीडे बिना किसी हथियार के मारे मर जाते हैं। उसमें सांस लेने की आदत डालो। मोदी को तुमने बनाया है, अपनी रचना का सम्‍मान करो। मैं तुम्‍हें नहीं समझ पा रहा हूं, तुम्‍हारी इस रचना को समझना चाहता हूं, पर वह संभव हुआ तो कल।