Post – 2016-08-02

निदान -9

इस्‍लामी नैतिकता

”मुस्लिम जगत के पिछड़ेपन के और कौन से कारण आप बताना चाहते थे?”

”इस्‍लामी नैतिकता से जुड़े कुछ विधान जिनके चलते वह आधुनिक अर्थतन्‍त्र की चुनौतिकयों का सामना नहीं कर सकता। जीवन को अर्थतन्‍त्र नियन्त्रित करता है, और मुल्‍लाबाद जीवन से अधिक अपनी पकड़ को बनाए रखना चाहता है, इसलिए पिछड़ापन उसके लिए गर्व का विषय बन जाता है। यह समाज आगे बढ़ ही नहीं सकता।”

”मैं आपकी बात समझा नहीं ।”

” सैयद अहमद यह तो चाहते थे कि अपनी आर्थिक प्रगति के लिए मुसलमान भी उद्योग व्‍यापार में भाग लें, परन्‍तु एक ओर वह ब्रितानी हथकंडों के कारण उद्योग से बचना चाहते थे तो दूसरी ओर हिन्‍दू व्‍याप‍ारियों से प्रतिस्‍पर्धा के बिना उन क्षेत्रों में आपूर्ति को हाथ में लेने की सलाह दे रहे थे जिनमें अभी विदेशी पहल थी, जैसे चमड़़े, हड्डी आदि की आपूर्ति। कारण हिन्‍दू व्‍यापारियाें को इससे परहेज था। अंग्रेजों को इसके लिए किसी देसी आपूर्तितन्‍त्र की जरूरत थी, क्‍योंकि यह काम संभालने में उन्‍हें असुविधा होती थी। इसलिए अधिक संभव है यह सुझाव भी उनका ही रहा हो। जिन क्षेत्रों में हिन्‍दू व्‍यापारी घुसे हुए थे उनमें उनके साथ प्रतिस्‍पर्धा में वे टिक न सकते थे। इससे व्‍यापारिक गतिविधियों के लिए एक छोटा सा कोना ही मिल पाता था। मिला भी। जूते वगैरह की दूकानें भी पहले मुस्लिम दूकानदारों के हाथ में हुआ करती थी, यह मैंने अपने बचपन में देखा था।

”इस्‍लाम में बड़े कारोबार के लिए बैंक प्रणाली का विकास नहीं हो सकता था क्‍योंकि जिस मत में व्‍याज को ही वर्जित माना जाता हो उसमें बैकप्रणाली का विकास संभव नहीं। इसके अभाव में कोई किसी को अपना पैसा क्‍यों देगा ? अब अपनी जमा पूंजी का ही सहारा रह जाता है। मध्‍यकालीन ऐश आराम वाली जिन्‍दगी के आदी हो जाने के कारण और, परिश्रम से बचने की आदत के कारण अमीरों के पास भी पूंजी का निर्माण नहीं हो सकता था और अपनी आरामतलबी में खलल डालते हुए वे किसी कारोबार में फंसना भी पसन्‍द नहीं कर सकते थे। इसलिए केवल भारत में ही नहीं, अन्‍य मुस्लिम देशों में भी सूद लेने की मनाही और उसक परिणाम स्‍वरूप बैंक प्रणाली का अभाव मुसलमानों के आर्थिक पिछडेपन एक बहुत बड़ा कारण रहा है। सम़ृद्धदेशों में भी समृद्धि के बावजूद आर्थिक पिछड़ापन।”

”व्‍याज को वर्जित करार देने का कारण क्‍या रहा हो सकता है ?”

