स्वच्छता अभियान
क्या आप स्वच्छता का अर्थ जानते हैं। जानते क्यों नहीं, आप कहेंगे, ‘सफाई’।
मैं जब शब्द का प्रचलित अर्थ जानता हूं तो उसके पर्याय की क्या जरूरत। वह तो लंगड़ा होगा। संधिभेद है सु अच्छता । अब अर्थ हुआ सभी दृष्टियों से अच्छाई । पर अच्छाई का अर्थ फिर भी आप शायद न जानते हो । यह वैदिक प्रयोग है। अच्छ का अर्थ है अपनी ओर, अपने निकट, अच्छा याहि पितरं मातरं च – हमारे पितरों और मात़ृपक्षीय पूर्वजों को हमारे पास ‘याहि’ या लाओ। स्वीकार्यता, अनुकूलता और प्रियता के कारण इसने वह अर्थ पाया जो इसके विशेषित रूप अच्छा और भाववाचक रूप अच्छाई में है। यह मेरी समझ है। तब तक इसे मानिये जब तब अजित वडनेरकर आगे की खोज करने के बाद इसे खारिज न कर दें। तब तक के लिए मानिये कि स्वच्छता का अर्थ है मन, कर्म, वचन सभी तरह के कल्मषों से मुक्ति ।
यदि आप बहुत ध्यान से देखें तो मोदी ने एक महान और दूसरों के लिए अकल्पनीय लक्ष्य को हासिल करने का संकल्प लिया। बहुतों को तो स्वच्छता का अर्थ भी समझ में नहीं आया। यह था मलिनता के सभी रूपों से मुक्ति। जिसे सभी देख्ा सकते हैं, उससे आरंभ करके नैतिक, भौतिक और सांस्कृतिक सभी तरह के कल्मषों से मुक्ति की महायात्रा का आरंभ किया और मैं हैरान रह गया इस व्यक्ति के साहस पर। हैरान इस बात पर भी कि इसमें मेरा बचपन आज तक कैसे बचा रह गया है। मेरे बचपन का सार सूत्र था, जो हो सकता है परन्तु किसी ने नहीं किया वह मैं करूंगा। कई उदाहरण हैं और कई बेवकूफियां। कभी अपनी कथा लिखने की नौबत आई तो गिनाऊंगा। एक तो ऐसा जिसमें मैं अपनी आंखों की रोशनी गंवाते गंवाते रह गया। उनकी चर्चा में समय नष्ट होगा। मैं अपने बचपन से बाहर नहीं निकल पाया। आज भी सोचता हूं जिसे कहने का साहस किसी कारण से, किसी दूसरे में नहीं बचा है, उसे मैं कहूंगा। मेरा पूरा लेखन एक वाक्य में यही तो है, और जिस फेसबुक से इसे पोस्ट कर रहा हूं, उससे बड़ा गवाह कौन हो सकता है इसका।
आत्मचरित लिखने की कई शैलियां हैं, कई बार नाम मोदी का आता है और मैं अपने बारे में लिख रहा होता हूूं। इनके बीच मेरे सिवाय कोई दूसरा फर्क कर ही नहीं सकता, जैसे आज गांधी जी के जन्म दिन पर गांधी को मानवता की दुर्लभ ऊंचाई और महानतम शिखर मानते हुए भी मैं मानता हूं कि मैं तो उनके ‘हत्यारे’ नाथूराम गोडसे के चरणों पर भी सिर रख सकता हूं जिसे मैं कभी घृणा नहीं कर सका, जब कि दूसरों को यह समझा पाना मेरे लिए असंभव है कि महिमा के कई रूप होते है, कुछ विरोधी भी होते हैं, और इनमें से जो भीे नि:स्वार्थभाव से कुछ भी ऐसा कर जाय जो ऐतिहासिक परिस्थितियों में अपरिहार्य था जिसे हम सही नहीं मानते पर वह अपनी समझ से समाज के हित में कर रहा था वह गलत हो कर भी जघन्य नहीं था। उसके कृत्यों और उनके परिणामों और उनके विषय में बने लोकमत से मैं उनका मूल्यांकन नहीं करता। मैं उनका मूल्यांकन इस आधार पर करता हूं कि उनमें जो महान गुण थे उनकी समकक्षता में मैं आ सकता हूं या नहीं।
गोडसे ने गांधी जी की हत्या की। वह भाग सकता था, भागा नहीं। उसे फांसी होनी तो तय थी। सेशन अदालत से जो फैसला लिया गया था उसमें अपराध सिद्धि और दंडसंहिता के नियमों का पालन किया गया था। गोडसे ने अपनी वकाल स्वयं की। अपील में उसके सहअभियुक्तों को ले कर जो मुकदमा चला उसमें गोडसे ने अपनी अपील नहीं की। लगभग सभी दंढमुक्त हुए जो फांसी की सजा पा कर अपनी बेगुनाही सिद्ध करने की लड़ाई लड़ रहे थे। अकेले गोडसे ने दूसरों के बचाव में वकालत की परन्तु अपना प्राण बचाने