Post – 2016-10-03

स्‍वच्‍छता अभियान – 2

मैं इस पोस्‍ट के माध्‍यम से आपका परिचय भारतीय यथार्थ और इसमें आ रहे परिवर्तन से कराना चाहता हूं। हमारा यथार्थ इतना जटिल, इतना नीरस, इतना थकाने वाला है कि जो लोग किताबों में यथार्थ और यथार्थवाद की बात करते हैं वे भी जिन्‍दगी में यथार्थ से भागते या बच कर निकलना चाहते हैं, क्‍योंकि अन्‍य वातों के साथ इसमें गन्‍दगी भी है और अपनी समझ से साफ सुथरा रहने वाले उस गन्‍दगी को किसी दूसरे से दूर कराना चाहते हैं। मैं जानता हूं मेरे मित्रों और फेसबुक मित्रों में अधिकांश जरूरत पड़ने पर किसी चोरदरवाजों ( सोर्स, जानपहचान, अप्रोच या आसान उपाय) की बात करते है जिसके माध्‍यम से काम आसानी से हो जाय। एजेंट की या दलाल की बात करते हैं कि झंझट से बचे रह कर अपना जरूरी काम कर सकें। यथार्थ के अपने क्षेत्र से जुड़ी मलिनता से ही पैदा होते हैं ये बिचौलिये और वे केवल अपनी गतिविधि के यथार्थ को जानते हैं और उससे प्‍यार करते हैं इसलिए जो लोग यह कहते हैं कि हाल तो पहले जैसे ही हैं, बदला कुछ नहीं है, वे यह समझ ही नहीं सकते कि चुपचाप कितनी बड़ी क्रान्ति हो रही है और किनके बुरे और किनके अच्‍छे दिन आ चुके हैं और आने वाले हैं। अभी हाल के दिनों में जो कुछ घटित हुआ, उसके बारे में घबराए हुए लोग दुहराते रहे, यह तो पहले भी होता रहा है। होता रहा तो उसकी तिथियां तो देते। जो होता रहा है उसे जानने का साहस तक नहीं जुटा सकते ऐसे लोग। होता यह रहा है कि बीएसएफ की जानकारी या सहमति से ड्रग की तस्‍करी होती रही है। सीमा से सटे क्षेत्रों को नशाखोर जमातों में बदला जाता रहा है। हमारे जवानों के मरने के दर्दनाक दिनों में पाकिस्‍तानी मेहमानों को बिरयानी खिलाई जाती रही है और अब उन्‍हीं के द्वारा भारत को भाजपामुक्‍त कराने के लिए कुछ करने कराने की मांग की जाती रही है, खुले आम , वहां जा कर ऐसी दशा में कश्‍मीर में बिगड़े माहौल में उनकी सीधी और परोक्ष दोनों तरह की भागीदारी मानी जाय तो इसको अकारण नहीं कहा जा सकता। परन्‍तु मैं यहां, आज के राजनीतिक घटनाचक्र पर नहीं स्‍वच्‍छता अभियान पर बात करना चाहूंगा जिसमें ऐसे तत्‍वों से मुक्ति भी शामिल है जो राजनीति को कर्मनाशा में बदल चुके हैं और उसी में मग्‍न हो रहे हैं।

मैं यह भी जानता हूं कि आज की पोस्‍ट, जो हमारे उस यथार्थ जैसी ही अरोचक और बौखलाहट पैदा करने वाले ब्‍यौंरों से आरंभ होती है, जिससे आप बचते हुए अपना समय भी बचाते रहे हैं और ‘इज्‍जत’ भी, और इसके लिए ‘थोड़ा सा पैसा’ जो उस दलाल को और ‘थोड़ी सी रिश्‍वत’ जो उसके माध्‍यम से देनी होती है उसकी चिन्‍ता नहीं करते, क्‍योंकि इससे आपकी जो परेशानी और समय बचता है वह उस पैसे की तुलना में कई गुना अधिक होता है। आपको जिस नैतिक गिरावट से गुजरना होता है, जिन जिन के सामने झुकना पड़ता है, इसका आपके जीवनमूल्‍य में स्‍थान नहीं होता। आप सुविधा और लाभ को इज्‍जत का पर्याय मान लेते हैं, इसलिए आपको अपनेे स्‍वाभिमान की कमी हो अहंकार से पूरा करना पड़ता है जिसे ही सम्‍मान या इज्‍जत मान लेते हैं।

