स्वच्छता अभियान – 3
स्वच्छता का अर्थ आन्तरिक शुद्धता, बाह्य और परिवेशीय निर्मलता, नैतिक दृढ़ता और स्वावलंबन है। अकेले इस शब्द में समग्र गांधीवाद समाहित है – सत्य भी, अहिंसा भी, असत्य और अन्याय से असहयोग भी, और सुराज का आन्दोलन भी। गांधी अपने को सनातनी हिन्दू कहते थे, परन्तु उनके लिए हर एक चीज का एक भिन्न अर्थ था। पूजा – कोई काम तन्मयता से नित्य करना, जिसमें सूत कातना भी आता था और सत्संग या प्रार्थनासभा भी आती थी। कोई मूरत नहीं, कोई आराध्य नहीं, किसी के सामने माथा टेकना नहीं, ध्येय बस एक – उनके सर्वोत्कृष्ट कर्मों काेे अपने कार्यक्रम का हिस्सा बनाना। राम उनके लिए उस रामराज्य के लिए महत्वपूर्ण, जिसमें दैहिक, दैविक, भौतिक किसी प्रकार का ताप, किसी प्राणी को न हो। वैष्णव धर्म परदु:ख कातरता तक – ‘ जे पीर पराई जाणे रे’ – इससे आगे सनातनता का कुछ भी नहीं और इसी के माध्यम से वह एक ऐसा आदर्श हिन्दू समाज बनाना चाहते थे जिसमें न कोई अस्पृश्य रह जाय न किसी के लिए कोई काम मलिन रह जाय।
गांधी वर्णव्यवस्था के समर्थक नहीं थे, वह बाहर से किसी चीज को बलप्रयोग द्वारा तोड़ने या बदलने को भी हिंसा का ही एक रूप मानते थे, इसलिए वह उसके भीतर से ऐसी चेतना जाग्रत करते हुए स्वयं बदलने की प्रेरणा भरना चाहते थे कि उसमें बदलाव आ जाय, वह आत्मोद्धार करे, कोई दूसरा उसके उद्धार के लिए न आए। वह इसी लिए उग्र और फासिस्ट विचारों के लोगों को भी कांग्रेस में लाने के पक्षधर थे, परन्तु यह अपेक्षा करते थे कि वह इसकी उन नीतियों के अनुसार अपने को बदलेगा। वह बुराई को दूर करना चाहते थे, बुरे को दूर रखना नहीं चाहते थे, क्योंकि उस दशा में उसको बुराई से मुक्त नहीं किया जा सकता।
वह सभी धर्मों को समान नहीं मानते थे, अपितु उनके धर्मग्रन्थों के जो उज्वल विचार और उनके महापुरुषों केे जो सर्वोत्कृष्ट आचरण थे उनको अपनी प्रेरणा का स्रोत मानते थे और केवल इसी अर्थ में उनका यह विचार था कि सभी धर्मों के लोगों और ग्रन्थों में कुछ ऐसे उज्ज्वल रत्न मिलते हैं जिनसे हम अपना आध्यात्मिक उत्थान कर सकते हैं। शेष का उनके लिए हो कर भी न होने जैसा अर्थ था। यह सनातन धर्म और इसके ग्रन्थों के विषय में उतना ही सच था, जितना इस्लाम या ईसाइयत के लिए ।
हमारे और उनके दृष्टिकोण में केवल इतना अन्तर है कि हमारा ध्यान दूसरे मतों, विश्वासों, उनके ग्रन्थों के उन अंशों पर जाता है जो हमें विकृत या निन्दनीय लगते है, और अपने धर्म या मत और समाज की केवल अच्छाइयां नजर आती हैं मानों इसमें बुराइयां हों ही नहीं, जब कि उनका ध्यान अपने पराए के भेद के बिना केवल उनके उत्कष्ट अंशों, आचारों या विचारो तक जाता, मानो उसके अलावा कुछ हो ही नहीं। अग्राह्य की ओर नजर ही न जाती थी, जैसे फूल या फल चुनने वाले का ध्यान फूल या फल को छोड कर और उनमें भी जो खिले या पकेे होंं, उन्हें छोड़ कर और कुछ हो ही नहीं। हमने नीट्शे के बारे में कहा था, उसका सबसे बड़ा सपना माली बनने का था। गांधी माली थे।
