Post – 2016-07-25

रचना प्रक्रिया

कल की अपनी पोस्ट लिखने के साथ अन्‍तर्यामी ने जो रची वह एक दर्पोक्ति थी, पर थी कमाल की:
मैं भी देखूंगा बुलन्दी तेरे सैयारे की
बहुत मुमकिन है वह मेरे करीब आ पहुंचे ।।
२४ जुलाई २०१६

फिर सोचा यह तो बड़बोला पन हो गया पर अवचेतन का क्या करें, क्षतिपूर्ति के आयोजन वही करता है और अनुपात का ध्यान होता तो क्या अवचेतन रहता। इस सोच के साथ मन डांवाडोल हो गया और हकीकत का एक पहलू उभर आया। उसे भी दर्ज कर लिया:
कल कहा आप की खिदमत में पेश होना है
आज घर आए कहा अपना इन्तजाम करो।
२४ जुलाई २०१६

समय था, दूसरों की डाक और प्रतिक्रियाएं टटोलने लगा तो फिर एक दबाव और उसे भी टांका और उसमें कुछ जोड़ा भी:

निदान है भी कहीं या कि कहीं है ही नहीं
जिस जमीं पर हूं वहां आसमान है ही नहीं।

मरीज कहते हैं इस मर्ज से है प्यार मुझे
अपनी बीमारी का अन्‍दाज उन्हें है ही नहीं।

”मेरी हस्ती को ही बीमारी समझते हो जनाब
”आप की मानें तो कल तक थे, आज हैं ही नहीं।

”बुरा हो उनका, बुरा कहते थे जो लोग हमे
दुरुस्त थे, दुरुस्त हैं, दुरुस्त हैं भी नहीं ।

”जैसे को तैसा नहीं, तैसा और तैश के साथ
”यह न्याय होना है, होगा भी, अभी है ही नहीं।

लाेग कहते हैं कि भगवान से उम्मीद न कर
कल तक वह था, मगर देख्‍ाो तो आज है ही नहीं।

‘दुअा करो सही जन्नत नसीब हो उसको’
‘पता दोजख का है, जन्नत का पता है ही नहीं ।’

तेरी किस्मत में जो था मान ले पाया तूने
मान लूंं? जो हिसाब में था, यहां है ही नहीं।
२४ जुलाई २०१६