Post – 2016-08-15

निदान – 20
सितम को यदि रहम कहना पड़े तो उनको क्‍या कहिए

”व्‍यंग्‍य विनोद में लोग संतुलन का ध्‍यान नहीं रख पाते, कई बार शालीन लोगों के मुँह से भी विनोदवश अभद्र टिप्‍पणियॉं सुनने को मिल जाती हैं, फिर इनका चलन सा हो जाता है। बोलने से पहले लोग अधिक सोच-विचार नहीं करते। इतने ही से तुम इतने खिन्‍न हो गए कि यह सोच लिया कि इन्‍हें गिनाओगे तो मैं दोनों कानों पर हथेली लगा कर भाग खड़ा होऊँगा?”

”अभी तो उस प्रकरण को मैने हाथ ही न लगाया। उसकी भूमिका बना रहा था। और जिसे तुम असावधानी से निकला कथन मान रहे हो वह होता तो है। यहॉं भी वही होता तो मैं उसकी नोटिस ही न लेता। इसके पीछे इतनी सोची समझी योजना है जिसे देख कर हैरानी होती है कि इसे कितने लोगों की सहमति से तैयार किया गया था, या किस आला दिमाग ने इसे तैयार किया था कि बाद के लोगों ने इस पर अमल शुरू कर दिया पर कुछ भी बदलने की जरूरत ही न समझी। जरा इन तथ्‍यों पर ध्‍यान दो:
1. पारसी मत जाे वास्‍तव में अहुर मज्‍दा या असुर महान का अग्निपूजक मत है, उससे इस्‍लाम की पुरानी दुश्‍मनी है। उसी के अत्‍याचारों से घबरा कर जो पारसी भाग कर भारत आ सके आ गए। भारत में उनकी असाधारण आर्थिक प्रगति और स्‍वीकार्यता के अब यदि तुम्‍हारे दृश्‍य माध्‍यम में किसी पारसी का चित्रण होता है तो वह एक मिमियाने वाला, निहायत कंजूूस और फितरती और भरोसे अे अयोग्‍य दिखाया जाता है।
2. ईसाइयों में स्त्रियों को अधिक छूट बहुत पहले से मिली हुई है । यह इस्‍लामी परदा प्रथा के सामने एक चुनौती है। कहॉं हिजाब कहॉं मिनी स्‍कर्ट पर नाज। हाल के दिनों में ईसाई देशों में स्त्रियों परदे और शर्म की बेडि़यॉं जिस तरह तोड़ी हैं, वह प्राचीन भारत में की मुक्‍त स्त्रियों को हासिल था। सबको नहीं। मुसलिम स्त्रियों में से अस्‍सी फीसद हिकारत के डर से इसे स्‍वीकार कर लेती हैं, फिर इस पर गर्व करने लगती हैं, और मुस्लिम पुरुषवर्ग की मूल्‍यचेतना आ आभ्‍यन्‍तरीकरण करके इसका ध्‍यान न रखने वालों की आलोचना करने लगती हैं। चलो यह उनकी बात हुई। पर इसके कारण ही ईसाई लड़कियों को तुम्‍हारे चित्रों में चालबाज, नशीले पदार्थों की तस्‍करी में लिप्‍त, फ्लर्ट और बेशर्म के रूप में चित्रित किया जाता रहा।
3. हिन्‍दी भाषी परिवार में भी विवाहादि के प्रसंग में पंडित को चंन्‍दन चर्चित दिखाने के साथ उसे दाक्षिणात्‍य इसलिए ही नहीं दिखाया जाता रहा कि उसका हिन्‍दी या संस्‍कृत का उच्‍चारण कुछ हास्‍यकर हो जाता है, इसका एक कारण यह था कि दक्षिणभारतीय ब्राह्मण उच्‍च शिक्षा प्राप्‍त और उच्‍च पदों पर नियुक्‍त होते हुए भी अपने चंदन टीके का सम्‍मान करते थे और काम काज की जगहों पर भी उसी वेश भूषा में जाने में झिझक अनुभव नहीं करते थे। यह मेरा खयाल है, हो सकता है यह गलत हो।

