निदान – 2
इगल्फमेंट सिंड्रोम
”शास्त्री जी, मुझे सबसे अधिक शिकायत आप लोगों की इतिहास की समझ से है। आप इसे शौर्यगान बना कर रख देना चाहते हैंं। अपने शासकों से आपने यह भी नहीं सीखा कि विजय के लिए जितने गहन ऐतिहासकि अध्ययन की जरूरत होती है, आत्मरक्षा और मुक्ति के लिए उससे कम समर्पित और गहन अध्ययन की जरूरत नहीं होती। इतिहास का अध्ययन बहुत जिम्मेदारी का काम है। मात्र इतिहास की शरारतपूर्ण व्याख्या से किसी समाज, समुदाय या जाति के भीतर असुरक्षा या आशंका पैदा की जा सकती है। इसलिए इतिहास को वर्तमान से अलग करके नहीं देखना चाहिए। किसी देश पर भौतिक विजय शस्त्रबल से पाई जाती है और उसकी चेतना पर विजय उसके इतिहास की तोड़ मरोड़ से, इसलिए यदि व्याख्याकार वह हो जो आप पर शासन है, या जो आप पर शासन करना चाहता है, या उस जाति का हो जो अपने को आपसे नस्ली तौर पर श्रेष्ठ सिद्ध करके आपके मनोबल को तोड़ना और गुलामी की भावना को प्रबल बनाना चाहती हो तो उस इतिहास को इतनी सावधानी से और हर इबारत के पीछे की मंशा को भांपते हुए पढ़ना चाहिए। नये सिरे सामग्री जुटा कर अपना इतिहास अपने हितों की सुरक्षा और मानसिक दासता से मुक्ति के लिए लिखना चाहिए। आश्चर्य नहीं है कि आरंभ से ही हमारे राष्ट्रीय चेतना के अग्रणी जनों ने इतिहास को समझने और उस पर लिखने की जरूरत समझी। वह तिलक हों या लाजपत राय, गांधी, नेहरू, अंबेडकर, संपूर्णानन्द, नरंन्द्रदेव। जिन्होंने इतिहास का विधिवत अध्ययन नहीं किया उनकी राजनीतिक समझ में भी गहनता का अभाव मिलेगा।”
”आप उनके इतिहासलेखन से सन्तुष्ट है़? मुझे उनमें कोई बहुत, स्तरीय नहीं लगता।”
”इसलिए कि उसमें शिवा जी आदि को नायक के रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया?”
”डाक्साब, आप मेरी उम्र का तो ध्यान रखा करें। आप मुझसे व्यंग में बात करेंगे तो मै जवाब कैसे दे पाऊँगा। सर की बात दूसरी है, आप लोगों की छनती भी है और ठनती भी।”
शास्त्री जी ने अपने विनय के बावजूद पटकनी तो दे ही दी। मैं संभल गया और कुछ झेंप भरे स्वर में पूछा, ‘आपको उनके इतिहास में क्या कमी दिखाई देती है ?”
”पहली तो यही कि वे सभी उसी अखाड़े में खेल के लगभग उन्हीं नियमों को मानते हुए प्रतिवाद करते या आरोप लगाते हुए या क्षतिपूर्ति का प्रयास करते हुए अपना इतिहास लिखते हैं जो अपने हितों को ध्यान रखते हुए अंग्रेजों ने और दूसरे यूरोपीय विद्वानों ने तैयार किया था। वे बताते रहे कि आर्य आज से साढ़ेतीन हजार साल पहले मध्येशिया से आए तो तिलक कहते हैं कि नहीं, साढ़े तीन हजार नहीं सात हजार साल पहले और मध्येशिया से नहीं, उत्तरी ध्रुव से, पर मान वह भी लेते हैं कि बाहर से आए थे। मैंने मात्र एक दृष्टान्त दिया।”
शास्त्री ने तो मुझे चौंका दिया। इस आदमी की नजर इतनी पैनी है यह तो सोचा ही नहीं था।
”आप ठीक कहते हैं। हमने न अपने इतिहास के स्रोतों की खोज की, न उनका सही प्रतिवाद कर सके, न ही उन विषबीजों को निर्मूल करने की दिशा में कोई काम कर सके। सच तो यह है कि हमने उन विषबीजों काे सींच कर पेड़ उगा लिए और उनके फलों का कारोबार करते रहे।
