समझदारों के बीच एक सही समझ की तलाश – 6
“तुम विषय को इस तरह घुमा देते हो कि काले में भी चमक पैदा हो जाती है और उजले में भी दाग ही दाग दिखाई देने लगता है, पर यह बताओ, एक बार यह आदमी जम गया तो फिर बड़े पैमाने पर गुजरात नहीं दुहराया जाएगा, इसकी कोई गारंटी है?”
”गुजरात क्यों न दुहराया जाएगा, भाई ? वहीं से तो इस आदमी ने सीखा है कि धमकियों और खतरों के बीच भी विकास को प्राथमिकता देकर सांप्रदायिक बिगाड़ को बनाव की दिशा में बढ़ाया जा सकता है । जिन दिनों दूसरे राज्यों में कई तरह के उपद्रव होते रहे, उसके शासन में तेरह साल तक सांप्रदायिक शान्ति का जो उदाहरण गुजरात ने पेश किया वह दूसरे राज्यों में तो दुर्लभ था ही, ठीक उससे पहले या बाद के गुजरात में भी दुर्लभ था। यह तो किसी अन्य ने नहीं वस्तनवी ने स्वीकार किया था कि गुजरात में मुसलमानों को आगे बढ़ने का मौका मिला है।”
”या तो तुम समझे नहीं कि गुजरात से मेरा मतलब क्या है, या जानबूझ कर धूर्तता कर रहे हो, वही आदत, बात को घुमाने की।”
”यदि तुमने कोई नया कोश तैयार किया है जिसमें गुजरात का अर्थ सांप्रदायिक दंगा लिखा हुआ है, तो पहले बताना चाहिए था। दंगा तो हुआ था। वह किसी लंगे गुस्से की अभिव्यक्ति या किसी अन्याय से पैदा आक्रोश की अभिव्यक्ति, उसे रोकने और संभालने का अनुभव न हो, राजनीति में कोई नया नया आया हो तो जब तक वह स्थिति पर नियन्त्रण करे, काफी नुकसान हो चुका होता है । अमेरिका जिसकी पुलिस हमसे अधिक कुशल और प्रशिक्षित है, जिसे शताब्दियों से ऐसे विस्फोटों का सामना करने का अनुभव है, वह भी इन्हें आसानी से रोक नहीं पाता और दंगा एक शहर से दूसरे में ही नहीं एक राज्य से दूसरे राज्य में फैलता चला जाता है, यह तो अभी हाल की घटनाओं से भी समझ सकते हो !”
”तुम पैंतरे क्यों बदल रहे हो, क्या यह किसी से छिपा है कि इसमें प्रशासन की शह थी। लोग आज भी मानते हैं कि इसके लिए मोदी जिम्मेदार थे और इसके कारण कुछ लोग तो उन्हें सीधे हत्यारा कहते हैं। तुम उस पर परदा क्यों डाल रहे हो।”
”क्या तुममे इसे समझने का धैर्य है कि असल अपराधी कौन है या कुछ लोग और बहुत से लोग जो कहते हैं उसे दुहराने का शौक है और तुम उसे पूरा करना चाहते हो। पहली स्थिति में तुमसे बात हो सकती है, दूसरी स्थिति में बात की नहीं, तुम्हें एक डफली थमाने की जरूरत है जिस पर ताल देते हुए तुम इसे दुहराते और नाचते रहो। सच कहो तो यह नाच गुजरात के समय से ही चल रहा है और डफलियां हजारों हाथों में है और तुम उसमें शामिल हो रहे हो।”
”समझने को इसमें है क्या । सीधा मामला है। सारी दुनिया जानती है। अमेरिका तक ने इसी बात पर मोदी का वीजा नामंजूर कर दिया था।”
”इससे केवल यह सिद्ध होता है कि माफियातन्त्र कितना ताकतवर होता है, उसकी ताकत कितनी अधिक होती है, उसका चेहरा कितना भोला होता है, याद है न तुम्हे गॉड फादर का। और वह अपने को बचाए रखने और अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए कितने उपद्रव करता रहता है और उन पर किस तरह के आवरण डालता रहता है। इसलिए यदि तुम सचमुच समझना चाहो तो मेरे पास एक मशीन है उसमें किसी ने क्या कहा, क्या समझा, यह दुहराने की जरूरत नहीं पड़ती, वह स्वयं जांच कर बता देती है कि देखो इसका सच और झूठ क्या है ।”
