निदान – २९
भगवान बुरा मान जो कोई बुरा कहे
अपने लिए नहीं तो उसी के लिए सही!
‘एक बात कहूँ तो बुरा तो नहीं मानेंगे आप ?”
”बुरा लगने वाली बात कहें और बुरा न मानूँ तो आपका प्रयत्न बेकार हो जाएगा। यदि अपने लिए नहीं, तो आपके लिए मुझे बुरा तो मानना ही होगा।”
शास्त्री जी उलझन में ही थे कि मेरा मित्र जो कल श्राेता बना हुआ था, अट्टहास कर बैठा। अपनी झेंप मिटाने के लिए शास्त्री जी को भी हँसना पड़ा। इस दबाब में अट्टहास में मैं भी शामिल हो गया। अचानक याद आया कि अपनी ही कही बात पर, शिष्टाचार के नाते, नहीं हँसना चाहिए तो एक झटके में रुक गया। वे दोनों असमंजस में पड़ गयेे कि कहीं वे गलत तो नहीं हँस रहे थे। इसे आप छोटे पैमाने पर चेन रिऐक्शन कह सकते हैं।
अब स्थिति तो मुझे ही सँभालनी थी। मैंने अपने को संयत रखते हुए कहा, ”शास्त्री जी जब तक आप यह सोच कर कुछ कहना चाहेंगे कि कोई उसका बुरा मानेगा या भला, तब तक या तो आप ठकुर सुहाती कहेंगे, या ऐसे अवसर पर चुप लगा जाऍंगे जब आपका हस्तक्षेप जरूरी था। सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् मा ब्रूयात् सत्यं अप्रियं को मार्गदर्शक सिद्धान्त बना कर चलने वालेे प्रियवादी तो होते हैं, सत्यवादी नहीं। जिन लोगों को उनका कथन प्रिय लगता है वे भी उन पर भरोसा नहीं करते इसलिए अप्रीतिकर भी हो तो भी जो सही लगे उसे कहना चाहिए यदि वह व्यापक हित में हो तो।”
”अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता तु दुर्लभ: ।” शास्त्री जी ने जड़ दिया।
”श्रोता उपस्थित है, वक्ता बनिए आप ।”
”डाक्साब, सच कहूँ तो आप पर यही अभियोग लगाने जा रहा था कि आप किसी दल से भले न जुड़े हों, सोच आपकी वामपन्थियों वाली ही है और आप भी सारा दोष हिन्दुओं में ही देखते हैं। जिस तरह मुसलमानों में वर्जित खाद्य के रूप में एक पशु का मांस गिना जाता है, यदि उसी तरह हमारी भावनाओं का सम्मान करते हुए वे गाय को भी वर्जित मान लें तो सारा बवाल ही खत्म हो जाय।”
”इस विषय को आगे न बढ़ाया होता तो ही अच्छा था। मैं जो कुछ कहना था सांकेतिक रूप में कह आया था। उससे ही आप इतने खिन्न हैं, यदि इससे आगे कुछ और दो टूक कहना पड़ा तो आपको क्लेश ही होगा, समझ कुछ न पाऍंगे। सचाई यह है कि जिसे मुसलमान वर्ज्य मानते हैं उसकाेे दूसरे बहुतेरे वर्ज्य नहीं मानते इसीलिए उसका अस्तित्व है अन्यथा उस प्रजाति का सफाया हो चुका होता। जीवन के तर्क उन लोगों की समझ में नहीं आते जिन्हें आराम से खाने पीने को मिल जा रहा है। इसका साक्षात्कार अस्तित्व रक्षा के दारुण क्षणों में ही होती है। दुर्भिक्षों के विवरणों से यदि परिचित होंं तो पता चलेगा कि मनुष्य क्षुधा कातर हो कर मनुष्य को मार कर खा जाता था, माताऍं अपनी सन्तान तक को। सर्वसुविधासम्पन्नता में जीवन के रहस्य और दबाव को नहीं समझा जा सकता।
