निदान – 38
खुद को मैं ‘गर आपके ही आईने में देखता.
‘डाक्साब, एक छोटा सा हस्तक्षेप । कल आप कह रहे थे कि प्रकृति के तत्वों का मूर्तन करते रहे तो मुझे एक तो यह लगा कि आप मूर्तिपूजा में विश्वास करते हैं और दूसरे यह कि मूर्तिपूजा बहुत प्राचीन काल से प्रचलित रही है, जब कि मैंने जो पढ़ा था वह यह कि मूर्तिपूजा बौद्धों ने आरंभ की । हॉं एक अन्य मान्यता सुनीति कुमार चाटुर्ज्या की थी कि पूजा द्रविड़ों से अपनाई गई और यज्ञविधान आर्यों का था।”
”आज भी हम अपने विषय पर न आ सकें, यदि यही ठान रखा है आपने तो…”
”यह अलग नहीं है। सच कहें तो यह प्राथमिक समस्या से जुड़ा प्रश्न है ।”
”प्रश्न नहीं है शास्त्री जी, यह प्रश्नावली है और प्रश्नों का उत्तर बहुत कम मौकों पर ही हॉं या ना में होता है। उनके समाधान के क्रम में भी प्रश्न खड़े हो जाते हैं जिनका समाधान किए बिना उस मुख्य प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जा सकता। मैं जब तक आगे कुछ पूछने को न कहूँ आप केवल श्रोता बन कर रहें तो अच्छा होगा। पहला प्रश्न कि मैं मूर्तिपूजक हूँ या नहीं। मैं मूर्ति पूजा की बात नहीं मूर्ति विधान की बात कर रहा था। एक लेखक या विचारक मूर्तिविधान का विरोध कर ही नहीं सकता। वह अमूर्त भावों और विचारों को विविध सादृश्यों, दृष्टान्तो, पहले के विचारों आदि से मूर्त करता है जिससे वे हमें ग्राह्य हो सकें। कथाकार अपने पात्रों को किसी मान्यता या भावना का मूर्त प्रतिनिधि बना कर अपनी बात कहता है और कई बार तो उनका अपना नियंत्रण इतना बढ़ जाता है कि वे अपने प्रवाह, तर्क संगति के चलते ऐसी दिशा में बढ़ जाते हैं कि उसकी पहले की सोची हुई कहानी के परखचे उड़ जाते हैं। मूर्तन के बिना सर्जना संभव ही नहीं । इसीलिए मूर्तिपूजा के विरोधियों ने अपनी बदहवासी में विनाश अधिक किया निर्माण कम। निर्माण के लिए उन्हें भी मूर्तिविधान की आवश्यकता पड़ी ।
”कल्पना कीजिए कि आदिम समाज में पितरों का निवास, अर्थात् उनकी आत्मा का निवास पड़ोस के वृक्ष पर माना जाता था। कुछ पेड़ों का इसलिए पवित्र भी माना जाता था। अपने यहॉं गॉंव के बाहर पीपल के पेड़ पर उनका तब तक निवास माना जाता था जब तक महापात्रों के माध्यम से उनके सुख भोग का सामान स्वर्ग तक पहुँचा नहीं दिया जाता। दूसरे उनकी कब्र को उनका निवास मान लेते हैं और उस पर दिया बाती कर के या फूल चढ़ा कर अपनी श्रद्धा का प्रकाशन करते हैं, सूफियों में उनका मजार ही बन जाता है और नित्य पूजा का आयोजन होता है। ईसाई मेरी का, ईसा का चित्र बनाते हैं, गले में क्रास लटकाते हैं । ये आयोजन उसी नैसर्गिक अभिव्यक्ति के रूप है जो मूर्तिविधान में और उनके माध्यम से अपने लिए कल्याणकारी शक्तियों या परम देव में ध्यान केन्द्रित करने में दिखाई देता है। मूर्तिपूजा का विरोध और मूर्तिनिर्माण का विराेध करने वालों को मूर्तिकला से भी परहेज करना चाहिए और चित्रविधान से भी ये सभी मूर्तन के रूप हैै इस्लाम में यह होता रहा पर मकबरे का क्या करते। मूर्तिपूजा विरोध सभ्यता विरोधी है और इसने अपने उदय के साथ सभ्यता के स्तंभों को ही ध्वस्त किया, मूर्ति, मन्दिर, पुस्तक, ज्ञान, विज्ञान, सबका संहार ताकि विश्वास और भावोच्छ्वास को पागलपन की सीमा तक पहुँचाया जा सके। इससे अर्धविक्षिप्तों का समाज पैदा होता है और यात्रा मानवता से पशुता की ओर होती है।”
