दूसरा अनुभव दूर संचार विभाग का है। इस साल अप्रैल के अन्त में मैंने ब्राडबैंड का सालाना पैक लिया जिसके लिए 9950 रु जमा किए। उसके एक हफ्ता बाद मुझे गाजियाबाद आना पड़ा। मैंने अपना लैंडलाइन का फोन और ब्राडबैंड कटवा कर अपने अग्रिम भुगतान का रिफंड लेना था।
ब्राडबैंड लेने के लिए आपको मात्र एक फोन करना होता है और संबंधित अधिकारी कर्मचारी घर आ कर सारी खानापूरी करके उसे लगा देते हैं। यहां तक की प्रक्रिया वही है जो दूर संचार निगम के उदय के बाद लोकप्रियता प्राप्त करने वाली निजी कंपनियों की है या जरा सा पीछे क्योंकि वे स्वयं संपर्क करते हैं कि क्या अाप हमसे फोन या ब्राडबैंड या हमारी मोबाइल सेवा लेना पसन्द करेंगे। यदि आप ने हां कर दिया तो वे आगे का सारा काम बढ़ कर पूरा कर डालते हैं जिसमें सभी तरह के सत्यापन भी होते हैं, पुलिस हमेशा चोरों से कुछ कदम पीछे रह जाती है और सरकारी उपक्रम निजी उपक्रमों से, इसलिए इतना पिछड़ापन क्षम्य है।
फाेन काटने के लिए आपने इंटरनेट पर ही सूचित कर दिया कि आप अब उसका उपयोग नहीं करना चाहते तो भी वह उस पूरे महीने का बिल भरने के बाद उसे काटने की बात करेगा पर आप को मनाने की कोशिश और इस कोश्ािश में कुछ मक्कारियां भी। यह तो धूर्तता की बात हुई, पर नियमत: आपको डिस्कनेक्शन के लिए कहीं जाना नहीं पड़ता। वाणिज्यिक विभाग होने के कारण यही प्रक्रिया संचार निगम को भी अपनानी चाहिए। एक बार किसी ने कहा, हम इसका प्रयोग नहीं करना चाहते हैं, तो जिस तरह उपकरण लगाने को अपने कर्मचारी भेजता उसी तरह सारी औपचारिकता को उस तिथि को पूरा कर लिया जाना चाहिए और जो उस पूरे महीने का उपकरण का किराया और तब तक का प्रभार बनता हो उसका बिल उसे साैंप दिया जाना चाहिए। पर जो होता है वह किसी पागलखान में पागलों द्वारा की गई अव्यवस्था की कल्पना को बल देता है।
संचार हाट जाकर फोन और ब्राडबैंड दोनों के लिए अलग फार्म लेने होंगे और उसके बाद अद्यतन भुगतान के लिए वहां से पांच किलोमीटर दूर लेखा अधिकारी के पास से उस तिथि तक का भुगतान करने जाना पडा। भुगतान के उसके प्रमाण सहित वहां से चार किलोमीटर दूर एक दूसरे एसडीआ के यहां से फोन काटने की मंजूरी के लिए जाना पड़ा। उसकी मंजूरी के उपकरण संचार हाट के पास जमा कराना था, वह उससे पहले जमा भी नहीं हो सकता था । जमा करने की रसीद वहां से छ: किलोमीटर दूर अपने एसडीओ को फेज तीन में देने जाना पड़ा। फिर इन सभी के प्रमाणों के साथ, उन दोनों फार्मों पर अलग अलग, अपने पहचानपत्र की फोटोप्रतियों के साथ संचार हाट में मूल पैनकार्ड के साथ उपस्थित हो कर आवेदन जमा करने की नौबत आई । इसके बाद उसे यह आवेदन लेखा अधिकारी को अग्रसारित करना था जो देय कनेक्शन कटने की तिथि के ब्राडबैंड का प्रभार समायोजित करके रिफंड का चेक मेरे पते पर भेजने के लिए उत्तरदायी था।
मैंने इस बदहवास करने वाली प्रक्रिया की सारी अपेक्षाएं पूरी करके अपना आवेदन 10 मई को जमा कर दिया। तीन महीने बाद भी जब रिफंड न मिला तो संचार हाट पहुंचा । अधिकारी से नाम पूछा अौर शिकायत की बात की ताेे वह घबराई । लेखा अधिकारी से बात करती रही। उसने कहा, जो आवेदन आपने दिया था उसकी फोटो कापी लेकर आइये तक पता करूंगी। मैंने अपना नाम और पता बताया, जिस दिन को आवेदन दिया था उसकी तारीख बताई और कहा आपने किस तारीख को इसे भेजा है यह डिस्पैच रजिस्टर में देख कर बता दें। इसके लिए वह राजी नहीं हुई पर लेखा अधिकारी से बात कराई जिसने कहा, मेरा कोई बकाया नहीं है। इस तरह की कोई स्कीम ही नहीं है।
