निदान – 23
अधोगति का दिग्दर्शन
”तुम अपनों को जोड़ नहीं पाते, दूसरों को भी तोड़ने बॉंटने का खेल खेलना चाहते हो, देशी मूल और विदेशी मूल का फर्क करके ? तुमने उनको इतना नादान समझ रखा है कि वे तुम्हारे कहने में आ जाऍंगे ?”
”मैं केवल जोड़ने का काम करता हूॅे । फोड़ने और बॉंटने का काम तुम लोग करते आए हो। अंग्रेजों ने अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए पहली बार भेदनीति का सहारा लिया। इसका सहारा सदा शत्रु देश के प्रति लिया जाता है, क्योंकि यह सबसे अधिक गहरी चोट करता है जिसे भरने में हथियार की चोट से भी अधिक समय लगता है। उन्होंने पहले मुस्लिम रईसों को यह समझाया कि तुमने इनको गुलाम बनाया, इन पर राज किया, अब यदि जिस तेजी से हिन्दू आगे बढ़ रहे हैं उस गति से आगे बढ़ते रहे तो तुम्हारे ऊपर इनका राज होगा और यदि किसी स्थिति में हमें यहां से जाना पड़ गया तो तुम्हें इनका गुलाम बन कर रहना होगा और ये तुम्हारे साथ वही करेंगे जो तुमने इनके साथ किया था। हम तुम्हारा खोया हुआ सम्मान वापस चाहते हैं, लेकिन तुम्हारे ऊपर हमें पूरा भरोसा नहीं है इसलिए हम स्वयं भी तुमको सरकारी काम काज से दूर रखते हैं, और चाहते हैं कि हमारी यह आशंका निर्मूल हो जाय इसलिए तुम पूरी तरह हमारे साथ आ जाओ, इसका प्रमाण पेश करो। हम तुम्हे शिक्षा में अपनी सकमक्षता में ला देंगे, तुम इनसे बहुत आगे निकल जाओगे, हम तुम्हें इनसे अधिक योग्य बनाऍंग। इस मन्त्र के जोर से ही उन्होंने सैयद अहमद को मुग्ध कर दिया था और भारतीय समाज में पहले से चले आरहे अलगाव को पारस्परिक शत्रुता में बदल दिया था जो अमीरों और तात्तुकेदारों के भीतर एक जहर से रूप में उतर गया था जो आज तक उनके भीतर काम करता दिखाई देता है, परन्तु वे अपने तई नगण्य थे इसलिए वे उसी विष को दूसरे मुसलमानों में उतारने के लिए प्रयत्नशील रहे। इस पक्ष को मैं सैयद अहमद के सन्दर्भ में अपनी समझ के अनुसार रख चुका हूँ। दूसरे देश में, जिसे अंग्रेजों को कभी भी छोड़ना पड़ सकता था और छोड़ना पड़ा उनके द्वारा इस नीति का सहारा लेना गलत नहीं था। उन्होंने अलगाव के कुछ और बीज बोये जो पूरी तरह नष्ट नहीं हुए पर उनको वे उचित खाद पानी नहीं दे सके। इसलिए उन्होंने इस एक राष्ट्र को दो राष्ट्रीयताओं का देश बनाने में सफलता पाई। मनोवैज्ञानिक स्तर पर वे यह काम उन्नीसवीं शताब्दी में ही कर चुके थे। परन्तु जिस दिन से कम्युनिस्ट पार्टी में मुस्लिम लीग की आत्मा ने प्रवेश हुआ उसके बाद ही वह अकल्पनीय बटवारा जो इसकी माँग करने वालों के लिए भी असंभव प्रतीत हो रहा है, संभव बना मान लिया गया और उसने यह कर भी दिखाया। कम्युनिस्ट पार्टी ने यदि क्रान्ति का सपना दिखाया था तो उसे उसने इस रूप में पूरा करके भी दिखा दिया। समझ उल्टी भले हो, वह जो कहती है वह करती है। और करती इस तरह है क्रान्ति उसको देख डरती है।
”अब तुम अपने देश को फिर दो राष्ट्रीयताओं वाला देश बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील थे जिसका मूल्यांकन हम नहीं करना चाहते, दिल बँट जाने के बाद भी साथ रहने की विवशता थी। साथ रहें और सम्मान से रहें यह जरूरी था । परन्तु इसके बाद अपने ही देश को नये सिरे से बॉंटो और राज करो की नीति कोई देशद्रोही ही अपना सकता था, क्योंकि पहले भी और किसी भी देश में अपनों को बॉंटने की राजनीति नहीं की जाती। सत्ता के लिए तुम अपने ही देश के शत्रु बन गए और इसे न जाने कितनी राष्ट्रीयताओं का देश बनाने के कार्यक्रम पर जुट गए और इसे जातियों, उपजातियों के बीच अधिकारों की समानता के अभियान का रूप न देकर, आपसी तकरार का रूप दे दिया। तुम्हारा पुराना नाम भी किसी काम का न रहा तो नाम बदल कर अपने को सेक्युलरिस्ट कहने लगे, पर कार्यक्रम वही पुराना, हिन्दू का अपमान, उसके मूल्यों का तिरस्कार, उसके अंगों का विच्छेदन, उसके इतिहास और संस्कृति का उपहास और विघटन, बिना प्रमाण और बिना औचित्य के।