मशीन की बात से वह एकाएक सकते में आ गया। मुझे इस तरह देखने लगा जैसे हम पहली बार मिले हों और वह मुझे पहचानने का प्रयत्न कर रहा हो। कुछ देर बाद उसके मुंह से निकला, ”मशीन, कौन सी ऐसी मशीन बन गई यार सच और झूठ का फैसला करने वाली। तुम लाईडिटेक्टर की बात कर रहे हो। पर …पर… वह।” वाक्य उससे पूरा ही नहीं हो रहा था।
”ठीक समझा तुमने । मैं लाइ डिटेक्टर की ही बात कर रहा हूं। यह मशीन तुम्हारे पास भी है लेकिन अफवाहों की धूल भर जाने के कारण वह बिगड़ी हुई है इसलिए उसे खाेलते हो तो धूल धक्कड़ की बाहर आता है। इसे बहुत बचा कर रखना होता है। मैं अपनी मशीन खोलता हूं और बताता हूं वह क्या कह रही है। मशीन तुम्हें दिखाऊंगा नहीं। जाे वह कहेगी उसे तुम्हें बताऊंगा और कागज कलम तो यहां है नहीं।”
उसने मदद की, ”कलम तो है ही और कागज नहीं है तो यह अखबार तो है, इसके सादे छूटे हिस्से का इस्तेमाल कर सकते हैं।”
”ठीक है, यह तो मुझे सूझा ही नहीं था।” मैंने हथेली आगे की और उसमें बहुत ध्यान से देखते हुए कहा, एक कालम में लिखो, दिल्ली… मेरठ… मलियाना …हाशिमपुरा… भागलपुर… रांची… अमृतसर… गोधरा…. इसमें दूसरे बहुत छोटी लिखावट में सैकड़ों नाम हैं जो पढ़े नहीं जा रहे है।
”दूसरे कालम में उससे भी अधिक नाम हैं लिखावट और पतली है पर एक नाम मोटे अक्षरों में है गुजरात।
पहले कालम के ऊपर शीर्षक है योजनाबद्ध रूप से किसी व्यक्ति द्वारा किए या कराए गए हत्याकांड ।
दूसरे कालम के ऊपर शीर्षक है किसी घटना या क्रिया की प्रतिक्रिया में भड़के उपद्रव।
” पहले कालम के नीचे दो टिप्पणियां है:
1. इनमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में कांग्रेस का या सच कहें तो राजीव गांधी का हाथ। परोक्ष की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि इसमें अकाली दल के सत्ता में आने के बाद उसे सत्ता से बेदखल करने के लिए उससे भी अधिक कट्टर खालसा उग्रवादियों का संरक्षण, संवर्धन भी आता है और उनके बेकाबू होने पर सीधा दमन और हरमिन्दर साहब का कांड भी।
2. में एक व्याख्या है, जिसमें लिखा है,’ भौतिकी का नियम यह है कि प्रतिक्रिया क्रिया के समान परन्तु उल्टी दिशा में होती है। समाजशास्त्र में नियम यह है कि प्रतिक्रिया क्रिया के कई गुना अधिक और उल्टी दिशा में होती है, परन्तु यदि क्रिया करने वाला इतना शक्तिशाली हो कि प्रतिक्रिया करने के परिणाम किया से कई गुना अधिक होंगे, तो प्रतिक्रिया दब जाती है और लोग आह तक नहीं भर पाते। इसलिए इन हत्याकांडों की कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई।
”दूसरे कालम के नीचे एक टिप्पणी है : ‘यहां सामाजिक विज्ञान का वह नियम काम करता है जहां प्रतिक्रिया या तो क्रिया के कई गुना होती है या प्रतिक्रिया होती ही नहीं और इसलिए हीनताग्रन्थि और क्षमादान बन कर उसी समाज के अलग अलग लोगों पर कई रूपों में व्यक्त होती है । इन दोनों का कारण यह है कि इसमें दमनतन्त्र शिथिल, निष्क्रिय या उदार होता है।