”परन्तु आधुनिक जगत से सभी दार्शनिक मूर्तिपूजा की निन्दा करते रहे हैं, यहॉं तक कि हमारे अपने देश में भी आर्यसमाज, ब्रह्मसमाज तक ।” शास्त्री जी अपने को रोक नहीं पाए।
”इसके साथ दो बातें हैं, पहला यह कि अपनी भौतिक सफलता, आधिपत्य और ज्ञान पिपासा के माध्यम से पश्चिम ने हमारे आत्मविश्वास पर विजय हासिल करली। हमने उनकी सफलता के साथ उनके धर्म को जोड़ कर देखा और समायोजन की स्थिति में आ गए और किसी न किसी तरह से एकेश्वरवाद की श्रेष्ठता के कायल हो कर अपने यहॉं इसकी तलाश करते रहे जो एक: सद् विप्रा बहुधा वदन्ति में तलाश लिया गया, एकोहं द्वितीयो नास्ति में पा लिया गया और फिर मूर्तिपूजा के स्थान पर ध्यान आदि और कर्मकांड आदि का सहारा लिया जाने लगा। जब कि ये सरलीकरण हैं।
”एक ही सत्य असंख्य रूपों और असंख्य छटाओं में व्यक्त होता है और इस व्यक्त रूप में ही हमें ग्राह्य हो पाता है, अन्यथा कोSहं सोSहं के चक्कर से आगे नहीं बढ़ा जा सकता। यह समझ लें कि मूर्तिपूजक समाज समावेशी रहे हैं, सहिष्णु रहे हैं, भिन्नताओं का सम्मान करते रहे हैं और मूर्तिभंजक असहिष्णु, मानवद्रोही और तर्क और विज्ञान के शत्रु और इसलिए सम्यताद्रोही रहे हैं।
”परन्तु महान से महान चिन्तक भी स्वतन्त्र नहीं होता, सहमति के दबाव में आ जाता है। पश्चिम में धर्मनिष्ठा में कमी बहुत मन्द गति से आई है। विरल अपवादों को छोड़ कर पश्चिम का पूरा समाज धर्मभावना से प्रेरित रहा है। इसकी व्याख्या में जाने पर हम लौट कर अपने विषय पर नहीं आ सकेंगे।
”दूसरा भ्रम कि बुद्ध से बुतपरस्ती का संबंध है, यह इस्लाम और ईसाइयत के भारत विषयक अधूरे ज्ञान के कारण है। यहॉं पुन: कह दूँ किसी भिन्न सभ्यता का अध्ययन करने में दूसरी सम्यता के प्रकांड से प्रकांड विद्वानों से चूक होती है और फिर वे क्रमश: एक स्थिर मान्यता का रूप ले लेती है। बुद्ध ने तो कहते हैं अपनी प्रतिमा बनाने या पूजा करने से अपने अनुयायियों को मना किया था । मना किया था यही इस बात का प्रमाण है कि मूर्तिपूजा उनसे बहुत पहले से प्रचलित थी।
”ऋग्वेद में तो इन्द्र, अग्नि, वायु, पर्जन्य, पृथिवी, आकाश, उषा, निशा सबका ऐसा ऐन्द्रिक और मूर्त वर्णन है चाहें तो चित्र उकेर लें, चाहें तक्षण कर लें और मूर्ति बना लें। इन्द्र पृथुग्रीवो वपोदरो इन्द्र: वृत्राणि जिग्घ्नते । मोटी गर्दन और निकला हुआ पेट, समझ में न आए तो सूमो महलवानों का ध्यान कीजिए। समझ में आ जाएगा। जब वे यज्ञ के समय देवताओं का आह्वान करते हैं, अग्नि से कहते हैं वह उन्हें ले कर आऍं, और उनसे अपना स्थान ग्रहण करने को कहते हैं तो यह किसी तरह की प्रतिमा या कल्पित आकार के रूप में ही रहा होगा। पुराने ख्यात विद्वान जब वेद का नाम लेते हैं तो यह न समझ लें कि उसका उन्होंने गहन अध्ययन भी किया था। सभी से गलतियां हुई हैं। यज्ञ को मूर्ति पूजा से इतना अलग नहीं किया जा सकता। अब हम अपनी बात पर लौटें ?”
