स्वच्छता अभियान- 3
दूसरा अनुभव दूर संचार विभाग का है। इस साल अप्रैल के अन्त में मैंने ब्राडबैंड का सालाना पैक लिया जिसके लिए 9950 रु जमा किए। उसके एक हफ्ता बाद मुझे गाजियाबाद आना पड़ा। मैंने अपना लैंडलाइन का फोन और ब्राडबैंड कटवा कर अपने अग्रिम भुगतान का रिफंड लेना था।
ब्राडबैंड लेने के लिए आपको मात्र एक फोन करना होता है और संबंधित अधिकारी कर्मचारी घर आ कर सारी खानापूरी करके उसे लगा देते हैं। यहां तक की प्रक्रिया वही है जो
दूर संचार निगम के उदय के बाद लोकप्रियता प्राप्त करने वाली निजी कंपनियों की है या जरा सा पीछे क्योंकि वे स्वयं संपर्क करते हैं कि क्या अाप हमसे फोन या ब्राडबैंड या हमारी मोबाइल सेवा लेना पसन्द करेंगे। यदि आप ने हां कर दिया तो वे आगे का सारा काम बढ़ कर पूरा कर डालते हैं जिसमें सभी तरह के सत्यापन भी होते हैं, पुलिस हमेशा चोरों से कुछ कदम पीछे रह जाती है और सरकारी उपक्रम निजी उपक्रमों से, इसलिए इतना पिछड़ापन क्षम्य है।
फाेन काटने के लिए आपने इंटरनेट पर ही सूचित कर दिया कि आप अब उसका उपयोग नहीं करना चाहते तो भी वह उस पूरे महीने का बिल भरने के बाद उसे काटने की बात करेगा और इस बीच कई तरह से आपसे संपर्क करके कारण जानने और दूसरी अधिक आकर्षक स्कीमों के बारे में समझाते हुए आपके मुंह से कुछ भी ऐसा कहलवाना चाहेगा जिसका अर्थ खींचतान कर यह लगाया जा सके कि आप उसे अच्छा समझते हैं और प्रीपेड योजना है तो आपका बिल तैयार होता जाएगा। इसका अपवाद न रिलाएंस है, न एयरटेल । दूसरों का अनुभव नहीं।
मैं जानता हूूं यह आपको बकवास लग रहा होगा, परन्तु जैसे गपशप के अवसरों पर कोई अपना दुखड़ा लेकर गले पड़ जाय, उसी अनिच्छा से, शिष्टाचार का निर्वाह करने के लिए सुनिये कि एक बार मैंने रिलायंस की वाईफाई योजना काे पसन्द किया, उसके डेटाकार्ड या जो भी उसका नाम हो, पन्द्रह सौ रुपये जमा किए। उसकी जो स्कीम चुनी वह अगले दो दिन के बाद खत्म हो गई। कार्ड काम करना बन्द कर दिया। बच्चे आए हुए थे इसलिए समझ में नहीं आता था कि दो जीबी का इस्तेमाल कहां हुआ। अपना काम चलाने के लिए मैं आइडिया डेटाकार्ड का उपयोग करता रहा जिसकी 297 या इससे मिलती जुलती राशि में मेरे सारे डाउनलोड, अपलोग और पत्राचार सब चल जाते थे। बच्च्े चले गए तो भी वही स्थिति। वास्तव में इसमें दोष एक तकनीक का था । हमारे तल्ले पर रिलायंस का सिग्नल नहीं आता था। बाहर जाने पर वह काम करता था। उसे आन करने पर किसी तर्क से उनकेे मीटर पर उपभोग दर्ज होता जाता रहा होगा और मैं उसका उपयोग नहीं कर पाता था। छह महीने के बाद मैंने उसे प्रीपेड में बदलवा लिया। फोन आया कि आपने पहली योजना क्यों छोड़ दी। हम आपको उससे भी सस्ता आफर दे सकते हैं। इतने की भी हमारे पास योजना है। मैंने कहा उस