”अब हम मेरी मशीन से मिले आंकड़ों की शुद्धता पर विचार करें कि कहीं कोई चूक तो नहीं हुई क्योंकि मशीने भी ताप या घेर के घटने बढ़ने के साथ कुछ गलतियां करती हैं। मुझे इसमें कहीं कोई गलती नहीं दिखाई देती। व्यौरे में कमी मेरी आंखे कमजोर और लिखावट बहुत बारीक होने के कारण हो सकती है । तुम्हें कही चूक लगती हो तो बताओ ।”
वह हंसने लगा, ”मैं क्या बताऊं तुम्हारी मशीन को तो यह भी पता नहीं कि राजीव गांधी इन्दिरा जी के दिवंगत होने के बाद बड़ी अनिच्छा से राजनीति में आए थे। इन्दिरा जी ने खालसा उग्रवादियों का काम तमाम कर दिया था फिर राजीव के लिए भिंडरवाला और चौहान बचे ही नहीं थे। इसे राजीव के सिर लादने वाली तुम्हारी मशीन या ताे नकली है या तुम्हारे दिमाग का कोई पुर्जा ढीला है।”
उसकी हंसी के जवाब में हंसना भी जरूरी था और उसकी नासमझी पर अलग से हंसना जरूरी था इसलिए मैं दो बार हंसा। जवाब देना भी जरूरी था इसलिए जवाब भी दिया, ”देखो, मुलायम सिंह यादव के खानदानी शासन को देख कर तुम चकित होते हो कि क्या इन्होंने उत्तर प्रदेश काे अपनी जायदाद समझ रखा है। ठीक यही विचार लालू के जेल और राबड़ी के मुख्यमंत्री और अब लालूवंश को नीतीश को धक्का देते हुए देख कर तुम्हें लगता होगा। ये बेचारे भारतीय परंपरा के रक्षक है। आजादी के बाद ही नेहरू जी ने अघोषित किया कि आजादी मैंने ली है, शिमला मसौदे पर मैंने हस्ताक्षर किया, इसलिए यदि मुझे प्रधानमंत्री न बनाया गया तो मैं आजादी को वापस कर दूंगा और माउंट बैटेन को लिख कर दे दूंगा, तब तक राज करो जब तक मेरे खानदान का कोई उत्तराधिकारी सर्वसम्मति से आजाद भारत का शासक नहीं मान लिया जाता। इसके आगे सभी झुक गए, गांधी भी और पटेल भी और जब राजा बने तो यह पूरे नेहरू खानदान का राज था। जो बालिग थे, रिश्ते-नाते में जहां भी जैसे थे उनके बीच इस सावधानी से सत्ता का बंटवारा हुआ कि वे पुत्री के उत्तराधिकार में बाधक न बन सकें। पुत्री को जिन भी परिस्थितियों में अपना घर बर्वाद कर के पिता का घर बसाना पड़ा, उसका एक लक्ष्य था कि कल के शासन का प्रशिक्षण लो। देश काबू से बाहर नहीं जाना चाहिए इसलिए कहने को नेहरू जी प्रधानमन्त्री थे पर जैसा कि अखिलेश में पता नहीं कहां से इतिहास का यह रहस्य जान कर कहा कि आदेश तो पिता जी का ही चलता है, पर कुछ फैसले मैं भी करता हूं, उसके उलट नेहरू ने कहा था, आदेश तो मेरा ही चलेगा, कुछ फैसले तुम भी लिया करो और यह काम इन्दिरा जी ने पति के घर में रहते हुए ही संभाल लिया था। पन्त जी को मुख्यमंत्री के पद से हटा कर भारत सरकार का गृहमंत्री इसलिए बनाया गया था क्योंकि उस नाचीज ने एक ऐसा फैसला लिया था जो इन्दिरा जी को नागवार गुजरा था। नेहरू जी को लिखा, राज हमारे खानदान का और यह नामुराद हमें आंख दिखाता है। नेहरू जी ने उस व्यक्ति को जिसने अपना स्नेह भाजन समझ कर नेहरू को डंडे खाने से बचाने के लिए उन्हें सुरक्षा देते हुए अपने ऊपरी मेरु दंड पर चोट खाई थी जिसके कारण उनकी गर्दन उसके बाद आजीवन हिलती रही, उनके सम्मान की चिन्ता किए बिना, उनकी इच्छा के बिना केन्द्र में बुला लिया था।