उन्होंने मानवता का जितना गौरवपूर्ण सपना देखा था, उतना बड़ा सपना उनसे पहले या उनके समय में या बाद में किसी नेे नहीं देखा। मार्क्स का सपना उनके सामने बचकाना खयाल बन कर रह जाता है। पर उनका कोई सपना पूरा नहीं हुआ और कोई भी सर्वथा व्यर्थ नहीं गया – चरितार्थ नहीं हुआ तो आकांक्षा और विश्वास बन कर बचा रह गया है जैसे दुर्गन्ध भरे माहौल में भी फूल की खुशबू उसमें अलक्ष्य ही सही परन्तु उस मलिनता को कुछ कम करती है, वैसे काम करती है।
2 अक्तूबर गांधी का जन्मदिन है, मेरे लिए आैर गांधी आश्रम वालों के लिए भी, अक्तूबर गांधी जी का जन्म मास है।
इस दो अक्तूबर को एक चौकाने वाली घटना का समाचार आया। कुछ लोगों ने गोडसे की प्रतिमा स्थापित की जिसका अनवरण किया। यदि इसके लिए गोडसे की फांसी का दिवस चुना गया होता, इसे सिंधु के तट पर कहीं स्थापित किया गया होता, जो गोडसे की अन्तरात्मा के अनुरूप होता और मेरेे स्वास्थ्य और साधन इसकी अनुमति देते तो मैं भी उस महापुरुष को श्रद्धा निवेदन करने पहुंचने में संकोच न करता। आप जानते होंगे कि गोडसे ने अपने इच्छापत्र में लिखा था कि उसकी भस्म को तब तक प्रवाहित न किया जाय जब तक भारत पुन: अखंड नही हो जाता और इसके बाद उसे सिन्धु नद में प्रवाहित किया जाय। यदि गांधी ने किसी अन्य प्रसंग में नाथूराम गोडसे के चरित्र की उस दृढ़ता को देखा होता जिसका हवाला हम पहले दे आए हैं तो वह भी उनके चरित्र के उन पक्षों के कारण उनको महापुरुष ही मानते, यद्वपि संकीर्णता के कारण विक्षिप्त भी।
परन्तु गांधी जे जन्म दिन पर उनकेे हत्यारे की मूर्ति प्रतिष्ठा और अनावरण, गोडसे का सम्मान नहीं है, गांधी जी के प्रति आयोजकों के मन में पलने वाली घृणा की अभिव्यक्ति है और उनकी पाशविकता प्रेम को प्रकट करता है, जिससे गोडसे का भी अपमान होता है। वह इतने क्षुद्र व्यक्ति नहीं थे, उतने तो कदापि नहीं जितना पिछले वर्षों अपने को गांधीवादी कहने वाले एक दो व्यक्तियों ने सिद्ध करने का प्रयत्न किया था, या जितना उनके नए भक्त उनकी प्रतिमा के माध्यम से आज मोदी पर और उनके सबका-साथ-सबका-विकास के लक्ष्य काेे विफल करने के लिए कर रहे हैं।
संघ से मोहभंग होने के बाद मेरे मन में उसके प्रति कभी सहानुभूति नहीं पैदा हुई। एक बार, आज से चालीस इकतालीस साल पहले, सूर्यनारायण त्रिपाठी ने जिनसे हमारे सामान्य औपचारिक संबंध थे और हम एक दसरे के घर आते जाते भी थे, मेरे पुत्र के विषय में कहा, ”अब इसके स्वास्थ्य पर भी ध्यान दीजिए। इसको कल से शाखा में ले जाऊगा,” तो मैेंनेे उन्हें समझाया था कि इसका स्वास्थ्य कुछ ढीला रहे तो भी बाद में ठीक हो जाएगा, परन्तु इसका दिमाग आपके यहां जा कर जितना खराब हो जाएगा, उसको सुधारने में बहुत लंबा समय लगेगा।