”यदि आपने मेरे कथन और मन्तव्य पर ध्यान दिया होता तो खिन्नता बढ़ती नहीं, कुछ वैसी ही राहत मिलती जैसे चुभा हुआ कॉंटा निकल जाने के बाद मिलती है। या किसी व्यक्ति के बारे में गलतफहमी दूर हो जाने के बाद मिलती है। आप यदि आगे बात भी करते तो शिकायत के स्वर में नहीं, इस समस्या को अधिक स्पष्टता से समझने के लिए और उस समझ से ही आधा उपचार हो जाता और शेष आधे के निवारण के तरीके सूझ जाते।”
”मन तो मेरा वैसा ही है, मैंने तो, एक पक्ष की ओर ध्यान चला गया तो, उसकी याद आपको दिला दी।” शास्त्री जी इस बार पहले से अधिक दृढ़ दिखाई दिए।
”मैं लंबे समय से अपनी बात कहने की भूमिका बना रहा था, या उन सचाइयों से अवगत करा रहा था जिनको जाने बिना हम भोले बने और भटके हुए रह जाते हैं। इनको एक बार दुहरा दूँ:
पहली बात कि मनुष्य में व्यक्ति और समूह दोनों ही रूपों में तुच्छतम से महानतम, गर्हित से ले कर श्रेष्ठ तक कुछ भी बनने या होने की संभावना रहती है और इसका अपवाद कोई नहीं है, भले उसे ऐसे दौर से न गुजरना पड़ा हो। परिस्थितियो, प्रलोभवों, यातनाओं, विवशताओं के वश वह एक अति से दूसरी पर पहुँच सकता है। एक उदाहरण मैं शरतचन्द्र के अनुभव का दूँ । जब वह आज के म्यॉंमार में रहते थेे तब का। एक नौजवान ब्राह्मण था, पूजा पाठ करता था, चन्दन तिलक लगा कर निकलता। कुछ समय बाद एक दिन वह तहबन्द में मिला। पता चला उसका एक मुस्लिम लडकी से प्यार हो गया था और उस चक्कर में वह मुसलमान हो गया। पूछा गोमांस खाता है, बताया गाय काटता भी है। दो आवेगों में एक की प्रबलता ने दूसरे को जड़मूल से समाप्त कर दिया ।
”एक दूसरी बात मैंने कही थी कि व्यक्ति के मानस के निर्माण में शिक्षा की प्रबल भूमिका होती है और यह शिक्षा हमें केवल अपनीी औपचारिक शिक्षा और पाठ्यपुस्तकों या अध्यापकों से ही नहीं मिलती अपितु माता-पिता, परिवेश, धर्म और संस्कार, मनोरंजन, व्यक्तिगत अनुभव, मित्रमंडली, अनगिनत माध्यमों से मिलती है।
”एक तीसरी बात कही था कि कोई समाज जिस अनुपात में तार्किक और विवेेकवान है उसी अनुपात में वह अपने यथार्थ का सामना कर सकता है। अन्यथा उसके आग्रह और उसकी भावुकता के कारण उसे उनसे मुँह चुराना या ऑंखें मूंदनाा पड़ेगा। वह अपनी समस्याओं का समाधान नहीं तलाश कर पाएगा।
एक चौथी बात यह कि तार्किक या बुद्धिगम्य विचारों की तुलना विश्वास और अन्धविश्वास की ताकत अधिक होती है। तार्किक व्यक्ति या समाज को समझाया और अपने विचारों में परिवर्तन लाने को प्रेरित किया जा सकता है, तर्कातीत भावुकता, अन्धविश्वास, आवेग उसी बुद्धि का उपयोग अपने विश्वास या मान्यता को सही सिद्ध करने में तो लगा सकता है, परन्तु बदलाव में लंबे समय और बहुत अधिक परिश्रम की आवश्यकता होती है।