प्रधानमंत्री नेहरू जी ही थे, पर केरल की नम्बूदरी सरकार इन्दिरा जी के फैसले से ही गिराई गई थी। पूरे देश पर एकक्षत्र राज्य चाहिए।”
”यार तुम हद करते हो, बात कहां की कहां चक्कर मार रहे हो। धीरज खत्म हो जाता है।”
”जो है ही नहीं वह खत्म कैसे होगा। इसकी आदत डालो, आ जाएगा। मैं कह रहा था कि पूरे खानदान का देश की अवधारणा और पूरे खानदान का शासन की परंपरा के जन्मदाता वही हैं। इसलिए इन्दिरा जी के शासनकाल में भी पारिवारिक शासन ही चलता रहा। छोटे बच्चे अधिक नटखट होते हैं, वे हमेशा चंचलता में बड़ों से बाजी मार ले जाते हैं और छोटे होने के बाद भी अधिक चंचल, अधिक वाचाल होने के कारण अधिक प्रतिभाशाली लगते हैं फिर यह तो किसी ने सोचा न था कि नेहरू जी का क्या और कब अंत होगा इसलिए एक आटोमोबाइल की समझ पैदा करके व्यापार खड़ा करना चाहता था और दूसरा हवाई जहाज उड़ाते हुए दिन काट रहा था इसलिए नेहरू जी के बाद बदली हुई और शास्त्री जी की रहस्यमय मृत्यु के बाद स्वायत्त राज्य को चलाने के लिए इन्दिरा जी को भी सहायक की जरूरत हुई और वह ‘कुछ निर्णय मैं स्वयं भी लेता हूं’ की स्थिति में आ गया था और अधिक निर्णय लेने लगा था। फिर उसकी मृत्यु जिस दुर्घटना में हुई उसकी जांच करने को कोई कमीशन नहीं बैठा। और इस खाली जगह पर राजीव को बुलाया गया तो वह हाजिर हो गए और राज अपने हाथ में रहे, इसलिए भावी प्रधानमंत्री का प्रशिक्षण इन्दिरा जी की तरह फैसले लेने के क्रम में ‘कुछ फैसले वह खुद ही करने लगे थे और इसकी ही परिणति थी भिंडरवाले को सन्त बनाया जाना, संसद की मर्यादा की चिन्ता किए बिना तलवार के साथ उसका प्रवेश, यह सब राजीव के निर्णय से हुआ।”
”तुम्हारा दिमाग सड़ गया है। तुम इन्दिरा जी को नहीं समझ सकते। वह एक महान नेता थीं।”
”हो सकता है, समझ तो मेरी सचमुच कम है, पर काम तो इसी समझ से लेना पड़ता है। इन्दिरा जी महान थी, वह एक महान वंश में पैदा हुई थीं, वह कुछ मामलों में नेहरू जी से भी अधिक दृढ़निश्चयी नेता थी। देशभक्ति और परिवारभक्ति में संतुलन नहीं कायम कर पाती थीं। उन्होंने देश को जोड़ने का काम किया, तोड़ने का काम नहीं किया। पूरे देश को अपनी मुट्ठी में रखना चाहती थीं यह उनकी दुर्बलता अवश्य थी। उन्होंने जो फैसले राजीव को सौंप दिये उन्हें विचलित मन से सहन किया और जब वह असह्य हो गया तो ब्लू आपरेशन का निर्णय लिया। ब्लू का मतलब जानते हो। नहीं, नीला नहीं होता, ब्लो होता है, सफाया कर दो। और फिर उसके बाद जो हुआ वह सर्वविदित है, फिर भी शास्त्री जी की मृत्यु की तरह ही उनकी मृत्यु के कुछ प्रश्न अनुत्तरित रह गए। अनुत्तरित यह भी रह गया कि यदि उन पर गोली चलाने वाले पकड़े या मारे जा चुके थे तो बेगुनाह सिक्खों का कत्लेआम किसी के आदेश से किस अपराध को छिपाने के लिए किया गया। अनुत्तरित यह रह गया कि इन्दिरा जी का हत्यारा कौन था और उसने किनका इस्तेमाल किया। अनुत्तरित यह भी कि ये निर्णय कौन ले रहा था।”
”इस समय तो मुझे गालिब का एक शेर याद आ रहा है, पुर हूं मैं शिकवे से यूं राग से जैसे बाजा। इक जरा छेडि़ये फिर देखिए क्या होता है। तुम्हारे सामने चुप रहना भी मुश्किल, बोलना भी दुश्वार।”