”जैसे मूर्तियॉं तोड़ने वालों को कला की समझ नहीं होती, पुस्तकालयों को जलाने वालों में विद्यानुराग नहीं होता, होता तो वे यह काम कर नहीं सकते थे। अलबरूनी नालन्दा में आग नहीं लगा सकता था। यह काम बख्तियार खिलजी का जत्था ही कर सकता था जिसे कुरान के अलावा किसी दूसरे ग्रन्थ का ज्ञान नहीं था और हो सकता है कुरआन का भी ज्ञान न रहा हो, उसी तरह प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति के विनाश के लिए तुम्हारे मूर्ख इतिहासकार ही तैनात किए जा सकते थे जिन्हें उन भाषाओं का ही ज्ञान नहीं था जिसमें हमारी सभ्यता, इतिहास के सूत्र, सांस्कृतिक संपदा सुरक्षित है और उन्हें न उन स्रोतों की चिन्ता थी न उन तक पहुंचने के रास्ते मालूम थे जो उन भाषाओं के ज्ञान और उनमें जलाए, मिटाए जाने के बाद भी बचाया जा सका है इसका पता ही न था और इस अज्ञान पर वे गर्व भी करते थे।
”ऐसे जाहिलों ने हिन्दू समाज को तोड़ कर, मिटा कर इसे सुधारने का जिम्मा अपने कन्धों पर ले लिया। हमारे मनोबल को तोड़ने, अयुत कोटि वर्षों तक अपना गुलाम बना कर रखने के इरादे से उन विदेशियों की लिखी पुस्तकों को ही अपने ज्ञान का एकमात्र स्रोत बना कर अक्षरगोपाल बने इन विद्वानों की समझ और ज्ञान के उथलेपन पर तरस आता है परन्तु गलानि इस विवशता पर भी होती है कि विदेशी सत्ता के हटने के साथ सत्ता इनके हाथ में चली आई और ये नाना वेश बना कर उसी पुराने कार्यक्रम पर जुटे हुए हैं। मूर्खो को इतनी महिमा कभी नहीं मिली होगी जिनी वामपंथी चादर ओढ़ने वाले इन अक्षरगोपालों को।
”तुम एक दिन पानी की एक बोतल ले आओ, मुहावरे को चरितार्थ करते हुए पानी पी पी कर गालियॉं दो, मैं कुछ बोलूँगा नहीं, पूरा सुन लूँगा। तुम्हारा भी जी भर जाएगा। लेकिन यह जब देखो तक कोसने लगते हो, और इतना वक्त इसी पर बर्वाद कर देते हो यह नहीं होना चाहिए। जरा सा छेड़ा कि शूरू हो जाते हो…”
”पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा, इक जरा छेडि़ए फिर देखिए क्या होता है। गुस्सा लगता है यार, क्योंकि इन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी अधपढ़े अक्षरगोपालों की जमातें पैदा कीं, जिनके प्रताप और तेवर से ही डर लगने लगता है। खैर, तुम जो छेड़ बैठते हो, वह तुम्हारा सवाल नहीं होता है तुम्हारी घबराहट होती है और उस घबराहट को दूर करने के लिए मुझे यह भी बताना होता है कि यह पैदा कैसे हुई। तुम लोगों की विवशता यह नहीं है कि तुम जो जानते हो, वह डस्टबिन से उठाया हुआ ज्ञान है, विवशता यह है कि तुम उसके इतने आतंक में रहे हो कि कोई उससे बाहर लाना चाहे तो तुम उसे समझ नहीं पाते। जब बात समझ में आने लगती है तो घबरा जाते हो। पीछे हट जाते हो क्योंकि उसके बाद तुम्हारा आकलन जीरो पर नहीं आ जाएगा, माइनस जीरो की ओर झुक जाएगा, निगेटिव की ओर। इसलिए तुम उस ज्ञान को प्रसारित होने में बाधा डालते हो, दुष्प्रचार करते हो, और नजरअन्दाज करते हो और इसके बाद भी यदि किसी ने प्रकाशकों की कृपा से पढ़ कर उसकी चर्चा कर दी तो उसको हिन्दुत्ववादी कह कर परेशान करने लगते हो । अंधेरे का साम्राज्य माचिस की तीली तक से डरता है । मेरी बात तुम्हारी समझ में न आए शायद इसलिए ‘हिमालय रैबार’ के अंक अप्रैल-जून 2016 में Claude Alvores के निबन्ध Resisting the West’s Intelletual Discourse का एक छोटा सा अंश तुम्हें दिखाना चाहता हूँ:
Much of the knowledge in circulation in the Western World about the rest of the world was the direct result of political overloading. It was not only distorted but acutely contaminated by the ethnic concerns, goals, theories, obsessions, anxieties, and peculiar assumptions and above all political goal of western scholars and universities.