”शास्त्री जी हाथ जोड़ दिए ।” ‘अनुमति है’, कहना न पड़ा ।
”शास्त्री जी, आप जानते हैं, खैर, इतनी मोटी बात तो मेरा यह मित्र भी जानता होगा कि ऋग्वेद दुनिया का प्राचीनतम ग्रन्थ है। परन्तु आपको यह भी मालूम होगा कि यह सभ्यता के प्रथम उत्थान की पराकाष्ठा का साहित्य है, जिसे न मेरा मित्र जानता है, न वे जानते या मानते हैं, जिन्होंने इसे विश्व की महान धरोहर के रूप में मान्यता दी, क्योंकि इसका अध्ययन जिन्होंने आज के दौर में किया वे सभ्यताद्रोही और इतिहास द्रोही थे, भले वे इस प्रचार में जुटे रहे कि भारत में न इतिहास था, न इतिहासबोध । और उनकी धौंस में हमारे अपने लोग भी उन मूर्खताओं का कायल हो गए।”
मेरे मित्र से रहा न गया तो वह बौखला उठा, ‘तुम जैसा वक्ता हो और शास्त्री जैसा श्रोता हो तो तुम यह भी समझाने से बाज न आओगे हि सूर्य या विवस्वान् पुत्र मनु और उनकी सन्तान इक्ष्वाकु और उनकी संतान तुम्हारा पोंगापंथी समाज और इसे ही इतिहास का चरम ज्ञान और इससे पैदा जहालत को इतिहासबोध कह कर प्रचारित करोगे तो मुझ जैसों को जहर खाने का मन करेगा, पर तुम्हारी बातें सुनने का नहीं। ”
”यार तुमने तो हमारी धारा ही मोड़ दी । मुझे आज लगा कि मैं जो कभी-कभी तुमको गधा कह देता हूँ उससे गधे अपमानित अनुभव करते होंगे। तुमतो काव्यविधान या कथनभंगी और तथ्यनिरूपण में फर्क ही नहीं कर पाते हो । और यह तुम्हारा दोष भी नहीं है । तुमने जिन्हें गुरु बनाया और जिनके गुरुडम को पहले किसी ने चुनौती नहीं दी, उसमें वे जो दिखाते रहे उसे तुम देखते रहे। तुमको इसी बेंच पर आज से एक साल पहले अपनी एक तुकबन्दी अर्ज की थी, ठीक एक साल तो नहीं, 10.9.2015 को उसकी कुछ पंक्तियॉं दूहरा दूँ:
खुद को मैं ‘गर आपके ही आईने में देखता.
मानिए सच आप जो कुछ देखते हैं देखता.
आप दिखलाते अगर दिन में भी तारे चाँद तो
मैं भी कहता मरहवा जो कुछ दिखाते देखता.
रात में कहते की सूरज को अभी हाज़िर करो
मैं क़ज़ा को याद करता आप का मुंह देखता.
”क्या तुम्हें नहीं लगता कि मैं तुम्हारे और अपने बीच का फर्क ही नहीं बता रहा था, तुम जो कर रहे थे उसे भी बयान कर रहा था। उन्होंने, हमें गुलाम बनाने वालों ने, जो दबाया, छिपाया, मिटाया और दिखाया उसे ही तुम सत्य समझते रहे और उसके ही आधार पर तुम अपना मूल्यांकन करते रहे क्योंकि तुम पदों, सुविधाओं के लोभ में उनसे तादात्म्य स्थापित कर चुके थे, परन्तु सुखी वे थे जिन तक वह ज्ञान, उससे मिलने वाली सुविधाएं और सम्मान न पहुंच सका और उनके कारण हमारी अपनी सोच, समझ और आजादी बची रही, परन्तु उसी तरह दीन हीन बनी।
”तुमने आज की चर्चा में एक ही समझदारी की बात की है, मेरी बात सुनने की अपेक्षा तुम जहर खाना पसन्द करोगे, और समझदारी यह कि तुम जानते ही नहीं कि तुम अभी तक जहर ही खाते और उसके बल पर ही पलते, फलते और फूलते आए हो। दो एक दिन पहले हम गीता पर बात कर रहे थे, आगे हो सकता है, उसी पर आएँ भी। उसके ग्यारहवें अध्याय में जहॉं अर्जुन श्रीकृष्ण के विराट रूप को देखने का अनुरोध करते हैं तो श्रीकृष्ण जो कुछ कहते हैं उसको मामूली पैरोडी के साथ कहूँ तो:
न त्वं शक्यसे द्रष्टुं बन्धु पाश्चात्य चक्षुसा । दिव्यं ददामि ते चक्षु पश्य ज्ञानपुरातनम्।। 11.8
”मैं जो कहता हूँ उसे ध्यान से सुनो। शिष्यभाव से आत्मसात् करो, और जब किसी विषय का समाहार करूँ केवल तभी अपनी आशंकाऍं प्रकट करो। आज की चर्चा का कबाड़ा तो कर ही दिया। कल का भगवान ही मालिक है ।”