निदान ‘ 28
गो ब्राह्मण प्रतिपालन
”डाक्साब, हम तो आपको इतना प्यार करते हैं कि आपके सामने अपना दिल खोल कर रख देते हैं और आप उसी में छुरी घुसा देते हैं।”
”प्यार का ही प्रमाण वह छुरी भी है जो आपकी शल्यक्रिया के लिए जरूरी है। यदि आप अपने ट्यूमर के साथ खुश हैं, डरते हैं कि इसे छेड़ा गया तो आपको असह्य पीड़ा होगी, तो भी आप की शल्यक्रिया आपके हित में है! सर्जन केवल यह कर सकता है कि वह आपको किसी शामक या पीड़ाहारी, इंजेशन देकर या क्लोरोफार्म सुंघा कर उस अवस्था में पहुँचाने के बाद छुरी हाथ में उठाए। क्या आपको नहीं लगा कि अन्तिम टिप्पणी से पहले का आ्ख्यान पीड़ाहारी उपचार ही था ?”
” पर पीड़ा तो इसके बाद भी हुई ही।” शास्त्री जी के स्वर में आक्रोश या अनुताप का भाव नहीं था, एक अपराधबोध था जिससे वह बचना चाहते थे।
”जहॉं तक छूरी का प्रश्न है, उसे तो शल्यचिकित्सक भी प्यार नहीं करता, उसे एक बार इस्तेमाल करने के बाद ही किनारे फेंक देता है। जरूरत हुई तो दूसरी छुरी उठाता है। यदि निर्वेद करने के उपाय के बाद भी, यह दिखाने समझाने के बाद भी कि देखो, इसी अतिरिक्त भावुकता के कारण इनकी यह दशा हुई, इनकी यह दशा हुई और तुम्हारी भी होगी। अपनी नियति से बचो, पछतावा बना रहता है तो व्याधि अधिक उग्र हो चली थी ।”
”आप भी अर्थव्यवस्था को इतना महत्व देते हैं । सिर्फ पैसे के लिए हम ऐसे जघन्य कृत्य करें जिसकी अनुमति अन्तरात्मा नहीं देती, इससे अच्छा तो मर जाना है। ऐसे शरीर की रक्षा करके क्या होगा जो रोटी के लिए आत्मा को ही बेच खाए। आपको पता है कितने हजार, या लाख लोगों ने मात्र सांस्कृतिक प्रतीकों की रक्षा के लिए प्राण गँवाए हैं। कितने लाख क्षत्रियों ने मरने की ठान कर पर झुकने से इन्कार करते हुए वीरगति प्राप्त की है और कितनी हजार क्षत्राणियों ने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए जीते जी जौहर का वरण किया है। यदि आप अपना ही इतिहास भूल गए तो दूसरों को इतिहास की शिक्षा कैसे देंगे और वर्तमान संकट को कैसे समझ पाऍंगे ? आप तो स्वयं एक बार स्वीकार कर चुके हैं कि हिन्दू एक संकटग्रस्त समाज है । फिर …” शास्त्री जी विगलित हो गए । आगे कुछ कहा नहीं गया, लगा बोलेंगे तो अपने को सँभाल नहीं पाऍंगे।
वह इतने गहन आवेग में थे कि कुछ कहता तो भी सुन न पाते । चुप रहा। कुछ देर तक अवाक् । इस बीच उन्होंने अपने को सँभाला, कई बार तो जी में आता है, जब मरना ही है तो कुछ को मार कर मरूँ। ऐसी नपुंसक जिन्दगी से क्या।” अब उनके स्वर में रोष तो था परन्तु पराजय बोध भी था।”
”मैं इसी का दृष्टान्त तो राक्षसों के इतिहास काे दुहरा कर तो दे रहा था। उनकी भावना का सम्मान किया जाय तो वे इतने उदार, इतने सहृदय, मेधा में इतने प्रखर और अपने कौल के इतने पक्के थे जिसका उदाहरण इतिहास में कम मिलेगा। एक बार वचन हार जाने के बाद, यह जानते हुए कि उनके साथ छल किया जा रहा है, उन्होंने अपनी अधोगति का वरण तो किया पर वचन से पीछे नहीं हटे। वलि और वामन की कथा में यही तो है। इसी का दंड तो क्षत्रियों ने भी भोगा, प्राण दे देंगे लेकिन छल छदम से जीत कर अपने शौर्य का अपमान नहीं करेंगे।