मैं लौटा तो पता चला कि मेरी गाड़ी के ग्लवबाक्स में ही उस आवेदन और भुगतान आदि की प्रतियां रखी हैं । मैं सुरेन्द्र सिंह नाम के उस लेखा अधिकारी के पास पहुंचा, और उसके सामने वह कागज रखते हुए पूछा, इसका रिफंड क्यों नहीं भेजा गया।
उसका चेहरा देखने लायक था। बिना काेई जवाद दिए वह अपने कंप्यूटर पर जुट गया। कई तरह से जोड़ लगाता और उसे कामज पर नोट करता रहा । फिर उठा और अपने आफिस की ओर गया। मैंने सोचा चेक बनाने गया है। लौटा तो हाथ में वह फाइल थी जो उसे संचार हाट से भेजी गई थी। हिसाब वह लगा ही चुका था, यदि कुछ लिखना था तो अपना नोट लिखना था, पर वह फिर उसी तरह कई तरह के हिसाब लगाता रहा और अन्त में जब नोट पूरा किया तो मैने कहा, अब चेक भी दे दीजिए।
उसने कहा, आठ हजार पांच सौ छब्बीस का रिफंड बनता है। मैंने कोई आपत्ति नहीं की। उसने कहा, चेक आपके पते पर भेजा जाएगा। अगस्त के दूसरे हफ्ते की कोई तारीख थी। वह चेक जब पन्द्रह सितंबर तक नहीं पहुंचा तो इस बार मैंने इस बात की परीक्षा लेनी चाही कि आप सीधे मंंत्री को, यहां तक कि प्रधानमंत्री को ईमेल से अपनी शिकायत भेज सकते हैं यह कहा तो जाता है परन्तु अपनी इतनी व्यस्तता में उनके पास इसके लिए समय भी होता होगा।
मैंने एक शिकायत मुख्य सतर्कता अधिकारी को और उस शिकायत का हवाला देते हुए लालफीताशाही को दूर करने के लिए दूरसंचार मंत्री को 15 सितंबर को ईमेल से पत्र लिखा।
क्या आप विश्वास कर पाएंगे कि इसके सात दिनों के भीतर अर्थात् 22 सितंबर को वह रिफंड मुझे भेज दिया गया। उसके पेआर्डर पर अगस्त की वही तिथि थी जिस पर मैं उससे मिला था। वह सवा महीने तक इस प्रतीक्षा में बैठा रहा कि उसका हिस्सा मिले तो वह रिफंड भेजे और संभवत: अगले एक डेढ़ महीने के बाद पर तीन महीने से पहले कभी भेजता। 24 सितंबर को वह मुझे स्पीडपोस्ट से मिल गया। उसे जमा भी करा दिया। मैंने इसके लिए दूरसंचार मंत्री को धन्यवाद भी नहीं दिया और आशा करता हूं वह जल्द ही इस प्रक्रिया में भी बदलाव लाएंगे।
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दो
अब हम यथा संभव इन दोनों अनुभवों के कुछ दुखद पहलुओं का उल्लेख करेंगे और इस दिशा में भाजपा सरकार ने जो कुछ किया है या नहीं कर पाई है या नहीं कर पाएगी इसका अपना आकलन आगे की किश्त में प्रस्तुत करेंगे जिसमें मुझसे चूक भी हो सकती है और इसकी ओर संकेत करना दूसरों का काम है।
1. भ्रष्टाचार नीचे से ऊपर तक इस तरह जड़ जमा चुका था कि सभी को पता था कि सभी अपने स्तर पर लेते देते हैं इसलिए इसमें लज्जा की कोई बात नहीं, कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता, फंस जाने पर अधिक से अधिक उसका मुंह बंद करना पड़ सकता है जिसकी फिर भरपाई होती रहेगी, अत: डरने की भी कोई बात नहीं।
2. हम समझते हैं आधुनिक वैज्ञानिक साधनों से धॉंधली को रोका जा सकता है, पर हम पाते हैं कि आधुनिक साधनों का घालमेल में अधिक सफलता से उपयोग किया जा सकता है। कंप्यूटर के आंकड़े अधिक विश्वसनीय माने जाते हैं, परन्तु हाथ से लिखे नोट में कोई फेरबदल करने पर जो काटपीट बाद में की जाती है वह पकड़ी जा सकती है, कंप्यूटर पर उसे एडिट करके पूरी तरह मिटाया जा सकता या बदला जा सकता है। एक ही कंप्यूटर पर जैसा मेरे मामले में हुआ, समानान्तर दो फाइलें तैयार की जा सकती हैं जिनमें एक में फर्जी आंकड़े भर दिए जाएं और दूसरा सही हो। यदि सही जांच हो तो संपादन का इतिहास और उसमें कब कब हेर फेर किया गया है इसे पकड़ा जा सकता है, परन्तु यह जटिल प्रक्रिया है जिसका निर्वाह जब किसी को फंसाने की ठान लें तभी किया जा सकता है।