इसके विपरीत मैं आम आदमी की तरह कतार में खड़ा हो कर, अपनी सही बारी आने पर सही और केवल सही मोल दे कर ही जो मेरा प्राप्‍य है उसे पाना चाहता हूं और उसमें बाधक बनने वाले तत्‍वों से तब तक टकराता रहता हूं जब तक मैं उसे हासिल नहीं कर लेता और इसमें कई बार कई साल लग जाते है, इसलिए मैं उसे देख पाता हूं जिसके बारे में आप रस्‍मी तौर पर सुनते रहते हैं, पर जानते नहीं। उस पीड़ा का आप को बोध नहीं हो पाता जो सामान्‍य व्‍यक्ति को झेलना पड़ता है, या कहें, जिनके कारण साधारण आदमी को वह पीड़ा झेलनी पड़ती है उनमें आप भी शरीक होते हैं। कोई मेरी उम्र, इसकी लंबी परेशानी या मेरे लिखन पढ़ने का ध्‍यान करके कहे कि आप क्‍यों कष्‍ट करेंगे, इसे मेरे ऊपर छोडि़ए तो भी मैं यह काम उसके ऊपर नहीं छोड़ता क्‍योंकि इस क्रम में होने वाला अनुभव उसकी सिद्धि से कम मूल्‍यवान नहीं। इसलिए लोग जिसेे सुनते या पढ़ते हैं, उसे मैं देखता और उससे गुजरता हूं। मुझे किसी अधिकारी विद्वान के माध्‍यम से अपनी बात नहीं कहनी पड़ती और फिर भी जब अपने देखे और समझे को बयान करता हूं तो आप अविश्‍वास नहीं कर पाते। मेरे निर्णय प्राय: आम आदमी, अनपढ़ों और गंवारों की भीड़ के निर्णयों के करीब होते हैं जो बुद्धिजीवियों पर भारी पड़ते हैं और उसकी समझ और आपके आकलन के बीच कोई मेल नहीं होता फिर भी परिणाम आते हैं तो वह सही सिद्ध होता है, किताबी विद्वान गलत, क्‍योंकि वे वास्‍तविकता से तिरछा संबंध रखते हैं किताबों से सीधा जब कि वह वास्‍तविकता से सीधा संबंध रखता हैं और किताबों पर हंसता है।

इस पोस्‍ट में मैं अपने को एक व्‍यक्तिगत अनुभवों तक सीमि‍त रखूंगा। अगली पोस्‍ट में एक दूसरा अनुभव और फिर इन पर आधारित विश्‍लेषण। यह इतना थकाने वाला है कि जो लोग सचाई का सामना करने से कतराते हैं वे इसे पढ़ने से भी कतरा सकते हैं। दूसरों को भी ऐसे अनुभव होंगे और उनसे बचने के रास्‍ते भी उन्‍होंने निकाल लिए होंगे।