मैं हंसने लगा, ”तुम ठीक कहते हो, पर सोचो इतिहासकार बीते जमानों का सही इतिहास क्या लिखेंगे जो हमारी आंखों के आगे घटी घटनाओं को भी नहीं समझ पाते और उनकी तोड़ मरोड़ करने वालों पर भरोसा करते हैं। तुम कमजोर दिमाग के हो, मैं तुम्हें थकाना नहीं चाहता था, पर यह देखो कि इस तालिका में हत्यारे और दुष्प्रचार के मारे का चेहरा कैसे सामने आ जाता है। सभी प्रायोजित नरसंहार कांग्रेस ने कराए इसलिए गोधरा के पीछे भी उसी का हाथ हो सकता है, यह सुनियोजित था। इसकी प्रतिक्रिया को तो रोका नहीं जा सकता था न उसके आयाम को समझा जा सकता था। यह पता लगाओ कि गोधरा में मुसलमानों के बीच कांग्रेस की कितनी पैठ थी और जिस व्यक्ति की उसमें प्रमुख भूमिका था वह कांग्रेस के संपर्क में था या नहीं।”
”मैं चलता हूं यार । तुम तो मुझे भी पागल बना दोगे।”
”जाओ। मैं रोकूंगा नहीं । परन्तु रात में यह सोचते हुए सोना कि मुसलमान जज्बात से इतना अधिक और अक्ल से इतना कम काम क्यों लेते हैं कि उनका योजनाबद्ध संहार करने वाला, भले सच्चे दिल से नहीं, हिन्दू वोट बैंक की लालसा में ही सही, उनका संरक्षक बन जाता है और जिसने अपनी अनुभवहीनता के दौर में कोई शिथिलता बरती भी तो बाद में इस बात का ध्यान रखा कि दुबारा ऐसा न होने पाए, उसे हत्यारा बता दिया जाता है, उस पर विश्वास करके वे अपने हत्यारों के वोटबैंक बन जाते हैं। हो सकता है सपने में तुमको इसका उत्तर भी मिल जाए कि प्रचारेण एतदपि संभवम्।
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वह शब्दकोश केवल कांग्रेस ही तैयार करा सकती है, दूसरा कोई नहीं। उसमें गुजराज के बहुत से पर्याय देने होंगे – । यह करना और गुजरात की आड़ में अपने काले कारनामों पर परदा डालना कांग्रेस के ही वश का है जिसके पास भाड़े के प्रचारकों की फौज रही है। इस शब्दावली से बचो, इससे प्रत्येक घटना के चरित्र को समझने में बाधा पड़ती है और असंख्य अपराधों से लिप्त और उन्हीं को अपनी नीति का गुप्त हिस्सा बनाने वाले को अपनी प्रचारशक्ति के बल पर छिपने की आड़ मिलती है। कांग्रेस ने जो भी किया सब राज्य द्वारा प्रायोजित था, गुजरात कांग्रेस की ही साजिश से घटित गोधरा कांड की स्वाभाविक और स्वतस्फूर्त प्रतिक्रिया। इसे किसी भी शासक के लिए रोक पाना असंभव था, कुछ हद तक विघातक भी। यदि दुबारा वैसी ही परिस्थितियां पैदा हो जाएं तो वह पुन: हो सकता है। परन्तु कांग्रेस ने जो कुछ किया वह राज्य प्रायोजित क्रिया थी जिसकी प्रतिक्रिया का दमन कई गुना दुखदायी हो सकता था इसलिए खुल कर कराह तक नहीं पाए । इन दोनों स्थितियों को समझा जाना चाहिए। नरसंहार कराना, जो कांग्रेस ने कई बार कराया और दंगों का भड़कना और प्रशासन का उसमें पूरी तरह सफल न हो पाना, दोनों अलग चीजें हैं। एक अपराध है दूसरा प्रशासनिक दक्षता से जुड़ा सवाल। अमेरिका जिसकी पुलिस हमसे अधिक दक्ष है, वह भी इन्हें आसानी से रोक नहीं पाता और दंगा एक शहर से दूसरे में ही नहीं एक राज्य से दूसरे राज्य में फैलता चला जाता है, यह तो अभी हाल की घटनाओं से भी समझ सकते हो !