3. रिश्वतखोरी ने आत्मसम्मान को इस तरह नष्ट कर दिया है कि मेरे सामने ही एक बार पूरी कवायद के बाद फिर दुबारा वीर कवायद शुरू की जा सकती है और मेरी झिड़की को झेलते हए दो बार माफी मांगने की नौबत आ सकती पर व्यवहार में सुधार नहीं।
4. यह समझ लेने के बाद भी कि यहां से कुछ नहीं निकलने वाला, इसे अपनी शान के खिलाफ मानते हुए, सबक सिखाने की कोशिश जो रिफंडराशि को गलत खाते में भेजने की कोशिश में की गई।
5. हमारे अपने चार्टर्ड एकाउंटेट का मुंह खट्टा होने का कारण यह कि उसे रिश्वत देने के नाम पर जो देना था उसके आधे से वंचित होना पड़ा। सारे निपटारे के बाद दुबारा एक लाख से अधिक के कर की सूचना के पीछे इरादा यह कि अब भी घबरा कर चार्टर्ड लेखाकार को केस सौंपा तो उसके माध्यम से सौदेबाजी हो सकेगी।
अब हम समझ सकते हैं कि रिश्वत लेने वाले विभागों के सभी कर्मचारी, छोटे से बड़े तक, दलाली करने वाले वकील और चार्टर्ड एकाउंटैंट भ्रष्टाचार के जनक भी हैं और इसके कम होने या समाप्त करने वाले को अपने लिए बुरे दिनों का जनक मानने को विवश, जब कि सामान्य जन को इससे राहत मिलनी है, इसलिए उसके लिए ये अच्छे दिनों का आरंभ है। अत: यदि कोई बेसब्री दिखाता है कि अच्छे दिन तो आए ही नहीं तो यह समझे वह उस बुरे तन्त्र का हिस्सा रहा है और उसके सचमुच बुरे दिन आ चुके हैं।
अब हम दूसरे अनुभव को लें:
1. मैं नहीं जानता कि सबसे अधिक साधन संपन्न होने के बाद भी महानगर टेलीफोन निगम और बीएसएनएल के राउटर और मोडेम इतने खराब क्यों हैं कि वाइफाई सटे कमरे तक नहीं पहुंच पाता। उसका सिम इतना बेकार क्यों है कि उस पर आवाज कट जाती है, अक्सर सिग्नल मिलता ही नहीं। उसके सर्वर अक्सर और खासे समय के लिए डाउन क्यों रहते हैं कि जिन संस्थाओं को उनको अपनाने की विवशता है उनमें अक्सर घंटों काम रुका रहता है, जैसे राष्ट्रीय बैंकों में।
2. प्रक्रिया को इतना जटिल क्यों बना दिया गया है कि उससे घबराहट पैदा हो, लोग भाग खड़े हों और निजी कंपनियों को इसका लाभ मिले।
3.व्यवहार के मामले में इतना जंगलीपन क्यों है जिससे वितृष्णा पैदा हो।
इनका एक ही उत्तर मिलता है कि दूरसंचार निगमों के उच्च अधिकारियों को निजी कंपनियों ने मिल कर खरीद लिया है और वे जानबूझ कर ऐसी रुकावटें और असुविधाएं पैदा करते आए हैं जिससे उपभोक्ता उनसे विरक्त हों और निजी कंपनियों की ओर भागें। यह बात कुछ विचित्र लग सकती है परन्तु मुझे पता है कि जब व्यापारियों की मनमानी पर रोक लगाने के लिए कनाट प्लेस में सुपर मार्केट बना था तो उसके बगल के शंकर मार्केट में मुर्दनी छा गई थी। रेट में इतना फर्क था कि उधर लोगों ने रुख करना बन्द कर दिया। कुछ दिन झेलने के बाद उनके संगठन ने सुपरमार्केट के सुप्रीम को पटा लिया। फिर धीरे धीरे हालत वह हो गई जो आज है। भूला भटका आदमी ही सुपरमार्केट की ओर रुख करता है।
4. कंप्यूटर में हिसाब करना अधिक कठिन नहीं होता, उसके लिए अलग कागज पर लिखने की जरूरत भी नहीं होती। एक निर्णय पर पहुंच जाने के बाद कई तरह के विचार की भी नहीं। आंकड़े भर दें, नतीजा सामने आ जाएगा या उसी के गणक से जोड़ घटा लीजिए। लेखा अधिकारी एक घंटे तक गणना करते हुए इस बात की प्रतीक्षा कर रहा था कि मैं अपनी ओर से कुछ पहल करूंगा। उससे ऊब कर वह फिर फाइल ला कर उसी तरह समय लगाता रहा । अपनी ओर से कुछ कहना नहीं चाहता था और विलंब से मुझे पूरी तरह निराश कर देने के बाद मुझे ‘सही तरीका’ अपनाने को बाध्य कर रहा था। कई तरह के हिसाब में भी कई तरह की सोच थी। यदि कुछ मिल जाय तो जिस दिन सूचित किया कि टेलीफाेन और ब्राडबैंड नहीं रखना है उस दिन तक का भाड़ा काटा जा सकता है। उपभोग तो शून्य के आस पास था। नहीं मिला तो जितना अधिक हो सकता है। (आगे जारी)