”उन्होंने सिद्ध किया कि तनिक भी शिथिलता बरती जाय, प्रेम दिखाया जाय तो हिन्दू धीरे धीरे पूरी की पूरी कौम को सीधे हिन्दू बना लेते हैं। इसके दो पाठ बने एक हिन्दुओं के लिए मिथ्या आत्मतोष का कि हमारी मूल्य प्रणाली इतनी श्रेष्ठ है कि इससे परिचित होने के बाद दूसरे सभी हिन्दू मूल्यों और रीतियों को अपना लेते हैं और दूसरा मुसलमानों के लिए दहशत का कि यदि किसी तरह की उदारता या रियायत से काम लिया, अपिक प्रेम बढ़ाया तो तुम्हें भी हजम कर जाएंगे, इसलिए अगर अपने अस्तित्व की रक्षा चाहते हो तो मिल कर नहीं, तन कर रहो और लगाव नहीं अलगाव की तरकीबें ईजाद करो। मुझे इकबाल की उन पंक्तियां भी इसी से प्रेरित लगती हैं, ”न संभलोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्तां वालो, तुम्हारी दास्तांं तक भी न होगी दास्तानों में।” इसे लैंग ने इनगल्फमेंट सिंड्रोम की संज्ञा दी है।
”भारतीय मुसलमानों पर उनकी कौन सी पुस्तक है जिसका उल्लेख कर रहे हैं आप। कहां से पढ़ने को मिलेगी।”
उन्होंने भारतीय मुसलमानों या हिन्दुओं पर या यूराेप के ईसाइयों पर कुछ नहीं लिखा है। उनकी पुस्तक है दि डिवाइडेड सेल्फ । यह प्रेम की व्याख्या है। यदि कोई किसी दूसरे से अपेक्षा से अधिक प्यार करने लगे, उनका अपेक्षा से अधिक ध्यान रखने लगे, अपनापा दिखाने लगे तो व्यक्ति को अपनी अस्मिता का संकट अनुभव होने लगता है। वह अपनी रक्षा के लिए इस प्यार के अनुपात में ही दूरी बढ़ाने लगता है। इसके उग्र हो जाने पर उसे लगता है वह मुझे खा जाएगा। यह मानसिक असंतुलन और छिन्न मनस्कता का रूप ले लेता है। हिन्दू यदि मुसलमानों से अधिक लाड़ दिखाए तो उन्हें वह इतिहास याद आने लगता है जो अंग्रेज व्याख्याकारों ने समझाया था। इसीलिए मैंने कहा था, गांधी का ईश्वर अल्ला तेरे नाम भी उनमें बेचैनी पैदा करता था।
”हिन्दू समाज के विषय में यह दुष्प्रचार है। हिन्दू किसी को अपने में मिलाता नहीं उल्टे दूर भगाता है। वह उसको भी अपनाने को तैयार नहीं था जो उसके ही घर परिवार का था और एक बार किसी चूक, दबाव या अन्याय से विधर्मी हो गया। उसका एक जवाब है कि भाई तुम अपने ढंग से रहो, हमारे नजदीक मत आओ। हमारी पवित्रता भंग हो जाएगी। हिन्दू नाम का कोई समुदाय नहीं है जिसमें कोई मंत्र पढ़ कर किसी को शामिल कर लिया जाए । आर्य समाजियों ने कलमा की तर्ज पर गायत्री मंत्र को शुद्धि मंत्र बनाया तो पर चला नहीं। हिन्दू बनने के लिए दूसरों को स्वयं अलग रहो अलग रहो सुनने के बाद भी किसी जाति में होने का दावा करना पड़ता है, लंबे प्रयत्न के बाद उस जाति वालों से रिश्ता नाता जुड़ता है और फिर तो यदि उस जाति का हो गया तो हिन्दू हो गया। यही विदेशी आक्रमणकारियों को करना पड़ा, परन्तु जो अपने धर्म, विश्वास और रीति नीति से रहना चाहे उसकी निजता या पाकदामनी पर हिन्दू की ओर से कोई आंच नहीं आने वाली। इसी के कारण लाखों यहूदी भारत में लंबे समय तक रहे, आज भी होगे, और उनके मत विश्वास पर कोई आंच न आई। पारसी अपनी मान्यताओं के साथ, धर्म विश्वास के मामले में बिल्कुल अलग और अन्य सभी मामलों में पक्के भारतीय बने रहे और आज भी हैं।”