”यह दंगा भाजपा शासित राज्य में हुआ । भाजपा के साथ भारत जुड़ा है, तुम उसे हिन्दू पढ़ते हो। हिन्दू शब्द के प्रति तुमने इतनी घृणा पैदा कर रखी है कि भाजपा का नाम आते ही वे मुसलमान भी दहशत में आ जाते हैं जिनको निशाना बना कर कांग्रेस शासन में हलाल किया गया और हलाल करने वालों के साथ हो जाते हैं। मुसलमान हैं तो सबसे पहले हिन्दू से लड़ेंगे, यह तक नहीं देखेंगे कि हिन्दू कार्ड खेलना कांग्रेस जानती है और हिन्दू शब्द को बदनाम करना भी वही जानती है। अपने तेरह साल के शासन में न तो मोदी ने, दस पन्द्रह साल के शासन में भाजपा शासित राज्यों ने, अपने आधे अधूरे तीन बार के शासन में बाजपेयी ने एक बार भी यह कार्ड नहीं खेला और मोदी जोड़ने की राजनीति करते हैं तो सांप्रदायिक जहर पर पले उनके ही दल या सहयोगियों में जाने कितने उनका ही गला काटने को दौड़ते हैं। वे संघ के पुराने एजेंडे से जुड़े लाेग है और आज भी सचमुच हिन्दू के हित से कम और मुसलमान के नुकसान से अधिक प्रसन्न होते हैं। वाजपेयी को वे नेहरूवादी कहते और संघ के उद्देश्यों से भटका हुआ मानते थे और अपनी ओर से गिराने का प्रयत्न तो नहीं करते थे पर भीतर से चाहते थे कि उनकी सरकार गिर जाय और जब उनकी तेरह दिन की सरकार गिरी थी तो अपने ऐसे ही एक मित्र को तालियां बजा कर अपनी प्रसन्नता प्रकट करते देखा था।”
जिसे मिटाने को बुद्धिजीवियों से लेकर दूसरे समस्त दल, विचार और समाचार माध्यम अपनी साख से लेकर अपना सिद्धान्त तक दांव पर लगाने को तैयार थे, इसलिए उनके लिए गुजरात का मतलब मोदीशासन प्रेरित सांप्रदायिक उपद्रव हो गया।
समाचार माध्यमों का प्रताप, इसे, इसके कारणों और परिणतियों से अलग करके मोदी जनित वज्रपात के रूप में पेश किया गया। मानो इससे पहल गाेधरा कांड न हुआ हो, या यदि हुआ तो उसे भी भाजपा ने कराया हो। अलीगढ़ में प्रोफेसर रहे, हिन्दी के एक बहुत अच्छे लेखक ने जो लेखन के कारण कम और अपने सेक्युलर दावे के कारण अधिक स्वीकार्य थे, गोधरा के बारे में लिखा कि वह स्वयं गोधरा कांड की कहानी गलत है। यदि बाहर से किरोसिन या पेट्रोल फेंका गया होता तो वह जमीन पर बिखरता, धुंए के निशान फर्श पर दिखाई देते । उन्हें उल्लू का पट्टा कहूं तो वह पूछ सकते हैं, क्या यही मुहावरा बचा रह गया था मुझसे संवाद के लिए, इसलिए मन में जो आए, इसे कह नहीं सकता, फिर भी उस सज्जन से पूछ तो सकता ही था या कोई चीज जला कर दिखा तो सकता ही था कि धुंए की कालिमा केवल ऊपर ही दिखाई देती है। रेलविभाग लालू के अधीन था, उनके द्वारा नियुक्त आयोग ने या पता नहीं वह आयोग था या कुछ और, इस उम्र में याद तो सही रहती नहीं, पर उसने कहा, अपने को जलाने के लिए आग उन यात्रियों ने खुद लगाई थी।”