अब तुमको लगेगा, जिस सशक्‍त संचार माध्‍यम में अपनी आला दर्जे की प्रतिभाओं को झोंक कर या उन्‍हें रहस्‍यमय संचार प्रणाली से आमन्त्रित करते हुए इसे उर्दू सिनेमा बनाने का प्रयोग किया गया, वह भाषा तक सीमित नहीं था, न कास्‍ट में पहले उर्दू और फिर अंग्रेजी के चलन तक, सीमित था। इसकी अन्‍तर्वस्‍तु को मुस्लिम लीगी मंसूबों के अनुरूप रखा गया।

” एक गुंडे को कृतघ्‍न हिन्‍दू से उसकी उपेक्षा और अपमान सहते हुए भी उसका परम हितैषी बनाना मात्र एक खयाल नहीं है, इसके पीछे तुम मुहम्‍मद अली के व्‍याख्‍यान की उस पंक्ति का मंचन देख सकते हो जिसमें उन्‍होंने कहा था कि एक पतित से पतित मुसलमान गांधी जैसे हिन्‍दू से भी अच्‍छा होता है और जिस तरह गांधी जी ने उसका बुरा नहीं माना था उसी तरह हिन्‍दू समाज ने, जिसे तुम आतताइयाें का समाज सिद्ध करने पर अपनी संगठित प्रतिभा लगा देते हो, उसने इसको कभी मुद्दा न बनाया न कोई उपद्रव इस चित्रण को ले कर हुआ। उसमें उसने प्राण या नाना पाटेकर की अदाकारी का ही आनन्‍द लेता रहा । इसमें दुहरी समझदारी थी। तुम्‍हारी योजना के अनुसार यदि वह उद्वेलित हो जाता तो समस्‍त संचार माध्‍यमों पर एकाधिकार रखने के कारण तुम इसका महीनों ढोल बजाते हुए कि इनको कला की समझ नहीं है, देखों, ऐसे अभिनेताओं को भी जो जन्‍म से हिन्‍दू और विश्‍वास से हिन्‍दू हैं, ये हिन्‍दुत्‍व का शत्रु बताते हुए कला पर ही बन्दिश लगाने का अभियान चला रहे हैं। इसी आधार पर हिन्‍दुओं को उपद्रवी सिद्ध करते रहते और पढ़े लिखों में बहुतों काे यह सही भी लगता, विदेशों में जहॉं हिन्‍दू विरोध ईसाइयत के प्रसार का हिस्‍सा है, वहॉं इसकी इतनी खपत होगी कि प्रचार करने वालों के गले तक चांदी भर दी जाएगी। इसलिए तुम्‍हारे इरादों को भॉपे बिना ही, अपने सहज बोध से उसने ऐसे उकसावों को लगातार विफल ही नहीं किया, अपितु कलात्‍मकता के प्रति अपने परंपरागत सम्‍मान की भी रक्षा की जिसमें यदि नग्‍न चित्रण, मैथुन की मूर्तियों को भी झेल गया जो उसक आदर्श इन्द्रिय निग्रह के अनुरूप नहीं थी। कलात्‍मक स्‍वतंन्‍त्रता के प्रति ऐसी सहिष्‍णुता, कामशास्‍त्र के रचनाकार के विशद ज्ञान, अनुभव और उसके प्रतिपादन पर उसे मुनि का सम्‍मान देने वाले समाज को तुमने समझा ही नहीं। उसे जानने का प्रयत्‍न तक नहीं किया और, बुरा तो न मानोगे, यदि मैं कहूँ कि भारतीय संस्‍कृति की जड़ों काे न जानने के कारण, तुम सांस्‍कृतिक गुंडों के रूप में अपनी दादा गिरी चलाते रहे और जो तुम सही मानते थे उससे तनिक भी विचलित हाेने को तैयार न थे।”

