Post – 2016-07-24

निदान -1

“शास्‍त्री जी, आपको पता है संघ की योजना और इसके संगठन के बारे में मेरी अच्‍छी राय नहीं है।”

”कारण बताएं तो मैं भी अपना अहोभाग्‍य समझूं।” शास्‍त्री जी ने अपना आदर भाव कम किए बिना किंचित् व्‍यंग्‍य भरे तेवर में प्रतिवाद किया।

”हमारे देश से, हमारे विचारों से, ग्रन्‍थों से परिचित होने से पहले पश्चिम के लोग धर्म प्रचार तक के लिए हिंसा और केवल हिंसा का सहारा लिया करते थे। विचारों से दुनिया बदली जा सकती है, विचार भी एक शक्ति है जाे अधिक मारक है, इसका उन्‍हें पता नहीं था, इसलिए फ्रांस की क्रान्तियां हों या सोवियत संघ की उनमें जितना रक्‍तपात हुआ उतना परिवर्तन नहीं। चीन पूरब का देश था इसलिए इसमें हिंसा कम हुई पर दर्शन हिंसा वाला ही रहे तो पूरब पश्चिम क्‍या करेगा। भारतीय संपर्क में आने के बाद सबसे पहले पुर्तगालियों को अपने क्रूर और उत्‍पीड़नकारी हथकंडों को त्‍यागना पड़ा और उसके बाद सभी ने अल्‍पतम हिंसा और अधिकतम कूटनीतिक चातुरी से उन्‍हीं लक्ष्‍यों को पाने का रास्‍ता अपनाया। यह भारतीय नीतिकारों से परिचय के बाद हुआ और यह परिचय मेरी समझ से सबसे पहले पंचतन्‍त्र से आरंंभ हुआ, और धीरे धीरे वे कौटिल्‍य तक पहुंचे और बहुत चतुराई से दूसरी स्‍मृतियों को जो गुप्‍त काल में मान्‍य थीं उनको किनारे डाल कर मनुस्‍मृति काे हिन्‍दुओं की मान्‍य स्‍मृति बनाया जिसे भारतीय न्‍यायप्रणाली को गर्हित सिद्ध करने के लिए जेन्टू Gentoo Codeकोड के रूप में किसी ने अनुवाद किया था। ये बातें आप जानते होंगे, मैं केवल अपना पक्ष रखने के लिए आप को इनकी मात्र याद दिला रहा हूं। यह याद दिला रहा हूं कि जिस देश में धन और बाहुबल के अभाव में भी बौद्धिक जगत पर ब्राह्मणों ने नियन्‍त्रण रखा हो, जिसमें बच्‍चों तक को खरहे और शेर की कहानी से सिखाया जाता रहा हो कि बुद्धिर्यस्‍य बलं तस्‍य, उसे आपके संगठन ने भुला दिया और पश्चिम के लोगों ने अपना लिया। बुद्धि और कूटनीतिक तरीके, विचारों से दुनिया बदलने के तरीके हमारे पास थे उसे उन्‍होंने अपना लिया, कोई बात नहीं, दुखद यह कि आप ने उसे छोड़ दिया और उनके बाहुबल वाला हथियार ले कर शक्तिशाली बनने का सपना देखने लगे। अध्‍ययन, चिन्‍तन, विचार-‍विमर्श को आपके संगठन में सबसे अधिक हतोत्‍साहित किया जाता रहा। हथियार को ही कारगर मानने वाले कम्‍युनिस्‍टों तक ने स्‍टडी सर्कल आदि चलाते हुए, विचार विमर्श को महत्‍व देते हुए शिक्षित समाज को नये ढंग से शिक्षित करना आरंभ किया जब कि आप उनको लाठी भांजना सिखाते रहे जिसका जीवन में कभी उपयोग किया ही नहीं। कम्‍युनिस्‍टों ने इसका भी उपयोग आप से अधिक कुशलता से किया और सच कहें तो इसका नुकसान भी झेला। अनुशासन पर सबसे अधिक बल देने वाले इन दोनों विचारधाओं को मैं मूर्खता का जनक मानता हूं परन्‍तु आप लोगाें को उनका बड़ा भाई, गो पैदा एक ही सन में हुए। प्रचारतन्‍त्र का जितनी कुशलता से और जितने प्रभावशाली ढंग से पश्चिमी जगत ने प्रयोग किया है, वह ब्राह्मणों के प्रचारतन्‍त्र से बहुत बड़ा, बहुत प्रभावशाली है, यह देखते हुए भी दोनों ने कभी इसके महत्‍व को समझा ही नहीं। वे तो निश्चित रूप से और आप लोग भी प्रच्‍छन्‍न रूप से वैचारिक स्‍वतन्‍त्रता के विरोधी रहे जो एक उन्‍नत प्रचार तन्‍त्र की बुनियादी शर्त है।”