”मैं उस दौर के अरबी अर्थतन्‍त्र के बारे में जो रोमन साम्राज्‍य के पतन के बाद या कहें उग्र ईसाइयत के उभार के बाद अरब देशों में रही होगी कोई जानकारी नहीं रखता। यह एक तरह की अराजकता का दौर था इसलिए ईसाई देशों का व्‍यापार तन्‍त्र इससे प्रभावित हुआ। रोम का पूर्वी देशों के साथ होने वाला व्‍यापार तन्‍त्र नष्‍ट हो गया। पर स्थिति कोई भी हो जनता की जरूरते किसी न किसी रूप में पूरी की जाती हैं और अनुमान है कि रोम के व्‍यापार तन्‍त्र के कमजोर पड़ने पर पहल अरबों के हाथ आई और इसमें नये नये मालदार बने परिवारों में समृद्धि के साथ मौजमस्‍ती, नाचगाना, जुआ आदि में परिवारों की बर्वादी के अनुभव आम रहे हो सकते हैं। संभव है लूटपाट के संभावित खतरों के कारण व्‍याज की दर भी इतनी बढ़ गई हो कि उसके कारण बहुत से लोग बर्वाद हो जाते रहे हों। यह सब मेरा अनुमान मात्र है, यह समझने का कि क्‍यों इस्‍लाम में व्‍याज को हराम या वर्जित मान लिया गया। नाच गाने बजाने आदि पर या कहे कलात्‍मक अभिव्‍यक्तियों पर भी रोक लगा दी गई। मूर्तिकला और चित्रकला को तो बढ़ावा मिल ही नहीं सकता है। कला केवल कलात्‍मक लिखावट और ज्‍यामितीय तक्षण तक सीमित रह गई । ये सभी एक दूसरे से जुड़े प्रश्‍न लगते हैं। कम से कम मुझे।”

”बात कुछ समझ में आ रही है।”

”बात को समझने का प्रयत्‍न कीजिए। मेरी जानकारी या व्‍याख्‍या पर भरोसा न कीजिए। इस पर आप लोगों को काम करना चाहिए । आप के संगठन का तो सीधा टकीराव मुसलमान से ही दिखाई देता है। मानिए, दुश्‍मन ही सही। दुश्‍मन की रगों को भी तो जानिए। यह आपने अंग्रेजों से ही सीखा होता कि जिन दिनों वे मुसलमानों को अपना दुश्‍मन नंबर एक मानते थे, उनको सेना में नहीं रखते थे, लगानवसूली का पुराना धंधा भी छीन लिया था, उस समय भी उनकी हर एक चीज का कितनी बारीकी से अध्‍ययन करते रहे और 1858 के क्रूर दमन के बाद भी उनके द्वारा की गई अंग्रेजों की सैकड़ो हत्‍याओं के बावजूद वे उनके दमन के लिए जो भी तरीका अपनाते रहे हो, साथ ही ठंडे दिमाग से उस मानसिकता को समझने का भी प्रयत्‍न करते रहे और इसका परिणाम था कि वे दुश्‍मन को भी दोस्‍त बना सके और जिनके साथ उसकी दोस्ती हो सकती थी उसी के विरोध में उसे खड़ा कर दिया। आप लोग तो बात बात में जय बजरंगबली कह कर छुट्टी कर देते हैं। मैं बहुत सारी बातें अनुमान के आधार पर कहता हूं और इन्‍हें आधिकारिक मानने से अच्‍छा है इस पर सन्‍देह करते हुए स्‍वयं अधिक गहराई से समस्‍या को समझना। बोलने बतियाने में अधपके विचार भी सामने तो आते ही हैं। बस इस सीमा का ध्‍यान रख कर मुझसे बात कीजिए।