यदि इतनी अनर्गल बातों को, जिनका सच लंबे समय बाद चला, सच का पर्याय बनाया जा सकता है तो क्या यह नहीं कहा जा सकता कि गोधरा कांड और गुजरात का दंगा कांग्रेस ने अपनी बदहवासी में कराया था और केन्द्र में अपने शासन के कारण उसका अभियोग भाजपा, और उसके ओजस्वी नेता के ऊपर लगा दिया था। कहा तो जा सकता है, पर मैं ऐसा कह नहीं सकता, क्योंकि मैं जानता हूं गोधरा न भाजपा की योजना का परिणाम था न कांग्रेस या साझी सरकार का। वह नये नये मुख्यमंत्री बने, कुछ करके दिखाने को आतुर, प्रशासनिक अनुभव से शून्य नरेन्द्र मोदी की अयोध्या में साबरमती एक्सप्रेस से बाबरी ध्वंस की वार्षिकी पर अकारण ‘मन्दिर यहीं बनाएंगे’ का नारा लगाने वालों के नारों, यात्रापथ में उनके व्यवहार की परिणतियों का चक्र था, जिसके आरंभ के लिए मोदी की प्रशासनिक अयोग्यता को दोष दिया जा सकता है, उसकी नीयत को नहीं। यह चूक उससे बड़ी नहीं थी, जिसमें अर्जुन सिंह ने अयोध्या के लिए उससे पहले ट्रेन रिजर्व करके रामजन्मभूमि के विरोध में आन्दोलन करने वालों को भेजा था। हमारा नियंत्रण कुत्ते की जंजीर खोलने तक रहता है, खुल जाने के बाद, शिकार पर दांंत गड़ा देने के बाद नहीं रह जाता। अत: पहली चूक के लिए हम उन्हें दोष दे सकते हैं, बाद का घटनाक्रम ऐतिहासकि होता है जिसमें किसी एक का सोचनाृ, विचारना या रोकना कोई अर्थ नहीं रखता। इतिहास प्रेरित घटनाएं एक रेला की तरह होती हैं जिनके विरोध में खड़े हो कर हम स्वयं पिस तो सकते हैं, परन्तु उन्हें रोक नही सकते। लैंड स्लाइड की तरह।
जो लोग इसे नहीं समझते उन्हें अनिवार्य जनाक्रोश सरकार प्रायोजित लग सकता है और जहां सरकार की पुलिस आइएस के पैदा होने से पहले उसी तर्ज पर नौजवानों को हांक कर ले जा कर गोली से उड़ा देती है, जिसके फोटोग्राफ तक उपलब्ध हैं, उस दल को एक मात्र विकल्प मान कर तुम्हें सत्ता में रखना है, इसलिए उधर भूल कर भी न तुम्हारा ध्यान जाता है न उनका जिन्होंने यह दर्द झेला, पर तुम्हारे बार बार दुहरा कर पैदा की गई दहशत से बाहर नहीं निकल पाते। जो स्वत: हुआ उसके कारण उपस्थित हों तो वह पुन: हो सकता है, क्योंकि उसे आज तक दुनिया का कोई प्रशासक रोकने का उपाय करे तब तक भारी नुकसान हो चुका होता है। इसके लिए शासन बदलने की नहीं, जनशिक्षा की, लोगों की मानसिकता बदलने की जरूरत होती है। बौद्धिकों की भूमिका इसी क्षेत्र तक सीमित है- हमारी