पर हम बाद में सोचेंगे, अभी तो हमारा प्रीपेड ही चलेगा। हुआ यह कि मैं प्रीपेड चार्च कराता रहा पर समस्या तो सिग्नल की थी। तीन बार ऐसा किया और कारण समझ में नहीं आया। इस बीच रिलायंस से फोन आनेे लगे कि आपके विरुद्ध इतने की देनदारी है मैं समझाता मैं अमुक तिथि से प्रीपेड सेवा ले रहा हूं, यह आपके यहां की गड़बडी है, इसे सुधारें। नोटिस भेजा, मैंने उस दरबे का बताया कि यह चूक हो रही है। उसने बात की। फिर वे ही फोन। मैं उपेक्षा करता रहा । अंत में वकील की नोटिस। उसमें उसका नंबर भी दिया हुआ था इसलिए फाेन कर उसे समझाया और कहा अपने क्लाएंट को समझाइये। उससे गलती हो रही है। दो महीने तक चुप्पी रही। सोचा समस्या हल हो गई। फिर उसी वकील का परवाना आ गया । इस बार मैंंने उसकी कंपनी के विरुद्ध चीटिंग और फ्राड का आपराधिक मुकदमा दर्ज करने की धमकी दी। उससे इस बात का जवाब तलब किया कि उसी अवधि में उसी डेटाकार्ड पर प्रीपेड और पोस्टपेड योजनाएं कैसे चल सकती हैं। इसके बाद सन्नाटा छा गया।
प्राइवेट कंपनियों के इन्ही खुराफातोंं से तंग आ कर मैंने तीन बार दूरसंचारनिगम की सेवा ली और उसकी भ्रष्टता से तंग आ कर उसे कटा कर डेटाकार्ड केे लिए बाध्य हुआ और इस मामले में टाटा और आइडिया से मुझे कोई शिकायत न हुई। निजी कंपनियों के इन उत्पीड़नो से सुरक्षा प्रदान करने का काम दूरसंचार मंत्रालय का है और दूर संचार निगमों की स्थापना के बाद उनके द्वारा कुछ तो ऐसा हुआ हाुेगा कि ऊपर से नीचे तक सभी सरकारी उपक्रमों का विफल बना कर उनकी ओर धकेलने के अभियान में जुड़ेे हुए हैं। इस तरह के ब्यौरों के लिए न संचार मंत्री केे पास समय हो सकता था न मैंने इसका उल्लेख किया। आप यदि इसे पढ़ने का साहस कर सके तो आपकी शतश: वन्दना। परन्तु यदि मेरी वन्दना के अभाव में या उसकी प्रतीक्षा में इसे देख ही न सकें कि प्रबन्ध कुछ ऐसा है कि निजी कंपनियों से सौदेबाजी की जाए और उनके सुझाव के अनुसार सार्वजनिक उपक्रमों को विफल बनाया जाय। मैंने इसका निर्वाह प्रत्येक स्तर पर देखा।
प्रसंगवश एक निजी अनुभव सुना दूं। मैं दिल्ली में आ कर बेकार था और मेरे मित्र मुद्राराक्षस के कहने पर मंगलनाथ सिंह ने हिन्दी शिक्षण योजना के प्रभारी बाबूराम सक्सेना की मदद से मुझे आठ रुपये रोज की दिहाड़ी पर हिन्दी पढ़ाने के लिए रख लिया गया जिसमें छुट्टियों के दिनों से हम नफरत करते थे क्योंकि उन दिनों पर काम न मिलनेे से हमारी दिहाड़ी पर असर पड़ता था। यह 1962 का जमाना था।