मैंने एक बार कहा था कि जिन मूल्यों को हम सनातन मूल्य कहते हैं, और जिनके कारण हम हिन्दु समाज को विश्व सभ्यता में अग्रणी मानते हैं, मानते हैं कि आधुनिक भौतिकवादी, अतिउपभोगवादी और संहार के ब्रह्मास्त्रों से लैस संसार की रक्षा उन मूल्यों को समस्त मानवता का मूल्य बना कर ही संभव है, वे उन्हीं से तो आए हुए हैं।
उनकी जो दुर्गति हुई वह भी उनकी भावुकता का ही परिणाम थी। आज वे सबसे अरक्षित हैं और वनांचलों में चले जाइए वे अपने जीवनमूल्यों को कूड़ेदान में फेंक कर बिकने के लिए कतार लगाए खड़े हैं। उनकी कतार आप को दिखाई नहीं देगी। केवल बिके और अनबिके का फर्क दिखाई देगा, पर जो अनबिके हैं उनके मन में ‘अपने निजत्च की रक्षा करूँ या बिक जाऊँ’ का जो द्वन्द्व चल रहा है वह आपको नहीं दिखाई देगा। इस द्वन्द्व के अनुपात में ही वे अदृश्य कतार में आगे-पीछे खड़े दिखाई देते हैं और मैं जब कहता हूँ हिन्दू समाज संकटग्रस्त समाज है तो उसमें संकट का एक पक्ष इस से भी जुड़ा है। यह दुर्गति इसलिए कि उन्हीं पुरातन मूल्यों से चिपके रह जाने के कारण उन्होंने न तो सही समय पर अपने आर्थिक उन्नयन की दिशा में कदम नहीं बढ़ाया, न ही अपनी पुरानी ऊर्जा की रक्षा कर सके, आर्थिक पिछड़ेपन के कारण अरक्षणीय हो गए। समय रहते चेता होता तो उनकी दशा में भी सुधार हुआ होता और यह दिन न देखना होता। तभी उनके उन मूल्यों की भी रक्षा हो सकी होती। उनकी अपनी भी।
”प्रकृति से अतिसंवेदी भावुकतावश वे नये चरण की ओर बढ़ने वाले अपने ही समाज के लोगों को समझने में भूल की। नयी क्रान्तिकारी शक्ति की जीवन्तता को समझने में चूक की। सोचा इन मुट्ठीभर अपघातियों को खत्म करके अपने मूल्यों की रक्षा कर लेंगे। पर हुआ क्या
? उनकी संख्या बढ़ती गई, संगठन शक्ति बढ़ती गई, सामरिक शक्ति बढ़ती गई और इन सभी दृष्टियों से पिछड़ते गए। अन्तत: उन्हें उनकी सेवा में भी जुटना पड़ा, वे काम भी करने पड़े जिनसे वे बचना चाहते थे, वह अहंकार और स्वाभिमान भी खोना पड़ा जिसके चलते वे अपनी समकक्षता में देवों को कुछ समझते ही नहीं थे और उनमें से जो इसके बाद भी अपनी सीमा में बँधे सबसे असहाय, अरक्षित और दुर्गति की अवस्था में जीने पर अड़े रहे, वे अपने मूल्य मान सहित बिक रहे हैं और ईसाइयत की आड़ में विदेशी शक्तियों के संकेत पर अपने देश तक से विद्रोह करने के लिए तत्पर हो सकते हैं या हैं। उन्हें समझाया जाता है और वे मान लेते हैं कि वे हिन्दू समाज के अंग नहीं हैं, जब कि हिन्दू उन्हीं की मूल्यव्यवस्था की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहे हैं। वे अपने तक को भूल गए । वह ऊर्जा और सृजनशीलता भी खो दी जो उनसे अलग हो कर, तन्त्र से जुड़ जाने के कारण, अग्रणी समाज की सेवा में लगे उनके स्वजनों में बची रही।
दाे
