Post – 2016-07-22

इस गांठ को खोलो तो नई गांठ बने है।
है पेश एक पेंच हर एक पेंच के आगे।।
”डाक्‍साब, आप जब कुछ कहते हैं, या सलाह देते हैं तो मैं कुछ बोल नहीं पाता, परन्‍तु हम विश्‍लेषण करते हैं, या मनोचिकित्‍सक जब मूल कारण की पहचान कर लेता है और रोगी को बता भी दे तो भी उसे उससे मुक्‍त होने में काफी लंबा समय लगता है और डिप्रेशन का दुबारा दौरा पडने की संभावना बनी रहती है। विश्‍लेषण गणित के सवाल हल करने की तरह हैं, परन्‍तु गणित की वे ही समस्‍याएं सामाजिक स्‍तर पर हल हो कर भी हल नहीं हो पातीं। आप कहते हैं तो लगता है कि यह तो किसी के भी समझ में आ जाएगा। लो किया और हुआ। पर होता नहीं है या होता उल्‍टा भी है।”
”आप यह भूमिका किस चीज की बना रहे हैं, मैं नहीं समझ पाया।”
”भूमिका नहीं बना रहा हूं, अपना अनुभव बता रहा था। हमारे बौद्धिकों में प्रश्‍न करने और असहमत होने की पूरी छूट है। कम से कम मैं जिस शाखा का प्रमुख हूं उसमें ऐसा ही होता है। उसमें आने वाले कुछ लोग काफी पढ़े लिखे हैं। यहां का परिवेश ही ऐसा है। मैंने जब आपका आदेश मानते हुए कल अपनी ही बात को समझाते हुए कहा और सुझाया कि हमें मुस्लिम विरोध से हट कर असली शत्रु को पहचानना चाहिए जो हम दोनों का ही नहीं आज तो विश्‍वशान्ति का शत्रु है क्‍योंकि उसके पास अपना कहने को केवल आयुध निर्माण का काम है। उपभोक्‍ता वस्‍तुओं का ठेका उसने कम्‍युनिस्‍टों को पूंजीवादी राह पर लाने के लिए उन्‍हें दे रखा है, इसलिए वह अपना माल बेचने के लिए हितैषी बन कर भी हमें भड़काएगा और आपस में लड़ाता और अपने लिए जगह खाली कराने के लिए भी हमें मिटाने की योजनाओं पर काम करता रहेगा, इसलिए सभी को मिल जुट कर उस बडे़ दुश्‍मन से लड़ना चाहिए, आपस के झगड़े उसके बाद हम स्‍वयं निबटा लेंगे।’ तो जानते हैं एक सज्‍जन से क्‍या सुनने को मिला। उन्‍होंने आप की ही कही बात काे दुहराते हुए कि “कोई भी एक घटना या परिघटना असंख्‍य द़ृश्‍य अदृश्‍य कारकों का संगम होता है जिनमें कुछ को तो हम जानते तक नहीं और कुछ की जानते हुए अवज्ञा कर जाते हैं और इन घटकों में से किसी एक के घटने या बढ़ने से उसका चरित्र तो बदलता है, पूरा समाधान नहीं मिल जाता।” मुझे सुनाकर यह समझाने लगे कि यह एक खयाली पुलाव है। आप कैसे सोचते हैं कि आपके बदलने से दूसरा भी बदल जाएगा।
उन्‍होंने पिछले दौर के वाजपेयी शासन का हवाला देते हुए कहा, ‘यह सभी मानते हैं कि उनका शासन हिन्‍दू मुसलिम सबके लिए पहले के शासनों से कुछ अच्‍छा ही था। पाकिस्‍तान से भी उन्‍होंने रिश्‍ते सुधारने के प्रयत्‍न किए। परन्‍तु सत्‍ता के भूखे, वोट बैंक के लिए जाति धर्म की राजनीति करने वालों के दुष्‍प्रचार के प्रभाव को उनका अपना काम और नीतियों का बदलाव कम कर पाया? मोदी जी लगातार सबके साथ और सबके विकास की बात करते आए हैं, परन्‍तु क्‍या किसी का साथ मिला?’