उसने मुझे कुठाॅव मारा, ”बौद्धि‍क बहस अब इसी भाषा में और इसी स्‍तर पर चलेगी? मेरी नीचे की साँस नीचे, ऊपर की ऊपर, कुछ कहते बने ही नहीं। मैंने अपनी गलती स्‍वीकारी। पर तभी यह याद आया कि यह गलती हुई क्‍यों। चेतना के उपस्‍तरों में बहुत कुछ ऐसा संचित होता है जो हमारे अनजाने ही हमारे कथन को किसी दिशा में मोड़ देता है। इसका ध्‍यान आने पर मैने कहा, ”यह उक्ति मुझे एम हुसेन के उच चित्रों के कारण मन में संचित आवेग के दबाव में निकल पड़ी जिसमें उन्‍होंने सरस्‍वती को गधे की पूँछ पर नंगी बैठी दिखाना आरंभ किया। मैंने इसका अध्‍ययन नहीं किया है, पर सन्‍देह है कि बाबरी मस्जिद के गिराए जाने की प्रतिक्रिया में आरंभ हुआ हो। यह एक टेढ़ा सवाल है और मेरे अज्ञान के कारण अधिक टेढ़ा फिर भी जो लोग कलात्‍मक स्‍वतन्‍त्रता को उस सीमा तक ले जाना चाहते थे कि एक बड़ा कलाकार अपनी अभिव्‍यक्ति के लिए कुछ भी करने को स्‍वतन्‍त्र है वे न कला की समझ रखते हैं न महानता की। मैं यह मानता आया हूँ कि बड़ा कलाकार समाज से बड़ा नहीं हो सकता और समाज की संवेदनात्‍मक तरंगों से यदि वह परिचित नहीं है तो बड़ा कलाकार हो ही नहीं सकता। खैर यह एक अलग विषय है हम नाहक इसमें उलझ गए।

”मैं कहना चाहता हूँ कि यह हिन्‍दू समाज इतना परिपक्‍व है और रहा है फिर भी यह कह कर कि यह अ‍सहिष्‍णु है, तुम लगातार सूइयॉं चुभाते रहे हो और इसके कारण उसके कुछ लाेग जिनकी पचहान भी उनकी पुरातनपंथिता से जुड़ी है, क्षुब्‍ध हो कर असंयत कथन अवश्‍य कर बैठते हैं, क्‍योंकि वे तुम्‍हारी तरह शातिर नहीं हैं। तुम्‍हारा ध्‍यान केवल उनके बयानों की ओर जाता है जब कि सामान्‍य हिन्‍दू समाज उनको महत्‍व नहीं देता और यह उपेक्षा उन्‍हें और क्षुब्‍ध करती है जिससे अपनी प्रासंगिकता की तलाश में वे अ‍ौर भी आक्रामक तेवर अपनाते हैं पर वह जबान से आगे नहीं बढ़ती।

”परन्‍तु इसे ही प्रमाण बना कर तुम हिन्‍दू समाज में असहिष्‍णुता बढ़ने का प्रचार आरंभ कर देते हो। हमारा एक प्रसिद्ध पटकथाकार कहता है हॉ आज असहिष्‍णुता जितनी बढ़ गई है उसमें वह शोले का वह डायलाग नहीं लिख सकता जिसमें धर्मेंन्‍द मन्दिर के पीछे से हेमा मालिनी को फॅसाने के संवाद बोलता है। यह काल्‍पनिक आरोप है और इसलिए एक तरह का पिनप्रिक भी, क्षोभ पैदा करने वाला भी।”

”तुम देखो तो किन परिस्थितियों में प्रकट की गई आशंका है यह । उसी से पहले वह दादरी कांड हुआ था।”

”मैं उस कांड पर न जाऊँगा अन्‍यथा भटक जाऊँगा, पर मुझे सन्‍देह है कि छोटे से छोटे विचलन को उसी की समकक्षता में रख कर असुरक्षा का वातावरण तैयार करने वाले असुरक्षा बढ़ाने के लिए अधिक सक्रियता से काम कर रहे हैं, क्‍योंकि वे इसे एक औजार के रूप में उस प्रशासन के विरोध में इस्‍तेमाल करना चाहते हैं जिससे उन्‍हें डर लगता है।