”शास्त्री जी, रोटी को बहुत सरलीकृत न कीजिए । यह समस्त भौतिक प्रगति का प्रतीक है। अध्यात्म की बातें करने वाले बिना धेला खर्च किए अपना कारोबार जमाने के लिए नैतिक, बौद्धिक और आत्मिक दृष्टि से गिर हुए जो लोग करते हैं और अपने वैभव पर गर्व करते हैं वे स्वयं अध्यात्म की तुच्छता और कामदेव की महिमा का गान करते हुए ऑंख खोलते हैं और आप जैसे भक्तों की ऑंखें बन्द करने के प्रयत्न में लगे रहते हैं।
”मैंने कभी इन पाखंडियों की आलोचना आप से नहीं सुनी। सुविधाएँ आपके पास भी वे सारी हैं। मैं इन्हें छोड़ने की बात नहीं करता। अध्यात्म का आत्मराग गाने से पहले सचाई को ऑख खोल कर देखने का आग्रह कर रहा हूँ। ये पाखंडी लोग आपका काम नहीं कर रहे हैं। जो काम धर्मान्तरण कराने वाले ईसाई कर रहे हैं वही ये भी कर रहे हैं धार्मिकता और अन्धविश्वास को उत्तेजित करके अपने ही समाज को पीछे ले जाने का काम। यह अपनी अग्रता को सुनिश्चित करने वाले देशों की योजना का अंग है कि शेष जन उन सवालों से जूझते रहें जिनका अारंभ और अंत भावुकता के विस्तार, बौद्धिकता के ह्रास और पारस्परिक विघटन से होना है । इस सचाई को जानते नहीं और इसकी ओर ध्यान दिलाया जाय तो आप भी मानने को तैयार नहीं होंगे। बचाव के लिए तर्क तलाशेंगे और आप जैसे ज्ञानी के लिए यह कोई कठिन काम न होगा फिर भी मुझे समझाने से पहले अपने को समझाने के लिए इस पर सोचिएगा।”
”मैं आपको क्या समझाऊँगा डाक्साब, परन्तु जिस से हमारा माता जैसा नाता है…”
” यदि कहूँ, यहॉं भी अर्थशास्त्र काम करता है तो क्या आप झेल पाऍंगे? शास्त्री जी ने न तो उत्तर दिया, न ही चुनौती की मुद्रा में मेरी ओर मुड़े ही ।
शास्त्री जी ने समय लिया फिर दबे स्वर में कहा, ”समझना तो चाहूँगा, हम तो विरोधियों के दृष्टिकोण को भी समझने का प्रयत्न करते हैं।”
”पहले आप यह बताऍं कि आप असुर परंपरा से अपने को जोड़ते हैं या देव या ब्राह्मण परंपरा से ?”
”मैं यहॉं इस प्रश्न का औचित्य नहीं समझ पाया ।”
”खैर, मेरा प्रश्न भी बहुत सही नहीं था, क्योंकि हमारे समाज का पिछड़ा वर्ग असुर परंपरा तक सीमित रहा है, देव परंपरा के विधान उस पर आरोपित रहे हैं जिनको वह मानता नहीं था, परन्तु पालन करने को विवश था। परन्तु वन्य समाज उससे अनजान तक बना रहा। जिसे हम ब्राह्मणवाद कहते हैं वह मिश्र परंपरा है । इसलिए आप तो दोनों परंपराओं के संवाहक हैं।”
शास्त्री जी की समझ में फिर भी नहीं आया कि मैं इस बहस में पड़ा ही क्यों। वह बिना कुछ बोले विस्मित भाव से मुझे देख रहे थे ।
”सामाजिक न्याय की परंपरा असुर परंपरा है। यह मेलमिलाप बहुत पहले आरंभ हो गया था, इसलिए ऋग्वेद में अग्निधान की परंपरा, यज्ञ की परंपरा, इन्द्र और विष्णु का महत्व देव परंपरा से आया है और जिनको अदेवयून कह कर निन्दा की गई है और जो अग्नि को उसके औद्योगिक उपयोग के कारण महत्व देते थे वे असुर परंपरा में आते है। बहुत पहले, कई हजार साल पहले, कृषि का श्रमभार भी असुरों पर आ पड़ा था। इसलिए जब गोपालन आरंभ हुआ, और गाय के दूध आदि का उपयोग आरंभ हुआ तो गाय को अघ्न्या कहने वाले, माता मानने वाले ये असुर पृष्ठभूमि के लोग थे, जो तब भी गणव्यवस्था में