Post – 2016-07-23

जो जाहिल है उनको परिवार कम रखने के ही नहीं बच्‍चों को स्‍वस्‍थ रखने तक के आयोजनों से यह कर दूर रखा जाता है कि पोलियो, टिटनस आदि के ड्राप्‍स देने से वह आगे चल कर नपुंसक हो जायगा, इसलिए इससे बचाओ। जो मिली जुली संस्‍कृति के हामी उनके बीच ऐतिहासिक और सांस्‍कृतिक कारणों से बचे रह गए हैं उन्‍हें कट्रर बनाने का अभियान जारी है, यह जाली टोपी मात्र टोपी नहीं है, यह कट्ररता की घोषणा है।”

मैंने शास्‍त्री जी को बीच में ही टोक दिया, ”जैसे कोई चंदन टीका लगा कर अपने को पक्‍का हिन्‍दू या कहिए पक्‍का ब्राहमण होने की घोषणा करता है।”

”आप ठीक कहते हैं, या शायद ठीक नहीं भी कह रहे हों, क्‍योंकि यह पेशे से जुड़ा माजरा अधिक है, यह कि मैं पक्‍का, परंपरावादी, धर्मकर्म जानने वाला ब्राह्मण हूं, यदि आपको पूजा पाठ की आवश्‍यकता हो तो मेरी सेवाएं लें। परन्‍तु जाली टोपी मुसलमानों में भी एक नई प्रवृत्ति है और एक भिन्‍न संदेश देने वाली है।”

”कुछ वैसी ही जैसी एक बार आपके नेताओं में से कुछ ने कहा था, ‘गर्व से कहो मैं हिन्‍दू हूं। और कोई यह कहता चले तो उसे लोग पागल समझेंगे इस‍लिए उनका मतलव हिन्‍दू प्रतीकों को अपनाओ, चोटी तिलक की अपनाओ।”

”हां यह ठीक है और यही हिन्‍दू और मुस्लिम समुदाय का अन्‍तर है। उनकी इस खुली घोषणा के बाद भी हिन्‍दुओं ने उनकी बात नहीं मानी, और यहां चुप चुप ही यह प्रवृत्ति तेजी से फैली है। मैं इसे पहचान तो सकता हूं और इससे आतंकित भी अनुभव कर सकता हूं क्‍योंकि आप जैसे लोग भी इन सवालों पर उनके साथ खड़े हो जाते है, दूसरों की तो बात ही अलग। हमारे करने को कुछ रहता नहीं, करना तो उन्‍हें ही है और जो कर रहे हैं वह उल्‍टा है।”