संचार हाट जाकर फोन और ब्राडबैंड दोनों के लिए अलग फार्म लेने होंगे और पहले अद्यतन भुगतान के लिए वहां से पांच किलोमीटर दूर लेखा अधिकारी के पास से उस तिथि तक का कर भुगतान करके उसके प्रमाण सहित वहां से चार किलोमीटर दूर एक दूसरे एसडीआ के यहां से फोन काटने की मंजूरी लेनी होती है, उसके बाद उपकरण संचार हाट के पास जमा करना होता है। इसकी रसीद वहां से छ: किलोमीटर दूर अपने एसडीओ को देनी होती है फिर इन सभी के प्रमाणों के साथ उन दोनों फार्मों को अपने पहचानपत्र पैनकार्ड के साथ उसकी फोटोप्रतियों के साथ संचार हाट में जमा कराना होता है जो उसे लेखा अधिकारी को रिफंड के लिए फाइल भेजता है और वह आवेदन में दिए नए पते पर उसका चेक भेजता है।
मैंने इस बदहवास करने वाली लालफीताशाही की सारी अपेक्षाएं पूरी करके अपना आवेदन 10 मई को जमा कर दिया। तीन महीने बाद भी जब रिफंड न मिला तो संचार हाट पहुंचा । अधिकारी से नाम पूछा अौर शिकायत की बात की ताेे वह घबराई । लेखा अधिकारी से बात करती रही। उसने कहा, जो आवेदन आपने दिया था उसकी फोटो कापी लेकर आइये तक पता करूंगी। पता बताया, तारीख बताई नाम बताया और कहा आपने किस तारीख को इसे भेजा है यह डिस्पैच रजिस्टर में देख कर बता दें। उसने लेखा अधिकारी से बात कराई जिसने कहा, मेरा कोई बकाया नहीं है। इस तरह की कोई स्कीम ही नहीं है। मैं लौटा तो पता चला कि मेरी गाड़ी के ग्लवबाक्स में ही उस आवेदन और भुगतान आदि की प्रतियां रखी हैं । मैं सुरेन्द्र सिंह नाम के उस लेखा अधिकारी के पास पहुंचा, और उसके सामने वह कागज रखते हुए पूछा, इसका रिफंड क्यों नहीं भेजा गया।
उसका चेहरा देखने लायक था। बिना काेई जवाद दिए वह अपने कंप्यूटर पर जुट गया। कई तरह से जोड़ लगाता और उसे कामज पर नोट करता रहा । फिर उठा और अपने आफिस की ओर गया। मैंने सोचा चेक बनाने गया है। लौटा तो हाथ में वह फाइल थी जो उसे संचार हाट से भेजी गई थी। हिसाब वह लगा ही चुका था, यदि कुछ लिखना था तो अपना नोट लिखना था, पर वह फिर उसी तरह कई तरह के हिसाब लगाता रहा और अन्त में जब नोट पूरा किया तो मैने कहा, अब चेक भी दे दीजिए।
उसने कहा, आठ हजार पांच सौ छब्बीस का रिफंड बनता है। मैंने कोई आपत्ति नहीं की। उसने कहा, चेक आपके पते पर भेजा जाएगा। अगस्त के दूसरे हफ्ते की कोई तारीख थी। वह चेक जब पन्द्रह सितंबर तक नहीं पहुंचा तो इस बार मैंने इस बात की परीक्षा लेनी चाही कि आप सीधे मंंत्री को, यहां तक कि प्रधानमंत्री को ईमेल से अपनी शिकायत भेज सकते हैं यह कहा तो जाता है परन्तु अपनी इतनी व्यस्तता में उनके पास इसके लिए समय भी होता होगा।
मैंने एक शिकायत मुख्य सतर्कता अधिकारी को और शिकायत का हवाला देते हुए लालफीताशाही को दूर करने के लिए दूरसंचार मंत्री को लिखा।
क्या आप विश्वास कर पाएंगे कि इसके सात दिनों के भीतर अर्थात् 22 सितंबर को वह रिफंड मुझे भेज दिया गया। उसके पेआर्डर पर अगस्त की वही तिथि थी जिस पर मैं उससे मिला था। अब तक उसे लिए वह इस प्रतीक्षा में बैठा रहा कि उसका हिस्सा मिले तो वह रिफंड भेजे। 24 सितंबर को वह मुझे स्पीडपोस्ट से मिल गया। उसे जमा भी करा दिया।