जीते थे। इसलिए ऋग्वेद के आठवें मंडल से सूक्त 101 में पन्द्रहवां सूक्त है जिसमें गाय को अदिति कहा गया है उसमें उसके साथ माता, पुत्री, भगिनी का संबंध जोड़ने वाले, तीनों गणसमाज के प्रतिनिधि हैं जो अब वैदिक देवों में समाहित हो चुके हैं पर अलगाव समाप्त नहीं हुआ है। ये ही प्रकृति की शक्तियों और तत्वों को मातृवत या पितृवत मानते थे। इनको सोमयाजी परंपरा का मान सकते हैं, वरुण और महेन्द्र के उपासकों की परंपरा। पूजा की परंपरा, ध्यान की परंपरा, योग की परंपरा आदि के जनक ये ही हैं।
‘देवों का उन्हीं प्राकृतिक तत्वों से बहुत भिन्न संबंध था। असुर प्रकृति में स्वत: उपलब्ध स्रोतों पर निर्भर होने के कारण उन्हें अपना पालक मानते थे। देव उनसे आगे बढ़ कर उत्पादन अपने हाथ में ले चुके थे। वे उन ओषधियों और वनस्पतियों को पैदा कर सकते थे, सींच कर बड़ा कर सकते थे, पेड़ लगा सकते थे इसलिए बिना अधिक दुविधा के काट भी सकते थे। पेड़ उनके लिए देव नहीं थे, पर असुरों के लिए देवस्थान थे। मूर्तिपूजा इस आसुरी पृष्ठभूमि से आई, मन्दिर की भी कल्पना इनकी ही रही हो सकती है। अध्यात्म चिन्तन, उपनिषद, बाद के संन्त आदि आंदोलन इसी परंपरा में आते हैं।”
”बात फैलती तो जा रही है, पर समझ में नहीं रही है।” शास्त्री जी ने टोका।
”मैं कहना यह चाहता था कि जब तक आपका असुर मूल्यों से समन्वय नहीं हुआ था तब तक और उसी के प्रभाव से बाद में भी ब्राह्मणों की दृष्टि यह थी कि जिसे हम उगा सकते हैं, पाल सकते हैं, पैदा कर सकते हैं, वह हमारा पालित है और हम उसको काट, उबाल, भून पका कर खा सकते हैं। यह पाकशास्त्री परंपरा भी आपकी ही है। उनकी नजर में वनस्पतियॉं मॉं हैं, देवों की परंपरा में वे पत्नियॉं हैं, यह तो जानते ही हैं आप। आसुरी परंपरा में नदियॉं माताऍं हैं, देवियॉं है, देव परंपरा की छाया के प्रभाव से शान्तनु गंगा नदी से विवाह कर सकता है सन्तान उत्पन्न कर सकता है।”
”बौद्धमत की प्रतिक्रिया में अहिंसा को अपना मूल्य बना कर जैसे ब्राह्मणों ने इसे चरम पर पहुँचा दिया और लहसन प्याल तक अखाद्य हो गए उसी तरह गाय के मामले में उस पुराने मातृभाव का पुन: आविष्कार करते हुए गाय से भावुकता को अति पर पहुँचा दिया गया और अब राजा का कर्तव्य गोब्राह्मण प्रतिपालन बना दिया गया। दोनों में साम्य स्थापित कर दिया गया। यदि गाय पशु हो कर भी गोवंश में उत्पन्न होने के कारण पवित्र है तो ब्राह्मण निरक्षर हो कर भी पूज्य हुआ और साक्षर और विद्वान और साधना में असाधारण शूद्र से, और सच कहिए तो किसी भी ब्राह्मणेतर से श्रेष्ठ रहेगा ही। इस गो ब्राह्मण के समीकरण ने गाय के प्रति हमारी संवेदना को अतिसंवेदी बना दिया। गोहत्या, ब्रह्महत्या का पर्याय बन गया। यदि एक को सहन किया जा सकता है तो दूसरे की भी नौबत आ सकती है। अब आप चाहें तो इसके पीछे के अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को समझ सकते हैं। गो, मैं यह अपनी समझ से कह रहा हूँ कोई दूसरा इसे गलत भी सिद्ध कर सकता है और तब उसकी बात पर ध्यान दूँगा।”