”तो मैं कह रहा था मुस्लिम देशों में पूंजीवादी विकास हो नहीं सकता था और साम्‍यवाद जो उनकी सोच के सबसे निकट था उस ओर उनके मुल्‍ले उन्‍हें जाने नहीं दे सकते थे। इसका एक बहुत अच्‍छा उदाहरण अल्‍जीरिया का था जो भी औपनिवेशिक शासन में था पर फ्रेंच की शिक्षा के कारण उसमें एक मध्‍यवर्ग भी पैदा हो चुका था। इसने साम्‍यवादी रास्‍ता अपनाना चाहा पर मुल्‍लातन्‍त्र के कारण वह विफल हो गया
A clear indication of radicalization of the Islamic movement is reflected in an article published in its journal Humanisme Musulman, in 1965, a declaration that was similar to the tatalitarianism of Islamic fundamentalism in Egypt, Syria, and Iran. According to the article, all political parties, all regimes and all leaders who do not base themselves on Islam are illegal.and dangerous. A communist party, a secular party, a Marxist party, a Natinalist party, (the latter putting in question the unity of the Muslim world) can not exist in the land of Islam.

यहां का शासन 1970 में फिर वाम की ओर झुका परन्‍तु उसका उद्देश्‍य थ्‍ाा अब वे दुहरा जिहाद करने जा रहे हैं, पर पता है किसके खिलाफ :
against forces of international athiesm and in Algeria, against the Fracophone Marxist voluntary brigades thaज were leading the agricultural revolution and against the decadent morals of the West.

एक समय था इस्‍लाम ने अपनी पूरी माइथालोजी, पूरा इतिहास, नाम और रीतिरिवाज, त्‍यौहार उसी ईसाइयत से लिए थे क्‍योंकि मुहम्‍मद साहब के उदय समय जो अनेक मतमतान्‍तर अरब देशों में चल रहे थे उनमें सबसे प्रभावशाली ईसाइयत ही थी, और अब उसका सिरे से निषेध ।

मैंने इतने दूर के दृष्‍टान्‍त को इसलिए रखा कि यह बता सकूं कि यत्र यत्र इस्‍लाम: तत्र तत्र मनोबन्‍ध:। राष्‍ट्रीयता के प्रति भी वही रवैया जब कि पूरा देश उन्‍हीं का ।यह न समझें कि इस सोच के पीछे किसी की सोच या किसी तन्‍त्र के कारिन्‍दाें की कारगुजारी नहीं है। मुस्लिम मुल्‍लातन्‍त्र खलीफाओं के दौर में एक प्रबल तन्‍त्र था और आज उस तन्‍त्र को पूंजीवादी अमेरिका ने अपनी मुट्ठी में कर चुका है जिससे उसमें औद्योगिक विकास संभव ही न हो पाए। उसे अपने कठमुल्‍लेपन से बाहर निकलने का रास्‍ता ही न रहे, वह आगे बढ़ने की जगह कई शताब्‍दी पहले की लड़ाई में जुटा रहे। उसके मालोजर पर अमेरिकी कारोबार चले। उसे देख कर छटपटाए पर फिर भी कारगर हथियार और रणनीति विकसित करने की जगह उसके इशारे पर उसको काटने दौड़े ।

”उनके लिए व्‍याज हराम है, बस अपना पैसा सुरक्षित चाहिए, इसलिए बैंक अपना चल नहीं सकता। उसका पैसा अमेरिकी बैंकों में जमा रहे और उसे इसका दुहरा लाभ हो। सारा पैसा दूसरे के घर गाड कर वह उस पर और निर्भर हो जाये, विश्‍व करेंसी पर अमेरिकी कब्‍जा रहे, उसके अपने देश में व्‍याजदर को न्‍यूनतम पर रखने का अवसर बना रहे और अरब देशों के पैसे से ही वह अपने कारोबार का प्रसार कर सके। दूसरे देशों को मानिटरी फंड के माध्‍यम से कर्ज दे कर उस पर व्‍याज कमाए । अपने देश में बैंक दर जितना ही कम, उद्योग धन्‍धों के लिए उतनी ही कर्ज सुलभ।