” इस पक्ष की ओर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया था।” शास्त्री जी ने स्वीकार किया।
”आपका ही नहीं, मेरा स्वयं का ध्यान इस पहलू की ओर आज से पहले नहीं गया था और मानता रहा कि अंग्रेजो की व्याख्या सच है। आठ दस साल पहले नामवर जी से बात हो रही थी तो उन्होंने लोठार लुत्से के इसी कथन को दुहराते हुए इसकी पुष्टि की थी कि हिन्दू व्यक्तियों का धर्मान्तरण नहीं करता, पूरी कौम को आत्मसात कर लेता है। वही निगल जाने वाली बात और उस समय मुझे भी यह ठीक लगा था। इसीलिए कहा, उन्होंने इसे प्रचारित ही नहीं किया अपनी ज्ञानव्यवस्था में भी शामिल कर लिया, पर विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि यह गलत है। जो अपने धर्म और विश्वास के साथ रहना चाहे उसके लिए हिन्दू समाज जैसा सुरक्षित कोई समाज नहीं मिलेगा। वह एक ही जरूरी शर्त है कि उसे अलग रहने की आदत डालनी होगी क्योंकि हिन्दू किसी को मिलाता नहीं। यह हिन्दू मुसलिम सिख इसाई सब आपस में भाई भाई जैसा गाना भी स्वतन्त्रता आंदोलन से सभी को जोड़ने और अंग्रेजों द्वारा फैलाए गए विद्वेष को कम करने के लिए लगता रहा परन्तु इसका परिणाम उल्टा रहा। जितना ही प्रेमगान गाया उतना ही अलगाव बढ़ा। इसलिए मुसलमान की आशंका को आप मेल जोल बढ़ा कर कम नहीं कर सकते। सुरक्षित दूरी रख कर, अलग रख कर ही सहयोगी बना सकते हैं। ”
”यह विचित्र गणित है अलगाव और सहयोग, जैसे ऋण और धन साथ।”
”गणित में भी ऋण ऋण धन हो जाता है। समाज में भी अपनी निजता और पृथकता की रक्षा करते हुए साथ काम किया जाता है और इसे समझ लें तो अधिक भरोसे विश्वास के साथ किया जा सकता है। इन्गल्फमेंट सिंड्रोम का सबसे अधिक नुकसान मुसलमानों को ही हुआ। अपनी दूरी बनाए रखने के लिए उस भाषा को जिसका आरंभ्ा उन्होंने किया था, अरबी-फारसी बोझिल बना कर बोलचाल से इतनी दूर कर दिया कि वह चन्द अमीर घरानों में सिमट कर रह गई। वे सोचते रहे यह शरीफों की भाषा है।”
शास्त्री जी अपने को रोक न पाए, ” हम तो देवताओं की भाषा की सीमा जानते हैं जिसे सयानों ने खारा कुप जल कह कर जन भाषा को बहता नीर बताया।”
”ठीक कहा आपने। इसी तरह अरबी लिपि पर इतना एक तरफा जोर देते रहे कि यदि नागरी का भी प्रयोग होने लगा तो इसे हिन्दू सांप्रदायिकता का प्रमाण मान लिया। जब कि उर्दू भारतीय आर्यभाषाओं में से एक है यह बात बाबा-ए-उर्दू अब्दुल हक कवायदे उर्दू में समझा चुके थे और उसके लिए अरबी लिपि और उच्चारण की शुद्धता पर अधिक जोर अवैज्ञानिक है यह पाकिस्तानी भाषाविज्ञानी तारिक रहमान को समझाना पड़ा । परन्तु हम चाहेगे वे जितनी कठिन भाषा, अपाठ्य लिपि जैसे शिकस्ता, अपनायें, यह उनका चुनाव है। हमें उसमें कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए। रीति विश्वास से ले कर खानपान तक। सहअस्तित्व की सम्मानजनक शर्त यही है। मुसलमान क्या खाएगा, यह मीनू हिन्दू को तय नहीं करना चाहिए। न यह अधिकार मुसलमान को हो सकता है कि वह हिन्दू का मीनू तैयार करे।” ‘
शास्त्री जी कुछ बेचैन अनुभव करने लगे। ”अब हम माइनारिटी सिंड्रोम को समझ सकते हैं। पर आज आज नहीं ।”