”तार्किकता हमें मनुष्य बनाती है, तार्किकता की अति जिसमें भावना केे लिए स्थान न हो हमें यन्त्रमानव बनाती है और तार्किकता का निपट अभाव और भावुकता की प्रबलता हमें पशु बनाती है। मनुष्य बने रहने के लिए असाधारण संतुलन की आवश्यकता होती है।
”इसलिए किसी को दोष देने से पहले हमें अपनी ओर देखना होगा कि क्या हम जिन समस्याओं के प्रति अतिसंवेदनशील हैं, उनकी अतिसंवेदनशीलता के कारणों को समझने में वस्तुपरकता से काम लेते हैं। जब गोपालन आरंभ नहीं हुआ था, तो हमारा सबसे प्रिय पशु बकरा था। यह आज से सात हजार साल से पहले की अवस्था की बात है। बकरी को प्रजनन और दूध आदि के लिए बचा कर रखा जाता था, पर बकरे की उपयोगिता कोई दूसरी नहीं थी, इसलिए उसका मांसाहार प्रचलित था। खेत को चर जाने वाले शाकाहारी जानवरों का वध धार्मिक कार्य माना जाता था और उनका मांसाहार अनिवार्य था। गोपालन के बाद जब तक बछडे का उपयोग हल और वाहन के लिए नहीं किया गया, उनका मांसाहार विहित था। ऋग्वेद में भी गाय या मादा गाय को ही अघ्न्या कहा गया है और बन्ध्या बछिया और सांड आदि को बध्य माना गया है। अवेस्ता में भी गाय को तो उसी तरह पवित्र माना गया है, अग्न्या कहा गया है परन्तु सांंड़ों की बलि का उल्लेख है।
”जब इसके बधियाकरण की जुगत निकल आई और उन्हें नियन्त्रित करके उनके श्रम का उपयोग हल और गाड़ी खींचने में होने लगा तब इन पर भी प्रतिबन्ध लगाने का अभियान आरंभ हुआ। मोटे तौर पर कहें हमारे स्वार्थ संबंध ही हमारी भावुकता, प्रेम आदि के निर्धारण में कारक भूमिका निभाते हैं, इसका याज्ञवक्ल्य और मैत्रेयी के संवाद में उपनिषदों में भी वर्णन किया गया है।
“जब भी हम अपनी माता के प्रति भी श्रद्धा की बात करते हैं तो उपकार ही गिनाते हैं जो उसने हमारे लिए किए। परन्तु ऐसी माताऍं भी खबर बनती हैं जिन्होंने अपने अनुचित प्रेम के कारण अपनेे पति और संतान तक की हत्या कर दी। कुमाता भी हो सकती है, भले अपवाद स्वरूप ही और उसके प्रति हमारा वही आवेग नहीं रह सकता।
“कल तक कृषि का आधार ही गोवंश पर निर्भर था। आज दूध की आवश्यकता हमें गाय रखने को प्रेरित करती है, पर ट्रैक्टर आदि ने हल का स्थान ले लिया और कटाई छँटाई के आधुनिक तरीकों के कारण भूसा तक खेतों में ही उड़ा दिया जा रहा है। पशुओं के चारे की समस्या अधिक गंभीर हुई है। जब भावुकता पैदा करनी होती है तो गाय के गुण गाये जाते हैं, पर बछड़े की कहीं चर्चा नहीं आती। गोरक्षा सरकारी धन के लूट का एक भ्रष्टतन्त्र बन चुका है। गायपालने वालों के बछड़े उनके खूंटो पर कुछ ही दिन रहते हैं । इस बीच कोई खरीदने वाला मिल गया तो उसे यह जाने बिना भी बेच देते हैं कि वह उनका क्या उपयोग करेंगे। हम उनके अन्तिम गन्तत्व की कल्पना ही कर सकते हैं। इसलिए अपने चुनाव भाषण में एक बार मोदी ने लालक्रान्ति की बात तो की थी, पर आगे उस पर चुप रहने लगे थे, क्योंकि श्वेत क्रान्ति और रक्तक्रान्ति एक ही सचाई के दो सिरे हैं।