”शास्‍त्री जी, लगता है आपने भी किताबी विश्‍लेषण और किताबी समाधान हीं तलाशे थे, पर न आपका विश्‍लेषण गलत था न उनकी आपत्ति। पहली बात तो यह है कि हमें सामाजिक और राष्‍ट्रीय समस्‍याओं को राजनीति से अलग रख कर उन पर विचार करना चाहिए। राजनीति में सभी सही होते हैं, कोई अपने को गलत नहीं मानता और इतने सारे लोगों की सही समझ के कारण जो सही होता है उसमें भी नई बुराइयां पैदा हो जाती हैं। जो भी लोग किसी भी विचारधारा से जुड़े होते हैं उन्‍हें आप लाख कोशिश करके भी, व जिसे वे सही मानते आए हैं उससे अलग नहीं कर सकते। उन्‍हीं प्रमाणों की वे ऐसी व्‍याख्‍या करेंगे जिससे लगे कि जब से उस विचारधारा से वे जुड़े तब से आज तक न वे गलत हुए है न कहीं कुछ नया घटित हुआ है। आप बाजपेयी जी या मोदी जी के सही या गलत होने की बात भी मत कीजिए। उनके साथ जो लोग जुड़े होते हैं वे अपनी जगह क्‍या कर गुजरेंगे यह उनके वश में भी नहीं रहता । अकबर मिल्‍लत और दीन इलाही की बात करता था, और उसी के समय में उनका ही एक सिपहसालार टुकड़िया ने जितने मन्दिरों को तोड़ा और हिन्‍दुओं काे सताया उसका हिसाब नहीं। उसी के समय में तुलसीदास हिन्‍दुओं के साथ हो रही गुंडागर्दी का जो चित्र प्रस्‍तुत करते हैं वह किसी अन्‍यायी शासक से भिन्‍न नहीं था। हम जानते हैं कि राजनीतिज्ञों के अच्‍छे या बुरे निर्णयों का समाज पर गहरा असर पड़ता है परन्‍तु एक विचारक की दृष्टि और रचनाकार की सृष्टि का भी असर पड़ता है जो इन कुकृत्‍यों के बावजूद असर डालता है, कई बार सत्‍ता से टकराते हुए असर डालता है गो सत्‍ता से टकराना उसकी जरूरत नहीं, और हां उसका असर अधिक स्‍थायी होता है। अकबर का दौर खत्‍म हो जाता है तब भी तुलसी और कबीर का दौर जारी रहता है और जिस भी पैमाने पर हो समाज को संस्‍कारित करता रहता है। बुद्धिजीवियों को सबसे पहले राजनीति से बाहर आना होगा, शिक्षा संस्‍थानो को राजनीति से बाहर आना होगा। विचारों और संस्‍कारों का क्षेत्र सत्‍ता की कीचड़ से जितना अलग रहेगा उतना ही सत्‍ता के चरित्र को समझने में भी सहायक होगा । राजनीति के प्रवेश के कारण लोग सभी विषयों को राजनीति में रिड्यूस करके उनकी गरिमा और सार्थकता को नष्‍ट कर देते हैं। राजनीति से बाहर रह कर ही इनको भी बचाया जा सकता है।”
”राजनीति से बाहर है कौन ?”