के लिए तैयार न हुआ। गांधी जी के पुत्र रामदास गांधी ने तत्कालीन गवर्नर जनरल को आवेदन दिया था कि वह गोडसे को दंडमुक्ति दे दें। गोडसे ने न्यायालय से अनुरोध किया कि यदि कोई मेरे लिए दयायाचिका ले कर आए तो उस पर विचार न किया जाय। गोडसे की इस चुनौती के बाद रामदास गांधी ने गोडसे को सूचित करते हुए नेहरू जी से विनोवा भावे और और एक अन्य गांधीवादी को गोडसे से जेल में मुलाकात की अनुमति चाही, वह न मिली और गाडसे बिना अनुताप गर्व से अपने विश्वास के साथ फासी पर लटक गया।
गोडसे की मृत्युदंड की पुष्टि करने वाले जजों में से एक जस्टिस खाेसला ने गोडसे के बयान के बाद के कोर्ट रूम का अपने संस्मरणों में जो विवरण दिया वह इस प्रकार था- The audience was visibly and audibly moved. There was a deep silence when he ceased speaking. Many women in tears and men were coughing and searching for their handkerchieifs. The silence was accentuated and made deeper by the sound of occasional subdued sniff or a muffed cough…
I have however no doubt that had the audience of that day been constituted into a jury and entrusted with the task of deciding the Godse’s appeal they would have brought in a verdict of ‘not guilty, by an overwhelming majority. (Why I assassinated Gandhi, 204-5.)’
मैं तो अपने जीवन के समस्त पुण्यों के साथ गोडसे के चरण छूने की योग्यता ही रखता हूँ , गोडसे गांधी जी के चरण छूने की योग्यता से भी वंचित हो गया, परन्तु मेरे लिए गोडसे के प्रति उससे अधिक आदर है जितना नेहरू के लिए। उन्होंने जो कुछ किया अपनी सत्ता, अपने लाभ और अपने वंश के लिए किया। यह कौन कहेगा कि उन दिनों गांधी जी गरिमा को कम करने के अभियान में नेहरू भी नहीं जुटे थे। दबे सुर में, उनके अन्तिम प्रयोगों के विषय में अफसोस जताने की मुद्रा में उनका नैतिक वध करते हुए। गांधी जी की मृत्यु के समय मैं सत्रह साल पूरा करने वाला था। शाखा में जाता था। जो लोग कहते है कि उनके वध में संघ की कोई भूमिका नहीं थी उससे मैं कभी सहमत नहीं हुआ। उनके विषय में जिस तरह का विषप्रचार हो रहा था उसमें पिस्तौल मेरे हाथ में होती तो अपने कैशोर्यसुलभ उत्साह में परिणाम को जाने बिना गांधी जी पर मैं भी गोली चला सकता था। गांधी जी को दुष्प्रचार से मारा जा चुका था। उसमें प्रधान भूमिका संघ की थी और गौण भूमिका सत्ता और अधिकार का बंदरबांट करने में जुटे कांग्रेसियो की भी थी जिनके रास्ते में गांधी और गांधीवादी नैतिकता आती थी और यह संशय भी कि गांधी जी कांग्रेस को खत्म करने की घोषणा संभवत: उसी प्रार्थनासभा में करने वाले थे जिसमें भाग लेने से पहले ही वे मारे गए। उनकी मृत्यु उनकी मुक्ति थी।
पर आज तक इतनी पुस्तकों, इतने ग्रंथों, इतनी प्रस्तुतियों के बाद भी क्या उस महिमा को समझने की योग्यता हममें आ पाई है जिसका एक नाम गांधी है। गांधी की महिमा के लिए गोडसे से घृणा करने की जरूरत नहीं ये महानता की ओर जाने वाली कठिन यात्रा के चरण हैं है जिनका अब तक का मानवतावादी शिखर कैलाश नहीं गांधी है। जो उनकी कमियां तलाशते हैं, वे हिमालय की ऊंचाई को नहीं, उसकी खाइयों और खन्दकों, दरारों को ही समझ सकते हैं क्योंकि उनमें उतरने के लिए प्रयास करने की जरूरत नहीं होती। अपने को ढीला छोड़ देने से ही काम चल जाता है। बुद्धि से विरत और आवेग से आतुर होना ही काफी होता है।
मैं जिस विषय पर लिखने चला था, वह तो रह ही गया। क्षमा करें। उस पर कल सही।