”डाक्‍साब, अब मैं आपसे क्‍या कह सकता हूं परन्‍तु यदि यही आपका निर्विषीकरण है तो आप तो मुझे अपमानित करके मेरे मन को विषाक्‍त न भी सही, खट्टा तो कर ही रहे हैं।”

”मेरा ऐसा इरादा नहीं था और आपको तो मैं इतना सम्‍मान देता हूं कि सोचता हूं जब कभी किसी प्रसंग में दुविधा या संदेह पैदा हो तो आप से शंकानिवारण कर लिया करूं, फिर भी मैं आपकाे शाक ट्रीटमेंट से अपनी आगे की बातों को अधिक ध्‍यान से सुनने के लिए तो तैयार कर ही रहा था।”

शास्‍त्री जी इस बार कुछ बोले नहीं। अधिक दत्‍तचित्‍त अवश्‍य हो गए।

”आप जरा चाणक्‍य को फिर से पढ़िए और इस बात पर ध्‍यान दीजिए कि किसी शत्रु या स्‍वतंत्र राज्‍य में विक्षोभ पैदा करने के लिए, वहां से सूचना जुटाने के लिए, उसके बुद्धिजीवियों को सम्‍मानित करके शेष में क्षोभ पैदा करके यह दिखाने के लिए कि उनकी सच्‍ची कद्र वह राजा ही कर सकता है, उसमें विष प्रचार और अफवाह फैलाने के लिए जो भी तरीके चाणक्‍य ने सुझाए हैं ठीक उन्‍हीं का अधिक परिष्‍कार करते हुए अधिक बड़े पैमाने पर पश्चिम अपनी सत्‍ता सुदृढ करने और अपना वर्चस्‍व कायम रखने के लिए करता जा रहा है और आपने, आपसे मेरा मतलब है हम सबने, उनमें से किसी का सहारा लेना तो दूर उनको भुलाने को आधुनिकता का पर्याय मान लिया और उनसे भी कपड़े उतारना और लिंचिंग और दंगे तो सीखे, जो उनको ही क्षति पहुंचाते हैं, परन्‍तु इन परिमार्जित पद्धतियों को जिनकी नींव आपकी थी, जिनकी सबसे अधिक जरूरत आपको थी, अपनाने की जरूरत ही नहीं समझी। पहली बार मोदी ने इसके महत्‍व को समझा पर यह भी हवा में नहीं होती और उस ओर हम गए तो विषयान्‍तर हो जाएगा, लेकिन यदि आप अपने समाज को जिसमें सभी आते हैं उस विष के प्रभाव से मुक्‍त करना चाहते हैं तो उसकी कुछ शर्तें हैं।”

मुझे आशा थी कि इस बार तो शास्‍त्री जी पुछेंगे ही कि वे शर्ते क्‍या हैं, परन्‍तु वह कुछ बोले नहीं, न ही उनकी एकाग्रता भंग हुई ।

”पहली तो यह कि हम यह न सोचें कि उपाय सुझाते ही विष उतर आएगा। प्रभाव गहरा हो तो विषाक्‍त व्‍यक्ति या समाज को मरने से बचाया नहीं जा सकता, जहां बचाया जा सकता है वहां भी जरूरी नहीं कि उसे पूरी तरह निर्विष किया जा सके, जहर का कुछ असर उस पर बाकी न रह जाय या इसके कारण उसके मार्मिक अंगों में जो क्षति हो चुकी है उसे ठीक ही किया जा सके । इसलिए उपचार का प्रयत्‍न जरूरी है, परिणाम सदा अनिश्चित ही रहते हैं।