”करने के नाम पर पहला काम तो आप यह कर सकते हैं कि इन सवालों को ले कर हंगामा मचाना छोडि़ए, इसलिए नहीं कि यह प्रवृत्ति सही है, बल्कि इसलिए कि आप के हंगामे से इस प्रवृत्ति के बढ़ने में सहायता मिलती है। आप ठीक कहते हैं कि मेरे जैसे लोग भी आप के हंगामे को गलत कहते हैं और इससे उनको परोक्ष समर्थन मिलता है कि वे जो कर रहे हैं ठीक है, उनकी आलोचना करने वाले गलत है। उनकी विवशता है, वे आपके हंगामे का साथ नहीं दे सकते क्‍योंकि इससे अकारण तनाव और बवाल पैदा होता है। देखिए, आज मुस्लिम समाज में एक नये सैयद अहमद की जरूरत है। वह नहीं हैं तो उनके बुद्धिजीवियों में से किसी को बनना होगा। सैयद अहमद बहुत बड़े नेता हैं और कुछ अन्‍तर्विरोधों वाले नेता भी, उनकी चिन्‍ता का केन्‍द्र है मुसलमानोंं का हित और इस हित के लिए उन्‍होंने न केवल शिक्षा पद्धति में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया अपितु कुरान की भी ऐसी व्‍याख्‍या आरंभ की जिससे इसकी आयतों का मानवतावादी और तर्कसंगत आशय लिया और अवैज्ञानिक धारणाओं को खारिज किया जा सके। उन्‍होंने 1889 में तफसीर का लेखन आरंभ किया जो लिखने के साथ ही प्रकाशित भी होता रहा। इस पर मुल्‍लाओं ने और कुछ दूसरे विद्वानों ने बहुत हंगामा मचाया जिस पर मौलाना हाली ने एक फिकरा कसा था, ”तुम्‍हारी बातें ही बातें हैं अहमद काम करता है।” मुझे तफसीर अगर मिल भी जाए तो जितनी उर्दू जानता हूं उसमें कुछ पल्‍ले शायद ही पडं, पर अंग्रेजी माध्‍यम से जो सुलभ है उसमें संभवत: आमुख के रूप में जो कुछ लिखा था उसका एक अंश यूं है:
there could be nothing in the Qur’ân that is against the principles on which nature works… as far as the supernatural is concerned, I state it clearly that they are impossible, just like it is impossible for the Word of God to be false… I know that some of my brothers would be angry to [read this] and they would present verses of the Qur’ân that mention miracles and supernatural events but we will listen to them without annoyance and ask: could there could not be another meaning of these verses that is consonant with Arabic idiom and the Qur’ânic usage? And if they could prove that it is not possible, then we will accept that our principle is wrong… but until they do so, we will insist that God does not do anything that is against the principles of nature that He has Himself established.
तो एक तो हमें ऐसे मुस्लिम बुद्धिजीवियों का सम्‍मान करना चाहिए जो इस कट्टरता के बरख्‍श खड़े हो कर एक आधुनिक सोच वाला मुस्लिम समुदाय की चिन्‍ता रखते है और समाज को मध्‍यकाल में वापस ले जाने या बांध कर रखने वालों के खिलाफ मोर्चा संभालते हैं।”

”जैसे सलमान रश्‍दी।” शास्‍त्री जी अपने को रोक न पाए।

”नहीं, रश्‍दी नहीं, रश्‍दी नहीं। वह तो पश्चिमी दुनिया का काम करता है। अपनी कौम की तौहीन करके, उसके समादृत व्‍यक्तियों को गर्हित दिखा कर आप कुरान के अन्‍तर्विरोधों की ओर भी उससे बंधे समाज में आत्‍मालोचन का भाव नहीं पैदा कर सकते। तसलीमा नसरीन अवश्‍य उनसे सोच और समझ के स्‍तर पर बड़ी है, और अपने प्रयोजन को देखते शिल्‍प के स्‍तर पर भी। रश्‍दी शैलीवादी हैे और उनकी शैली थकान पैदा करती है। देखिए, आप ने मुझे भटका दिया। मैं बौद्धिक नेत़त्‍व की बात कर रहा था और हां हाली के जुमले को दुहराते हुए आप लोगों से कहना चाहता हूें कि आपकी बातें ही बातें हैं और पश्चिम काम करता है और इतने दबे दबे करता है कि खटका तक नहीं होता और नतीजा दिखाई देता है। तो आप करने के नाम पर स्‍वयं वाणी पर नियंत्रण कर सकते हैं और अध्‍ययन और चिन्‍तन कर सकते हैं जिसे आपके यहां अनुशासनप्रियता के नाते हतोत्‍साहित किया जा सकता है और भारतीय इतिहास और संस्‍क़ति पर बात करना बंद कर सकते हैं क्‍योंकि उसकी समझ आप लोगों की बहुत उथली, गलत और भ्रामक तो है ही समाज के लिए अनर्थकारी भी।”

”डाक्‍साब, कभी कभी आपकी बातें सुन कर हैरानी होती है कि यह आप कह रहे हैं।”

”बतलाइये, बात क्‍या है।”

”एक बात हो तो कहूं, आप तो एक ओर हमारी जबान बन्‍द कर देना चाहते हैं।