”यही कह रहा हूं कि जो उस दलदल में गिर गए उन्‍होंने उन चीजों का जिनसे वे जुड़े थे और स्‍वयं अपना हाल क्‍या किया। प्रगतिशीलता के नाम पर साहित्‍य का जो राजनीतीकरण आरंभ हुआ उसे सत्‍ता से जुड़कर प्रसाद पाने के कौशल में बदल दिया गया। मध्‍यकाल में दूसरा कोई चारा न होने के कारण कवि और कलाकार दरबारी आश्रय की तलाश में रहते थे परन्‍तु उनमें भी उस स्‍तर की गिरावट नहीं आने पाती थी जो ज्ञान और अधीति के राजनीतिक न्‍यूनीकरण से आई। इसने साहित्‍यकारों और विचारकों काे सभी सुविधाओं के बाद भी कुछ अधिक की तलाश में राजश्रयी बना दिया। में तो चाहूंगा शास्‍त्री जी आप स्‍वयं भी संगठित राजनीति से बाहर आएँ और अपनी प्रतिभा का समाजहित में उपयोग करें। अाप में बहुत संभावनाएं हैंं ।”
जब तक मैं बोलता रहा तब तक शास्‍त्री जी सुनते रहे, जब चुप हुआ तो बोले, ‘मैं अभी अपनी बात पूरी नहीं कर पाया था। इसे कहने में कुछ संकोच भी होता है पर जो सचाई है उसकाे जानेगे ही नहीं तो उसका सामना कैसे करेगे। एक दूसरे सज्‍जन ने जो एक अखबार में हैं, उन्‍होंने कहा, सद्भावना में असावधानी से काम करने के परिणाम उससे कम मूर्खतापूर्ण नहीं होते जो नासमझी में‍ किए कामों के होते हैं। इसलिए तथ्‍य पहले, सद्भावना बाद में। उन्‍होंने तीन चुनौतियां दीं। कहा पता लगाइये:
1. जिन परिस्थितियों में हिन्‍दू मुस्लिम अधिक खुलकर मिलते जुलते हैं, कहिए जिनमें दोनों एक दूसरे से प्‍यार करते हैं, उनमें कितने हिन्‍दू मुसलिम लड़कियों से विवाह करते हैं और कितने मुसलमान हिन्‍दू लड़कियों से। यह सांख्यिकी का मामला है और सांख्यिकी विज्ञानों में भी सबसे विश्‍वसनीय शाखा है। फिर इसके बाद सोचिए इसका कारण क्‍या है और परिणाम क्‍या है।
2. 2011 की जनगणना में बहुत लंबे समय बाद जाति और धर्म आ‍धारित आंकड़े आए हैं, प्रत्‍येक क्षेत्र में जनसंख्‍या में बृद्धि तो हुई ही है, परन्‍तु इनका अनुपात बदला है या नहीं और बदला है तो किस दिशा में और इसके परिणाम क्‍या होंगे?
3. अपने को सेक्‍युलर कहने वालों में हिन्‍दुओं और मुसलमानों का अनुपात क्‍या है। मुस्लिम सेक्‍युलरिस्‍टों में कितने हैं जो अपने मुल्‍लों का विरोध कर सकें, अपनी संस्‍कृति की आलोचना कर सकें, धर्मग्रन्‍थ पर कोई टिप्‍पणी कर सकें और हिन्‍दुओं में कितने हैं जो ऐसा करने से अपने को रोक सकें?
उस सज्‍जन ने मेरे प्रस्‍ताव का उपहास करते हुए कहा, देखिए भाई भाई का नाटक स्‍टेज के लिए तो ठीक है, व्‍यावहारिक जिन्‍दगी में अपनी गुलामी से मुक्ति की लडाई मुस्लिम बुद्धिजीवियों काे लड़नी है। गुलामों से संवाद नहीं हो सकता। संवाद हो तो कोई लाभ नहीं। उनसे मैत्री भी उचित नहीं है। वे किसी अन्‍य की योजना पर काम कर रहे हैं। जिन्‍होंने उनको गुलाम बना रखा है उनसे हम बात करें तो कोई लाभ नहीं । उसका उल्‍टा असर होगा। वे अपनी मिल्कियत छोड़ने की जगह उसकी पकड़ और मजबूत करेंगे। कट्टरता और जड़ता बढ़ाएंगे। इसलिए जो उपदेश आप हमें दे रहे हैं उसे मुस्लिम नौजवानों और विशेषत- बुद्धिजीवियों को दीजिए। उनकी पहल के बिना इस गांठ का फन्‍दा सरक तक नहीं सकता, खुलना तो दूर।”
शास्‍त्री जी चुप हो गए पर मुझे तत्‍काल न सूझा कि मैं अब क्‍या कहूं। यह सांप और सीढ़ी का खेल है पर इसे खेल से आगे तो ले ही जाना होगा। परिणाम की आशा थी हाथ लगे यक्ष प्रश्‍न । प्रश्‍नों से बच कर तो समाधान मिलेगा नहीं।