Post – 2016-09-28

समझदारों के बीच एक सही विचार की तलाश- 4

[पिछली पोस्‍ट पर आई चार प्रतिक्रियाएं ऐसी थी जिनमें यह आशंका जताई गई थी कि मैं आलोचना में मोदी का पक्ष ले रहा हूं। उनका ध्‍यान जो लिखा गया था उस पर न था, जिसे खोज रहे थे और मिल नहीं रहा था उस पर था। उसी चीज से उन्‍हें खीझ हरे रही थी इसलिए जो लिखा था वह उनकी समझ में नहीं आ रहा था। वे मेरे पिछले पोस्‍टों से परिचित नहीं हैं अन्‍यथा मैं लिख चुका हूं कि एक ऐसे समय में जब समस्‍त बुद्धिजीवी ‘ साहित्‍यकार, पत्रकार, अध्‍यापक लगभग आ‍क्रामक तेवर अपना कर मोदी की भर्त्‍सना कर रहे थे, मैंने कहा था, मैं मोदी का वकील हूं क्‍योंकि लेखक सताए हुए का साथ देता है। यह एक चुनौती थी कि आप इतने सारे बुद्धिजीवी अकेले मेरा उत्‍तर दे सकें तो दें। मैंने तीखी शब्‍दावली में उनके इस अभियान की निन्‍दा की क्‍योंकि किसी को पता नहीं था कि वह क्‍या कर रहा है और क्‍यों कर रहा है। कई तरह की आकांक्षाएं और घबराहटें थी। अपने ही किए से डरे हुए थे। इसलिए यदि किसी का सबसे बड़ा आरोप यह है कि मैं मोदी का पक्ष लेता हूं तो यह सही न होते हुुए भी सही माना जाय तो मुझे आपत्ति न होगी। मैं जो कुछ मानता हूं उसका कारण और तर्क प्रस्‍तुत करता हूं। जो असहमत हैं वे अपने कारण और तर्क देते हुए अपना पक्ष रखें और जो मानते हैं वह सिद्ध करने का प्रयत्‍न करें, बहस तार्किक और बौद्धिक तो हो। अमुक का भक्‍त या अमुक का चेला, अमुक का माल अमुक का थैला, से आगे की भाषा जो नहीं जानते उनको मेरे नाम तक का पता नहीं। नाम का अर्थ होता है अब तक जो कुछ लिखा है उस पर आधारित पहचान। भ‍क्‍तों के पास तर्क नही होता, जो अपनी तर्कशुद्ध विचार रखता है वह दार्शनिक या विचारक होता है। अब से ही सही, इसेे हम एक बहस मान लें और मैं जो सिद्ध करता हूूं उसे असिद्ध करे। बौद्धिक गिरावट और तू तू मैं मैं भाषा में तो सुधार होगा।
एक ओर ऐसे बुद्धिजीवियों की जमात जो अपने को तर्कवादी मानती है और अभियोग और आक्षेप, आवेग और आवेश से आगे बढ़ नही पाती, और दूसरी ओर अकेले मैं आवेश को तार्किक प्रतिरोध में बदलना चाहता हूं, इसलिए नहीं कि मैं उनमें से किसी से अधिक सूचना या ज्ञान संपन्‍न हूं, अपितु इसलिए कि मैं सत्‍य और न्‍याय के पक्ष में हूं और मोदी का तब तक समर्थक हूं जब तक उनके कार्य, विचार या कथन मेरी अपेक्षा के अनुरूप है। मैं आज तक कभी हारा नहीं, क्‍योंकि मैं जीतना नहीं चाहता, समझना चाहता हूं। कहीं त्रुटि नजर आई, किसी दूसरे के दिखाने से हो या अपने ही पुनर्विचार से, तो अपनी मान्‍यता को बदल लेता हूं। दूसरे के सही सिद्ध होने से मुझे सही होने का अवसर मिलता है। अब मैं अपेक्षा करूंगा कि जिनसे भी संभव हो मेरी निर्ममता से आलोचना करें और जैसा मैं दुहराता रहता हूं, आयु और ज्ञान का ध्‍यान न रखते हुए। खेलत में को काको गुसैंया। हां, अपने को भोड़ा और वाहियात सिद्ध होने से, खुद अपनी ही नजर में गिरने से अवश्‍य बचाएं। मेरा उससे कुछ नहीं जाता, पर बहस का स्‍तर गिरता है, यह न होने दें। अाज की पोस्‍ट को मैं इसी विषय पर प्रश्‍नोत्‍तर के रूप में रखूंगा]
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– सारे के सारे बुद्धिजीवी जिसके विरोध में खड़े हों आखिर उसमें कुछ तो कमी होगी ।