मैंने 2012-13 में 2013-14 के आयकर में 50 हजार अधिक जमा करा दिए थे। अगले रिटर्न में जब ईमेल से रिटर्न भरा और इसके रिफंड का दावा किया तो वह स्‍वीकार हो गया पर आयकर अधिकारी उसे भेजने को तैयार नहीं। मेरे चार्टर्ड एकाउंटेंट ने बताया उसे रिफंड का 10 प्रतिशत देना होता है। मैंने कहा, ‘मैं इससे स्‍वयं निबट लूंगा। उसने खट्टा सा मुंह बनाया क्‍योंकि उस 10 प्रतिशत में पांच प्रतिशत उसका होता और पांच आगे जाता । मैं लाइब्रेरी की किताबें लौटाने गया तो उधर चला गया। तीन बज रहे थे आैर अफसर लंच से लौटा नहीं था। चपरासी ने बताया पहले वहां जा कर बात कीजिए। यह संभवत: इंस्‍पेक्‍टर था। उसने प्रसन्‍न भाव से स्‍वागत किया और अफसर को बताया कि शिकार आ गया है तो उसने वहां से चलने की सूचना दी। उसने 2010-11 के का कर भुगतान न करने के लिए मेरी आर एक लाख का कर बकाया निकाल रखा था। मैंने करभुगतान का प्रमाण दिखाने को कहा तो उसने अपना कंप्‍यूटर दुबारा खोला। इस बार कर भुगतान के सारे प्रमाण उसी कंप्‍यूटर से निकल आए। पर एक चूक निकली। उससे पिछले साल में घोषित आय और जमा कराए कर में चार हजार छह सौ का अंतर था। वह जोड़ की गलती उस सहायक से हुई थी जिसे आयकर विभाग ने एक नियत फीस के एवज में सुलभ करा रखा था, परन्‍तु उसे दुबारा खोलने में नया झमेला शुरू हो जाता। इस बीच निर्धारण अधिकारी लंच से लौट आए थे। मुझे साथ लिए वह उनके पास पहुंचा। उसने उन्‍हें समझाया । तय हुआ कि मैं एक आवेदन दे दूं जिसमें अपना बैंक खाता संख्‍या और शाखा का नाम दे दूं और यह लिख दूं कि उक्‍त राशि का समायोजन करके बाकी रिफंड मेरे बैंक खाते को भेज दिया जाय। उसने कहा दो चार दिन लगेंगे। मैंने रिसेप्‍शन में उसी आधार पर हाथ से ही आवेदन दिया और उसकी रसीद अपने पास रख ली।

महीन भर बाद फिर किताब वापसी के दिन पहुंचा और जानना चाहा कि जब यह तय हो गया था कि तीन चार दिन बाद आप इसे भेज देंगे तो आपने ऐसा क्‍याे नहीं किया। दोनों एक दूसरे का मुंह देखने लगे । मैंने कहा, हो सकता है आपको दिक्‍कत यह आई हो कि मैंने बैंक, उसकी शाखा और अपना खाता संख्‍या तो लिखा था पर बैंक का कोड नहीं दिया था इसलिए यह कैंसल्‍ड चेक उसके साथ लगा लीजिए।
अफसर केवल हां हूं करता, बोलने का काम इंस्‍पेक्‍टर ही करता। उसे राहत मिली, हां यही बात है, इसे दे जाइये। अब काम हो जाएगा।

एक महीने बाद, फिर किताब लौटाने के दिन रास्‍ता मोड़ा, पहुंच गया। कारण पूछा तो वे बैठ कर कंप्‍यूटर पर फिर जांच करने लगे। फिर वही एक लाख कुछ हजार के बकाया की पर्ची कंप्‍यूटर से निकाली। मैंने फटकार लगाई। इसके सारे कागज मैंने उस दिन दिखा दिये थे। अफसर ने इंस्‍पेक्‍टर से कहा, ‘देखो, जल्‍दी इनका जो कुछ करना हो करके निबटाओ। उसने कहा, इसे सेटल करने में काफी देर लग जाएगी। मैंने कहा, जितनी भी देर लगती है लगाइये मैं यहीं बैठा हूं। मैंने झोले से किताब निकाली और पढ़ने लगा। एक घंटे तक वह फिर कंप्‍यूटर पर जोड़ तोड करता रहा और फिर वह चार हजार छसौ दूसरे वर्ष के हैं उसे समायोजित करने के लिए अमुक से मंजूरी लेनी पड़ेगी। मैं हंसने लगा, कितने समय में मंजूरी मिलेगी। मुझे कोई जल्‍दी नहीं है। बताया आठ दस दिन तो लग ही जाएंगे।

अगले महीने पुस्‍तक लोटाने की तिथि पर मैं फिेर कारण जानने को पहुंच गया। पता चला काम में इतना व्‍यस्‍त रहना पड़ा कि इधर ध्‍यान ही न गया। इस बार आपको आने की जरूरत नहीं पड़ेगी। आप मुझे फोन से बता दीजिएगा। उस ने अपना संपर्क नम्बबर भी दे दिया। लौट कर आया तो चार दिन बाद मेरे मिलने की तिथि 14 सितंबर से दो दिन पहले की तिथि पड़ा हुआ एक पत्र जिसमें फिर एक लाख कुछ के बकाये के विषय में स्‍वयं या किसी वकील के माध्‍यम से पेश होने की नोटिस थी। मैंने जानना चाहा कि जब इसका निपटारा हो गया था तो यह मांगपत्र फिर क्यों आ गया। उसने फिर क्षमायाचना की कि वह पहले का रहा होगा, चला गया होगा। अब उसको इग्नोर कर दीजिए।