” इसलिए आतंकवाद को पिछले रास्‍ते से उभारना, मुल्‍लातन्‍त्र को मजबूती देना और शिक्षा आदि में मद्रसों और मकतबों को पिछले दरवाजे से नैतिक समर्थन और भौतिक मदद देना और सउदी अरब जैसे अपने प्रभाव के देशों के माध्‍यम से माध्‍यम से मुल्‍लातन्‍त्र और मस्जिद और नमाज को बढ़ावा देना और तबलीगी मुहिम के माध्‍यम से कट्टरता का प्रसार, मुस्लिम देशों में यह खुशफहमी पैदा करके कि उनका आतंकवाद कल उनको दुनिया पर कब्‍जा जमाने में सहायक होगा, यूरोप उनके डर से थर्रा उठा है, उनके प्रतिभाशाली नौजवानों की प्रतिभा का विनाशकारी उपयोग उसकी योजना का अंग बनाना। इतनी जटिल योजना बनाने की योग्‍यता अभी किसी मुस्लिम देश में आई नहीं है।”

’ जहां तक मैं समझता हूं, मुसलमानों में प्रतिभा की कमी तो नहीं है।‘’ शास्त्री जी ने प्रश्न नहीं किया, अपने विचार का अनुमोदन या निषेध चाहते थे।‘’

‘’प्रतिभा की कमी पिछड़े से पिछड़ देश और समाज में भी नहीं हुआ करती और सच कहें तो आदमी का दिमाग चूहे के दिमाग से कुछ ही कदम आगे है। पर उस प्रतिभा को अपने विकास की सही जमीन मिली है या नहीं। यदि औद्योगिक विकास ही न होगा, आपकी तकनीकी प्रतिभा भी तो दूसरों के उपयोग में आएगी और वह भी यदि उसका अकुंठित विकास हुआ तो। यदि उसे गलत दिशा में मोड़ने वाली ताकतें उसके भीतर ही मजबूत हैं और वे मजबूत बनी रहें इसमें दुनिया की सबसे मजबूत ताकत की दिलचस्पी हो तो वह ध्वंसात्मक दिशा लेगी जिसका वह दुहरा इस्तेमाल करेगा। डरने का नाटक करके, ‘यह मारा, वह मारा,’ करेगा और उसका हौसला बढ़ाएगा और उसके कुकृत्यों को जघन्यतम रूप में विज्ञापित करके उसे इतना बदनाम करके रखेगा कि उसके विरुद्ध कभी जरूरत होने पर क्रूरतम उपाय भी उसे मुक्तिदाता बना देगा, ‘दुष्टदलन रघुनन्‍दन, जगमंगलकारी। जय जगदीश हरे।‘’

”शास्त्री जी अपना सिर खुजलाने लगे । सिर खुजलाने का एक लाभ होता है, यदि कोई विचार भीतर न धंस रहा हो, सिर के ऊपर ही रेंग रहा हो तो सिर खुजलाने से सिर के कुछ पोर खुल जाते हैं और उसे भीतर उतरने में मदद मिलती है। परन्तु उन्हें असली मजा तब आया जब मैंने कहा, ”ये सब महज मेरे खयाल हैं। इनको अधिक गंभीरता से मत लीजिएगा। अपनी आदत है किसी भी विषय पर बोलते चले जाने की। जिसे नहीं जानता उस पर अधिक विश्वास से बोल लेता हूं इसलिए मेरी नजर में एक ही समाधान है, मुस्लिम समाज में एक मुखर और निडर और अपने समाज के हित के लिए कृतसंकल्प बुद्धिजीवीवर्ग का विकास। पर आप मेरी बात मान मत लीजिएगा। नीम हकीम का इलाज खतरा बढ़ाता है, ऐसा मुहावरों में दर्ज है।‘’

शास्त्री जी ने उठने की तैयारी के साथ कहा, ‘’मानना मुझे है नहीं, मेरे मानने से कुछ होना नहीं। जिन्हें मानना चाहिए वे आपको पढ़ेंगे ही नहीं। जय जय जय जय हे।‘’