दूसरा अनुभव दूर संचार विभाग का है। इस साल अप्रैल के अन्त में मैंने ब्राडबैंड का सालाना पैक लिया जिसके लिए 9950 रु जमा किए। उसके एक हफ्ता बाद मुझे गाजियाबाद आना पड़ा। मैंने अपना लैंडलाइन का फोन और ब्राडबैंड कटवा कर अपने अग्रिम भुगतान का रिफंड लेना था।
ब्राडबैंड लेने के लिए आपको मात्र एक फोन करना होता है और संबंधित अधिकारी कर्मचारी घर आ कर सारी खानापूरी करके उसे लगा देते हैं। यहां तक की प्रक्रिया वही है जो दूर संचार निगम के उदय के बाद लोकप्रियता प्राप्त करने वाली निजी कंपनियों की है या जरा सा पीछे क्योंकि वे स्वयं संपर्क करते हैं कि क्या अाप हमसे फोन या ब्राडबैंड या हमारी मोबाइल सेवा लेना पसन्द करेंगे। यदि आप ने हां कर दिया तो वे आगे का सारा काम बढ़ कर पूरा कर डालते हैं जिसमें सभी तरह के सत्यापन भी होते हैं, पुलिस हमेशा चोरों से कुछ कदम पीछे रह जाती है और सरकारी उपक्रम निजी उपक्रमों से, इसलिए इतना पिछड़ापन क्षम्य है।
फाेन काटने के लिए आपने इंटरनेट पर ही सूचित कर दिया कि आप अब उसका उपयोग नहीं करना चाहते तो भी वह उस पूरे महीने का बिल भरने के बाद उसे काटने की बात करेगा और इस बीच कई तरह से आपसे संपर्क करके कारण जानने और दूसरी अधिक आकर्षक स्कीमों के बारे में समझाते हुए आपके मुंह से कुछ भी ऐसा कहलवाना चाहेगा जिसका अर्थ खींचतान कर यह लगाया जा सके कि आप उसे अच्छा समझते हैं और प्रीपेड योजना है तो आपका बिल तैयार होता जाएगा। इसका अपवाद न रिलाएंस है, न एयरटेल । दूसरों का अनुभव नहीं।
मैं जानता हूूं यह आपको बकवास लग रहा होगा, परन्तु जैसे गपशप के अवसरों पर कोई अपना दुखड़ा लेकर गले पड़ जाय, उसी अनिच्छा से, शिष्टाचार का निर्वाह करने के लिए सुनिये कि एक बार मैंने रिलायंस की वाईफाई योजना काे पसन्द किया, उसके डेटाकार्ड या जो भी उसका नाम हो, पन्द्रह सौ रुपये जमा किए। उसकी जो स्कीम चुनी वह अगले दो दिन के बाद खत्म हो गई। कार्ड काम करना बन्द कर दिया। बच्चे आए हुए थे इसलिए समझ में नहीं आता था कि दो जीबी का इस्तेमाल कहां हुआ। अपना काम चलाने के लिए मैं आइडिया डेटाकार्ड का उपयोग करता रहा जिसकी 297 या इससे मिलती जुलती राशि में मेरे सारे डाउनलोड, अपलोग और पत्राचार सब चल जाते थे।
मैं जो
संचार हाट जाकर फोन और ब्राडबैंड दोनों के लिए अलग फार्म लेने होंगे और पहले अद्यतन भुगतान के लिए वहां से पांच किलोमीटर दूर लेखा अधिकारी के पास से उस तिथि तक का कर भुगतान करके उसके प्रमाण सहित वहां से चार किलोमीटर दूर एक दूसरे एसडीआ के यहां से फोन काटने की मंजूरी लेनी होती है, उसके बाद उपकरण संचार हाट के पास जमा करना होता है। इसकी रसीद वहां से छ: किलोमीटर दूर अपने एसडीओ को देनी होती है फिर इन सभी के प्रमाणों के साथ उन दोनों फार्मों को अपने पहचानपत्र पैनकार्ड के साथ उसकी फोटोप्रतियों के साथ संचार हाट में जमा कराना होता है जो उसे लेखा अधिकारी को रिफंड के लिए फाइल भेजता है और वह आवेदन में दिए नए पते पर उसका चेक भेजता है।