संघ से मेरी अरुचि के तीन कारण रहे हैं, पहला, यह कि इसमें आरंंभ ही धोखा धड़ी से होता है। आप स्वास्थ्य का झांसा दे कर उस वय में ही बच्चे को अपने दल का हिस्सा बनाते हैं जब उसमें राजनीति की कोई समझ नहीं और उसके मन को अपने अनुसार ढालना आरंभ करते हैं। यह काम सभी धर्म करते रहे हैं और इसलिए सभी शिक्षा पर एकाधिकार करने केे लिए प्रयत्नशील रहते रहे हैं। इसके द्वारा उनमें ज्ञान के नाम पर एक तरह की कट्टरता पैदा करते रहे हैं जो उनको अपनेे औजार के रूप में काम में लाने में सहायक रहीी है। येे हमारे आश्रम, गुरुकुल रहे हों, या कान्वेंट स्कूल रहे हों या मकतब और मदरसे रहे हों। परन्तु संघ की स्थिति उनसे भी कुछ घट कर है क्योंकि इसमें शिक्षा की जगह सीधे लट्ठ पकड़ा दिया जाता रहा है।
दूसरे इस सैन्य संगठन को हिन्दू संस्कृति का वाहक बताया जाता रहा है। भारतीय परंपरा में दो शब्द हैं, एक उद्दंड और दूसरा लंठ या लाठी के बल पर अधिक भरोसा करने वाला। इन दो शब्दों से ही पता चल जाएगा कि भारतीय संस्कृति का कितना अच्छा ज्ञान इन्हें रहा है। हिन्दू संस्कृति का इससे बड़ा़ अपमान और इसकी इससे अधिक बड़ी नासमझी दूसरी कोई हो नहीं सकती।
तीसरे इसके पास कोई सकारात्मक कार्यक्रम नहीं जिसे ले कर यह अपने संगठन को मजबूती से एकजुट रख सके। इसलिए इसमें हिन्दुओं के हित का कोई रचनात्मक कार्यक्रम नहीं। इसका जन्म 1920 के दशक के हृदयविदारक मुस्लिम दंगों के वातावरण में आत्मरक्षा से कातर हो कर किया गया था और इस दृष्टि से इसकी आवश्यकता थी, इसलिए इसमें मुसलमानों के अहित को ही हिन्दू का हित मान लिया गया।
इत तीन कारणों से कोई भी आदर्शवादी, प्रतिभाशाली, मानवतावादी तरुण इससे आकर्षित नहीं हो सकता इसलिए इसमें बुद्धिजीवियों का नितान्त अभाव ही नहीं रहा अपितु उनकी राजनीतिक सोच जो भी क्यों न हो, दूसरे सभी इससे विरक्त रहे और इसके कटु आलोचक रहे हैं। मैं विज्ञान आदि के क्षेत्र की कुछ प्रखर प्रतिभाओं का अवमूल्यन नहीं करना चाहता जो इससे जुडे, परन्तु विज्ञान मनुष्य को अधिक शक्तिशाली अधिक दक्ष प्राणी बनाता है, अधिक अच्छा मनुष्य बनाने का काम मानविकी के विषयों, साहित्य, कला, समाजशास्त्र, इतिहास, मनोविज्ञान आदि का ही है और इनसे ही हमारा बुद्धिजीवीवर्ग निकलता है, इसलिए संघ से मेरी स्वयं वितृष्णा रही है, जब कि संघ से जुड़े अनेक लोग मेरे इस विकर्षण को जानते हुए भी, बहुत अच्छे मित्र रहे हैं, आज भी है और जैसा कि मैंने पहलेे कहा था किसी अन्य संगठन की तुलना में ये कम भले लोग नहीं हैं। यह दूसरी बात है कि ये भी खंडित चेतना के लोग और खंडित मानवता के उपासक रहे हैं। इनसे हमारा विचार विमर्श राजनीतिनिरपेक्ष और विषयसापेक्ष रहा है।
कोई भी दल या संगठन, जाति या धर्म, उस तरह का सांचा नहीं होता जिसे हम फैक्ट्रियों में पाते हैं और जिनसे एक जैसे असंख्य नमूने ढल कर निकलते हैं। मनुष्य इतने अनगिनत घटकों के संघात से टकराता और बचता हुआ निकलता है जिसका केवल एक पक्ष दल या संगठन, या दूसरी सामूहिकताएं होती हैं। इसलिए हमें उन सामूहिकताओं के बीच भी, जिनके बारे में हमारी धारणा बहुत अच्छी होती है, इतने घटिया और फिर भी सफलता की सीढि़यांं चढ़ने में सफल लोग मिलते हैं, और