मैं जानता था कि यदि मैंने इसकी उपेक्षा की और उसने इसे आधार बना कर एक लाख का कर निकाल दिया तो उसका निपटान और टेढ़ा हो जाएगा । इसलिए इसके बाद मैंने एक व्यतक्तिगत पत्र यह दुहराते हुए कि उसने एक हफ्ते के भीतर रिफंड मेरे खाते में भेजने का वादा किया था इसलिए अब उस विषय में कुछ कहने की जरूरत नहीं है, परन्‍तु वह अत तक जिस तरह की शरारते करता, एक ही कंप्‍यूटर में दो फाइलें तैयार करके करता रहा है और अपने डेलीगेटेड पावर को इंस्‍पेक्‍टर को सौंप कर काम करता आया है उस के अपराध में उसकी नौकरी भी जा सकती है। उसे यह बताते हुए कि मैं उसके बाप की उम्र का हूं इसके बावजूर लोभ में आकर वह मेरे साथ इस तरह का बर्ताव करता रहा, भविष्‍य में उसे इससे बचना चाहिए । मैं चाहता था इसके माध्‍यम से मैं आवश्‍यकता होने पर इसे साक्ष्‍य के रूप में भी इस्‍तेमाल कर सकूं।

इसके बाद भी उसने रिफंड ऐडवाइस नहीं भेजी तो मैंने सतर्कता अधिकारी को तथ्यों सहित शिकायत की। शिकायत की भनक मिलने पर उसने मेरे पैन में एक डिजिट बदल कर रिफंड एडवाइस कनारा बैंक को भेज दी। मुझ सूचित किया गया कि छियालीस हजार इतने का भुगतान आदेश अमुक तारीख को भेजा जा चुका है, कोई शिकायत होने पर संपर्क करें। मैंने अपने शाखा प्रबन्धक से संपर्क किया तो उन्होंने कम्प्‍यूटर से चेक करके बताया कि यह आंध्रप्रदेश के विशाखापटि्टनम के किसी व्यक्ति का निष्क्रिय खाता है। रकम उस खाते में जमा हो गई थी। मेरे लिखित अनुरोध पर उन्होंने उसे ब्‍लाक करने को कहा। मैंने इस शरारत को भी सतर्कता अधिकारी को भेजी शिकायत का हिस्‍सा बनाया। उन्‍होंने इस गलती को ठीक करने और जल्‍द से जल्‍द मेरे खाते में देय धन भेजने की सलाह देते हुए उसकी प्रति मुझे सुलभ कराई।
परन्‍तु मेरी शिकायत जिस सतर्कता उपनिदेशक को भेजी गई थी उसने मुझे चार साल की रिटर्न संलग्‍न दस्‍तावेजों के साथ दिखाने के लिए पत्र लिखा। मैंने उसे यह सन्‍देह जताते हुए कि वह संबंधित अधिकारी से रिश्‍वत वसूल करने के बाद उसे बचाने का बहाना तलाश रहा है उसकी नादानी को चिन्हित किया कि प्रश्‍न करनिर्धारण का नहीं है, देय धन का है। अन्‍तत: वित्‍तवर्ष की अन्तिम तारीख को ही वह मेरे खाते में जमा हो पाया।

परन्‍तु भाजपा के सत्‍ता में आने के बाद 2014-15 वर्ष में मैंने पांच हजार के रिफंड का क्‍लेम किया था। उसकी सूचना आई कि वह मेरे खाते में भेजा जारहा है और वह सीधे मेरे खाते में पहुंच गया।

पहले भी इमेल से टैक्‍स जमा करने का विधान था अब भी है, उसमें चोर दरवाजा बनाए रखा गया था जिसमें यह लेनदेन चलता था, नई व्‍यवस्‍था में इस चक्‍कर को हटा दिया गया। बस। यह छोटा सा फर्क बाकी सब कुछ वैसा ही जैसा मनमोहन सरकार करती आई थी। (आगे जारी)