मैंने इस बदहवास करने वाली लालफीताशाही की सारी अपेक्षाएं पूरी करके अपना आवेदन 10 मई को जमा कर दिया। तीन महीने बाद भी जब रिफंड न मिला तो संचार हाट पहुंचा । अधिकारी से नाम पूछा अौर शिकायत की बात की ताेे वह घबराई । लेखा अधिकारी से बात करती रही। उसने कहा, जो आवेदन आपने दिया था उसकी फोटो कापी लेकर आइये तक पता करूंगी। पता बताया, तारीख बताई नाम बताया और कहा आपने किस तारीख को इसे भेजा है यह डिस्पैच रजिस्टर में देख कर बता दें। उसने लेखा अधिकारी से बात कराई जिसने कहा, मेरा कोई बकाया नहीं है। इस तरह की कोई स्कीम ही नहीं है। मैं लौटा तो पता चला कि मेरी गाड़ी के ग्लवबाक्स में ही उस आवेदन और भुगतान आदि की प्रतियां रखी हैं । मैं सुरेन्द्र सिंह नाम के उस लेखा अधिकारी के पास पहुंचा, और उसके सामने वह कागज रखते हुए पूछा, इसका रिफंड क्यों नहीं भेजा गया।
उसका चेहरा देखने लायक था। बिना काेई जवाद दिए वह अपने कंप्यूटर पर जुट गया। कई तरह से जोड़ लगाता और उसे कामज पर नोट करता रहा । फिर उठा और अपने आफिस की ओर गया। मैंने सोचा चेक बनाने गया है। लौटा तो हाथ में वह फाइल थी जो उसे संचार हाट से भेजी गई थी। हिसाब वह लगा ही चुका था, यदि कुछ लिखना था तो अपना नोट लिखना था, पर वह फिर उसी तरह कई तरह के हिसाब लगाता रहा और अन्त में जब नोट पूरा किया तो मैने कहा, अब चेक भी दे दीजिए।
उसने कहा, आठ हजार पांच सौ छब्बीस का रिफंड बनता है। मैंने कोई आपत्ति नहीं की। उसने कहा, चेक आपके पते पर भेजा जाएगा। अगस्त के दूसरे हफ्ते की कोई तारीख थी। वह चेक जब पन्द्रह सितंबर तक नहीं पहुंचा तो इस बार मैंने इस बात की परीक्षा लेनी चाही कि आप सीधे मंंत्री को, यहां तक कि प्रधानमंत्री को ईमेल से अपनी शिकायत भेज सकते हैं यह कहा तो जाता है परन्तु अपनी इतनी व्यस्तता में उनके पास इसके लिए समय भी होता होगा।
मैंने एक शिकायत मुख्य सतर्कता अधिकारी को और शिकायत का हवाला देते हुए लालफीताशाही को दूर करने के लिए दूरसंचार मंत्री को लिखा।
क्या आप विश्वास कर पाएंगे कि इसके सात दिनों के भीतर अर्थात् 22 सितंबर को वह रिफंड मुझे भेज दिया गया। उसके पेआर्डर पर अगस्त की वही तिथि थी जिस पर मैं उससे मिला था। अब तक उसे लिए वह इस प्रतीक्षा में बैठा रहा कि उसका हिस्सा मिले तो वह रिफंड भेजे। 24 सितंबर को वह मुझे स्पीडपोस्ट से मिल गया। उसे जमा भी करा दिया।
मेरी शिकायत के केवल एक हफ्ते के भीतर वहां से जो भी कार्रवाई जिन स्तरों पर हुई, उसका परिणाम सामने आ गया।