इसके विपरीत उन सामूहिकताओं के बीच जिनके विषय में हमारी राय बहुत खराब होती है, इतने विलक्षण लोग मिल जाते हैं जो हमें हैरानी में डाल देते हैं। हम उनको देख कर, उनकेे व्यवहार को परख कर भी, उन पर उस संगठन से उनकेे जुड़ाव के कारण, विश्वास नहीं कर पाते। अटल बिहारी वाजपेयी अपने व्यक्तिगत संस्कारों के कारण ऐसे ही व्यक्ति थे, परन्तु उनके लंबे शासन के बाद भी क्या उनकी स्वीकार्यता उस बुद्धिजीवीवर्ग के बीच बन पाई जो यह मानने को बाध्य थे कि उनके शासन में और नीतियों में अधिक समावेशिता है।
नरेन्द्र दामोदर भाई मोदी दूसरे ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने मुझे चकित किया। इनके विषय में तीन घटनाएं ऐसी थीं जिनके कारण मेरी व्यक्तिगत राय, जब से उन्हें जानना आरंभ किया, अच्छी न थी। इनमें एक था, बाबरी मस्जिद के ध्वंस के दसवेंं साल का उत्सव मनाने के लिए साबरमती एक्सप्रेस से कारसेवकों को भेजना। वे अयोध्या में जिस तरह के नारे लगाते हुए, जिस डरावने जोश से चीखते हुए जलूस निकाल कर घूम रहे थे उसकाेे समाचार चैनलों से देख कर मुझे बहुत धक्का लगा था और गोधरा घटित होने से पहले ही मैंने अपने आस पास के लोगों से कहा था यह बहुत अशुभ है। इसके परिणाम अनिष्टकर हो सकते है। इसके लिए मैं मोदी को सीधे उत्तरदायी मानता था। गोधरा में जो कुछ हुआ और फिर गुजरात में जिसे नहीं रोका जा सका या रोकने में शिथिलता बरती गई, उसके लिए मैंने मोदी को कभी अपराधी नहीं माना। वह मुझसे भी हो सकता था। परन्तु उनके अपने मंत्रिमंडल के एक प्रभावशाली मंत्री हरेन्द्र (?) की हत्या हो गई तो उसको लेकर जिस तरह की कानाफूसी आरंभ हुई उसके असर से मैं कभी बाहर नहीं आ सका। उसका सत्य क्या था यह पता नहीं।
परन्तु 2012 से जिस तरह का जनमत बनना आरंभ हुआ, उसमें मोदी एकमात्र विकल्प समझे जाने लगे। कारण जो भी रहा हो, पर एक कारण यह अवश्य था कि अपने तीसरे कार्यकाल तक की अवधि में उन्होंने जिस तरह गुजरात का विकास किया और वहां की शान्ति और सौहार्द को कभी भंग न होने दिया, वह एक महत्वपूर्ण घटक था। अन्य बातों में वह संघ से अपने जुड़ाव और भाजपा की राजनीति के कारण मुझे आकर्षक नहीं लग सकते थे। पर अपने चुनाव अभियान के आरंभ में ही इस व्यक्ति के मात्र एक वाक्य ने मेरी समस्त शंकाओं को निर्मूल कर दिया। यह था संघ और भाजपा दोनों की सोच और मूल्य दृष्टि से, मध्यकालीन जकड़बन्दी से बाहर आने का एक घोष – देवालय बनाने से अधिक जरूरी शौचालय बनाना है।
सबका-साथ-सबका-विकास वोट बटोरने का एक झांसा भी हो सकता था परन्तु यह वाक्य । स्वच्छता अभियान के इस संकल्प को जिस तरह मैंने देखा और समझा उस तरह आज तक मेरी बुद्धिजीवी विरादरी में कोई न देख सका। परन्तु इसका एक अन्य परिणाम यह कि इसके बाद मेरे सारे आकलन सही सिद्ध होते गए और उनके आकलन गलत। ताश के खेल में भी कोई अपने विरोधियों को उस तरह की मात नहीं देता होगा, जितना मोदी ने अपनी प्रत्येक चाल, प्रत्येक कथन और कार्य से किया।