जिसे तुम गाली समझ बैठे और घबरा गए, वह असलियत का खाका था, उस ऐक्यूटली कंटैमिनेटड ज्ञान का अर्थ तो तुम्हारी समझ में आएगा ही नहीं। कभी होटलों के कूडे को उलटते पलटते कुत्तों और उनके साथ ही किसी क्षुधाकातर व्यक्ति को उस से पेट भरते देखा है । अपना ज्ञान उत्पादित न कर पाने, अपने पुराने ज्ञान से भी वंचित हम सबकी यही दशा रही है और दुर्भाग्य की पराकाष्ठा यह कि जिन्होंने इस अधोगति को समझा, इससे बाहर लाने का कोई प्रयत्न किया, उनसे घबरा कर उनको बदनाम करने या गुमनाम रखने में तुम सक्रिय रहे। है न लानत की बात । पर जानते हो इसका रहस्य । अपने विदेशी मूल पर गर्व करने वाले मुस्लिम समुदाय का वही तबका है जो न अपने इतिहास का सामना कर पाता है न वर्तमान का । दोनों पर दो तरह के पर्दे डाल कर अक्षरगाेपाल बड़बोलों की अक्षौहिणी तैयार करता है जिसकी दुष्प्रचार शक्ति के सामने हम मूक रह जाते हैं। वह इससे बाहर आना नहीं चाहता, क्योंकि इसी से उसे डूबने से बचने के लिए वह तिनका अपनी पहुँच में दिखाई देता है। वह तिनका जेम्स मिल ने दिया था कि पश्चिम सभी माममों में शेष जगत से श्रेष्ठ है और जो किसी देश के जितना ही पश्चिम है वह उससे उतना ही श्रेष्ठ है । और इस कल्पित श्रेष्ठता के तिनके इतने कमजोर हैं कि फूँक मारते ही उधिया जायँ फिर भी इन्हें ही तुम लौह प्राचीर मान बैठे थे और अपनी बौद्धिक बलि दे कर बचाने में लगे रहे हो, क्योंकि हमारे बीच जो स्थापित हैं वे इसी के बल पर स्थापित हैं और इसका रहस्य उजागर होते ही विस्थापित हो जाते हैं ।”
”तुम्हारी भँड़ास निकल गई ? कुछ बच रहा हो तो उसे भी सुनने को तैयार हूँ। पर मेरे सिवाय कोई दूसरा इसे सुनने और मानने को तैयार होगा? खैर, मानने को तो मैं भी तैयार नहीं हूँ फिर भी कुछ बकने को रह गया हो तो वह भी बक लो।”
”यहीं तो तुम जीत जाते हो यार । इस डेडलाक को मैं कभी तोड़ नहीे पाता हूँ। डेडलाक का मतलब जानते हो ? नहीं जानते होगे । तुम तो मुर्दा ताला कह कर छुट्टी पा जाओगे पर यह न समझोगे कि ताला मरता कैसे है? डेड लाक का मतलब है जंग लगा वह ताला जो चाभी को तोड़ दे पर खुलने का नाम न ले। तुम वही हो, और मैं वह चाभी जो अभी तक हारती ही आई है ।