”उन्‍हें पता है और पहले से पता था कि हिन्‍दू समाज अपने देवताओं के प्रकोप से नहीं डरता। वह उनके साथ मित्र या पुत्र भाव से छेड़छाड़ भी कर लेता है और इसलिए इस तरह की चुहल का आनन्‍द लेता है। यदि आप यह सोचते हैं कि ऐसा चित्रण उसे आहत करता है परन्‍तु बहुत अधिक नहीं, इसलिए पहले इसे सहन कर लिया जाता था, और यह जानते हुए आप ऐसा करते रहे हैं तो यह विनोद भी अपराध था।”

”तुमसे तो भई परमात्‍मा ही बचाए। किसी चीज को अनुपातहीन ढंग से कहॉं तक बढ़ा सकते हो। इसी तरह की व्‍याख्‍याओं से तो समाज में विक्षोभ पैदा किया जाता है और शान्ति और व्‍यवस्‍था के लिए खतरा पैदा हो जाता है।”

”तुम्‍हारी अनुपात की बात से मैं भी सहमत हूँ बारीक मीमांसा में जब प्रथम दृष्‍ट्या निश्‍छल प्रतीत होने वाली किसी परिघटना में शरारत नजर आने लगे तो कुछ मामलों में यह विवेचन के दोष के कारण भी हो सकता है।

”परन्‍तु यह जो तुम्‍हारा प्रगतिशील लेखक संघ है, याने प्राग्रेसिव राइटर्स एसोशिएशन, उर्दू में भी इसका एक नाम है तरक्‍की पसन्‍द मजलिस या अजुमने तरक्‍की या जो भी हो, इसने मुस्लिम समाज में तरक्‍की का कौन सा मुहिम चलाया, तुम बता सकते हो ?”

”इसी तरह के सवाल रह गए हैं तुम्‍हारे पास ?”

”कमाल के आदमी हो, सवालों से भी डरने लगे। चलो छोड़ो, तुम्‍हारा यह जो प्रगतिशील संघ रहा है, इसने समाज में ब्रहम समाज, आर्य समाज की तुलना में सामाजिक चेतना के विकास में कितनी कम या अधिक भूमिका निभाई है ?”

”तुम बोर बहुत करते हो यार। उठा जाय ।”

”मैं बोर नहीं करना चाहता, मैं तुम्‍हें याद दिलाना चाहता हूँ कि ‘एक धनवान की बेटी ने निर्धन से नाता तोड़’ लिया जैसी छैलों वाली सोच से तुम चौकाने वाली हवाई बातें करते रहे और यह भी नहीं समझ सके कि इससे आर्थिक दीवारे समाप्‍त नहीं होती हैं और उसने ऐसा फैसला किया तो ठीक ही किया। प्रगति की बात आर्थिक सन्‍दर्भ में नहीं सामाजिक और सांस्‍कृतिक सन्‍दर्भ में ही सार्थकता रखती है और इस मामले में तुम्‍हारा योगदान नकारात्‍मक रहा। समाज को समझे बिना अपने हुक्‍म से परिवर्तन कराने चलते हो और इसके परिणामों से आहत होते हो तो क्रान्तिकारी तेवर अपना लेते हो।

”परन्‍तु मैं जिस बात पर तुमको कान पकड़ कर भागने की बात कर रहा था वह यह है कि तबलीगी प्रभाव में क्रमश: अधिक सेक्‍युलर या हिन्‍दूद्रोही सिद्ध होने के चक्‍कर में तुमने मुल्‍लाओं को पीछे छोड़ दिया और उनसे आगे बढ़ गए। अभी यहीं तक पहुँचे हो कल का भविष्‍य मैं आज बताने चलूँ तो गलती की कुछ गुंजायश फिर भी रहेगी इसलिए उससे बचना चाहूंगा। इस पर विचार करना और न समझ में आए तो बताना, मैं तुम्‍हें समझाऊँगा। गो जरूरी नहीं कि तुम समझ ही जाओ।”