रामसेवक का जाना अपने बचपन का वापस आना है
अक्षरज्ञान से साहित्य साधना तक
आज मै रामसेवक श्रीवास्तव की अन्त्येष्टि करने के लिए उपस्थित रहा। अठहत्तर साल का परिचय और बहत्तर साल की मित्रता। कभी विरोध या तकरार हुआ ही नहीं। एक ही गांव के लोगों के साथ यह संभव है, परन्तु एक ही परिवार के लोगों के साथ तक यह संभव नहीं। बचपन से ही अपनी साहित्यिक रुचि के कारण हमने एक दूसरे को जाना था। वह उम्र में मुझसे एक साल बड़े थे। उनकी शिक्षा चार साल की उम्र में ही आरंभ हो गई थी, कायस्थ पिता के पुत्र जो हुए और मैं लट्ठमार विरासत के कारण सात साल की उम्र में अपर प्राइमरी स्कूल की बेसिक में दाखिल हुआ था। बेसिक का अर्थ वह क्लास जिसे नर्सरी कहने वाले भारी फीस जुटा रहे हैं, जिसमें बच्चों को खेल खेल में ही कुछ सिखाया जाता था/है, और पढ़ाया भी खेल की तरह ही जाता था/ है। यह ब्रितानी शासन काल था और जहां भी संभव था शिक्षा को अपने स्तर के अनुरूप बनाने का आग्रह नहीं तो दिखावा ही सही, था तो था। बेसिक अध्यापक फागू मिसिर अपनी नकसुरी आवाज में गाते हुए हमें गाने को कहते और चित्र या ध्वनिरेख बनाते जिसे हम अक्षर या वर्ण कहते हैं।
रुकिए। अक्षर, वर्ण, स्वर और व्यंजन का अर्थ आप जानते हैं यह आपका विश्वास हो सकता है, पर जरूरी नहीं कि आप इनका अर्थ जानते हों।कोशोंं में और व्याकरण के ग्रंथों में भी जो अर्थ मिलेगा, उससे अाप यह समझ सकते हैं कि इसका हम किस वस्तु या स्थिति या गुण के लिए प्रयोग कर सकते हैं, परन्तु यह नहीं जान सकते कि इसका अर्थ यही है। अक्षर का अर्थ आप जानते हैं, परन्तु इसको समझने के लिए जिस कल्पना की जरूरत है वह आपके पास नहीं है। अक्षर स्वर या नाद है जिसकी अनन्त भंगियां हो सकती हैं।अक्षर का अर्थ है लगातार उसका उच्चारण हो तो भी कोई बाधा नहीं, सिवाय आप के फेफडे की ताकत के। व्यंजन या वि अंजन या व्यक्त करने वाले स्वर के बिना बची हुई ध्वनि जो क्षणिक होती है और नश्वर भी। वर्ण यह व्यंजन ध्वनि जाे स्वर के साहचर्य से या उसकी रंगत से ही व्यक्त हो पाती है।
फागू बाबा या फागू मिसिर मेरे पहले अध्यापक थे और अठहत्तर साल के धुंधलके के बीच उनका नाम याद है और याद है वह नकसुरी आवाज कब्बिर कन्ने क, रेसाें कि, दीर्घों कई, एकमत के, डाेले कउ, मैं आज भी नहीं जानता इस संगीत से वर्णबोध कैसे जागा था। यह सचमुच इसी रूप में गाया जाता था या मैं स्वयं विस्मृति के कारण घालमेल कर रहा हूं।
कब्बिर कन्ने अर्थात् क की ध्वनि के साथ यदि अ की ध्वनि न हाे, रेसों कि अर्थात् यदि क के साथ ह्रस्व इकार लगा हो और इसी तरह आगे।
परन्तु रामसेवक श्रीवास्तव, मुझसे एक साल बड़े और प्रभाव में चार या पांच साल बड़े, मुझसे पहले मर कर भी मेरा मुकाबला नहीे कर सकते, क्योंकि उन्होंने बचपन में उर्दू माध्यम चुना था, और कब्बिर कन्ने का अर्थात् क यदि एकान्त हो, उससे मात्र अ जुड़ा हो तो उसका उच्चारण क होता है इसका ज्ञान उन्हें न प्राइमरी स्कूल में हुआ न अपने शिक्षा काल में। बस एक आतंक था। मैं बेसिक या पहली में था तो दो छोटे बच्चों काे चौथी में पढ़ते देख कर लोगों के साथ हम भी आश्चर्य करते थे कि वे असाधारण प्रतिभा के बच्चे होंगे, बाद में पता चला कि रामअधार पटवारी बन कर रह गया और रामसेवक के साथ कब मैं हो लिया इसका बोध ही न हुआ। कुछ मित्रों का जाना अपने बचपन का वापस आना होता है क्या। तलाश किया तो मेरे इंटरनेट पर उनका कोई चित्र तक नहीं, जब कि कंप्यूटर के भरोसे अलबम फेंक बैठे।