– सारे के सारे बुद्धिजीवी यह तक न बता सकें कि उसमें कौन सी कमी है, तो वे बुद्धि से काम ले ही नहीं रहे हैं। आवेग से काम ले रहे है। वे भावाकुल है या शोकाकुल, पर शोक का कारण तक नहीं जानते क्‍योंकि कारण पर भी कभी गहराई से सोचा विचारा नहीं। यदि वे तार्किक होते तो उनका लेखन स्‍वयं यह सिद्ध करता, उनको अलग से कह कर बताने की जरूरत न होती। कभी कभी कारण ऐसे होते हैं, जिसके लिए मुहावरा है, चोर की मां अकेले में रोती है।

– तुम्‍हारा मतलब है कि वे बुद्धिजीवी नहीं हैं, नैतिक नहीं है । अकेले तुम हो जिसने बुद्धि और नैतिकता का इजारा ले रखा है।

– बुद्धि का इजारा नहीं होता, बुद्धिजीवियों का कारागार अवश्‍य हुआ करता है । वह कभी विचारधारा के रूप में आता है, कभी व्‍यभिचारधारा के रूप में जिसके लिए हिन्‍दी का मुहावरा बना है बहती गंगा में हाथ धोना। जिन्‍हें तुम समस्‍त बुद्धिजीवी कह रहे हो, वे समस्‍त बुद्धिजीवियों के बीच से कांग्रेस की वैतरणी में हाथ धोने वाले रहे है, या दिमाग को बंधक बना कर अपने साथ रखने वाली विचारधाराओं की कारा में बन्‍द बुद्धिजीवी रहे हैं जिन्‍हें सोचने से अधिक आंख मूंद कर मानना और कुछ चीजों से नफरत करना सिखाया गया है क्‍योंकि नफरत को ये कारगर हथियार मानते हैं।

– नफरत जिन चीजों से पैदा होती है, उनसे नफरत हो जाती है। इसके लिए सोच विचार की जरूरत नहीं पड़ती सोचना तुम्‍हें है कि सारे के सारे लोग किसी से नफरत क्‍यों करने लगते हैं।

– पहली बात यह कि तुम ‘सारे’ और ‘कुछ’ का भी मतल‍ब नहीं जानते। सारे नफरत करते हों अौर कोई ऐसे बहुमत से जीत कर आए और जिसकी स्‍वीकार्यता का ग्राफ लगातार कायम रहे, तो यह एक कमाल ही होगा। करिश्‍मा । यदि नहीं, तो मानना होगा, लगभग सारे लोग जिसके साथ हैं, उसके साथ बुद्धिजीवी नहीं रह सकते, क्‍योंकि उन्‍होंने अपने को दूसरों से कुछ उम्‍दा समझ कर उसकी फीस उगाहनी शुरु कर दी। सत्‍ता से उनका जुड़ाव हो गया और जनसाधारण से विमुख हो गए। जिस सत्‍ता से या सत्‍ता के जिन रूपों से उनका जुड़ाव हो गया था उसके पछाड़ खाकर गिरने के साथ वे भी पछाड़ खा कर गिर गए थे । जिसे तुम बुद्धिजीवियों के विरोध का स्‍वर मान रहे थे, वह उस गिरने से लगी चोट से फूटने वाली चीत्‍कार थी। आह थी, कराह थी और जिसे तुम रोज मोदी के मखौल के रूप में सुनते हो वह भी कराह का एक रूप ही है क्‍योंकि चेाट की पीड़ा मोदी की सफलताओं के साथ टीस में बदल जाती है, जिसको विफलता सिद्ध करने से उन्‍हें हल्‍की सेंक का सुकून महसूस होता है और दर्द से क्षणिक राहत मिलती है। मेरी संवेदना उनके साथ है और समर्थन मोदी के साथ ।