”दूसरी बात यह कि विष प्रचार में, जहर देने या मिलाने में एक पल का समय लगता है, परन्‍तु इसके निदान से ले कर उपचार तक में लंबा समय लगता है इसलिए धैर्य रखना जरूरी है और अनुकूल परिणाम न आने पर उससे प्रभावित व्‍यक्ति को दोष दे कर छुट्टी पा जाना सही तरीका नहीं है।

”तीसरे विष के कुछ रूप ऐसे होते हैं जिनका शिकार तत्‍काल मरता नहीं, और उसकी मादकता का आनन्‍द लेने लगता है, क्‍योंकि यह हमें अपने चारों ओर के नीरस जगत से एक अन्‍य लोक में पहुंचा देता है, जो उन ड्रग्‍स के मामले में होता है जिसके भुक्‍तभोगी को स्‍वयं उसकी लत लग जाती है। उसे छोड़ने पर बेचैनी इतनी प्रबल हो जाती है कि व्‍यक्ति उसे झेल नहीं पाता, इसलिए यह जानते हुए भी कि उसका जीवन व्‍यर्थ हो चुका है और मृत्‍यु निकट से निकटतर आ रही है, वह उसे छोड़ने को तैयार नहीं होता। यहां निर्विषीकरण का प्रयास बहुत लंबा और जटिल हो जाता है। इसके मामले में धैर्य न खोना, प्रयत्‍न में लगे रहना और कुछ गहन उपायों के लिए तैयार रहना चाहिए, भले शतप्रतिशत सफलता की आशा न हो। जितनों को ही उबारा जा सका वही बहुत बड़ा लाभ।

”यह तो रही द्रव्‍य रूप विष या विषवत पदार्थो के प्रभाव में आने की बात। मन को विषाक्‍त करने के लिए जिन उपायों का सहारा लिया जाता है, वे जहां तक मेरी नजर में आते हैं अब बताता हूं:

१. इतिहास की ऐसी व्‍याख्‍या जिससे पारस्‍परिक अविश्‍वास और घृणा का विस्‍तार हो। दुर्भाग्‍य से इसका सहारा औपनिविेशिक काल की तुलना में स्‍वतन्‍त्र भारत में अपने को पेशेवर इतिहासकार कहने वालों द्वारा अधिक निर्लज्‍जता से लिया गया क्‍योंकि बांटो और राज करो कि जिस नीति पर विदेशी शासक चले थे, उसकी तुलना में अधिक जघन्‍य, अधिक गर्हित रूप में समाज को बांटने और पारस्परिक घृणा फैलाने का काम वोटबैंक बनाने की होड़ में किया गया और किया जा रहा है।

2. धार्मिक या जातीय श्रेष्‍ठताबोध को उभार कर, जिसके कारण ऐसा व्‍यक्ति और समुदाय दूसरे धर्मों या जातियों के लोगों को अपने से हेय समझने लगता है और मन की खटास बढ़ती जाती है। इस श्रेष्‍ठताबोध के शिकार भी ऊँचे आदर्शों की दुहाई देते हैं, परन्‍तु मिल जुल कर रहने की उनकी शर्त होती है कि उनकी श्रेष्‍ठता को मान कर शान्तिपूर्वक उनके नेतृत्‍व में आगे बढ़ा जाय और उनकी श्रेष्‍ठता को सनातन बनाए रखा जाय।

३. शिक्षा के माध्‍यम से या शिक्षा संस्‍थाओं का चरित्र और सरोकार बदल कर।

4ृ यदि सत्‍ता पर अधिकार है तो सत्तालभ्‍य अवसरों और अधिकारों का शतरंज की गोटों की तरह इस्‍तेमाल करके ।

5. हितैषी का नाटक करते हुए व्‍यक्तिगत संपर्क के माध्‍यम से कान भरने का काम।

“यह तो हुआ वह मोटा खाका जिसे हमें समझते हुए यह देखना होगा कि उन्‍होंने इनका कितनी सफलता और विफलता से प्रयोग किया और आज भी कैसे किया जा रहा है। फिर हम देखेंगे विष का कितना असर किन किन रूपों में हो चुका है और हमारे अपने विश्‍लेषण के क्‍या तरीके हो सकते हैं, क्‍योंकि हथियार के रूप में एक बौद्धिक के पास केवल यही होता है। पर आज तो लगता है आपको नींद सी आ रही है।”