“यदि कोई सचाई है जिसको टाला नहीं जा सकता, उससे भ्रष्टाचार, क्रूरता और दूसरे तरह के उपद्रवों को बढ़ाया जा सकता है पर उन्हें नियन्त्रित नहीं किया जा सकता तो हमें उसकी अनदेखी करने की आदत डालनी चाहिए । यदि नहीं डाली गई तो आत्मविनाशी क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं का ऐसा दौर आरंभ हो जाता है जिसके परिणाम अनिष्टकर होने को बाध्य हैं। अपने देश और समाज से प्यार करने वाला कोई व्यक्ति उपद्रव और अराजकता को बढ़ावा नहीं दे सकता । आप अधिक अतिसंवेदनशील होंगे तो पूरा जीवन आन्तरिक उद्वेलन और बाहरी कलह में बीतेगा।
”आदिम पाप की चर्चा करने वाला उस पाप से अपने को बचा नहीं सकता । बचाए तो उसके धर्म और वंश का नाश हो जाएगा। इसलिए वह आत्मग्लानि में जीने के लिए अभिशप्त है, वह पापबोध अनुभव कर सकता है और सामान्य होते हुए पापियों का समाज खड़ा कर सकता है, पाप से मुक्त नहीं रह सकता।
”यहॉं भी स्थिति यही है। हमाराा परंपरागत तरीका उपेक्षा का रहा है और अधिक से अधिक अपने लिए वर्ज्य का सेवन करने वालोंं तक से परहेज का रहा है, परन्तु आज की तिथि में यह भी उचित नहीं। हॉं, खान-पान में दूरी बनाए रखने का व्यक्ति को अधिकार भी है और यदि इस पर रोक विधान या संविधान द्वारा लगाया जाता है तो वह प्राकृत नियम और हमारी अपनी खानपान की स्वतन्त्रता का निषेध है, जिसका पालन नहीं हो सकता।
”दुर्भाग्य की बात यह है कि हमारी सारी समस्यायें सत्ता के लोभ में कांग्रेस द्वारा पैदा की गईं, जातिवादी राजनीति, संप्रदायवादी राजनीति, दलितवादी राजनीति और यह प्रतिबन्ध जिसका विस्तार करते हुए इसकी परिधि में घोोड़रोज या नीलगााय तक को गाय मान लिया गया। पर यह चुनावी दाव था। न इस पर उसका विश्वास था, न ही इसे लागू किया और आज उसके परिणाम भुगतने पड़ रहे हैं जिसका भी लाभ वही उठाना चाहती है।
”मैं मानता हूँ मेरे कथन से आपको क्लेश हुआ होगा, परन्तु अर्थतन्त्र और इतिहास का दबाव ऐसा है कि आप पाखंड को और उपद्रव को बढ़ावा तो दे सकते हैं, पर इसे रोक नहीं सकते। अधिक से अधिक होगा यह कि यह आपके देश से निर्यात किया जाएगा जो आज भी बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। आप अपने लोगों को उनके खान पान के वैध अधिकार से सत्ता के बल पर रोक और दंडित कर सकते हैं, इसके परिणाम जिस भी अनुपात में आएंगे अनिष्टकर होंगे, उन अनिष्टों को भुगत सकते हैं, परन्तु इतिहास के फैसले का आप नहीं रोक सकते।”
मुझे आश्चर्य हुआ, शास्त्री जी उत्तजित नहीं हुए। धैर्य से सुनते रहे और जब मेरी दृष्टि उनकी ओर गई तो देखा दूर किसी लक्ष्यहीन दिशा में सूनी ऑखों से कुछ देखते हुए भी कुछ नहीं देख रहे हैंं। और आश्चर्य इस बात पर हुआ कि मुझे लगा, इस सच को बयान करते, मेरी ऑंखों से ऑंसू गिर रहे थे और मुझे इसका पता तक न था।