यह लाचारी सी लाचारी यह मजबूरी सी मजबूरी।
खपा सकता हूं सर लेकिन इन्हें समझा नहीं सकता।
मेरे मित्र ने कल की खीझ उतारते हुए, शास्त्री के आते ही चुटकी ली, ‘शास्त्री जी आप अपनी ही आग से इतने गरम क्यों हो जाते हैं कि भाप की तरह उड़ कर हमारे सामने से गायब हो जाते है।”
शास्त्री जी ने उलट कर दे मारा, ”बरसने के लिए श्रीमान।”
मैंने ताली बजाई तो हंसी में तीनों शामिल हो गए। मित्र ने चारा फेंका, ”मुझे आपकी प्रतिभा को देख कर हैरानी होती है कि आप कहां पहुंच गए। अब भी देर नहीं हुई है। हमारे साथ होते तो इस प्रतिभा के बल पर कहां के कहां पहुंच गए होते। जिन्दगी क्यों खराब करते हैं,, वहां कोई घास नहीं डालने वाला।”
”छोटे मुंह बड़ी बात होगी सर, अाप अपने पर न लें, पर हमें घास खाने की आदत नहीं। हम कबीर साहब की मान कर अपनी रूखी सूखी से ही काम चला लेते हैं और उसी में खुश रहते हैं। हां, सुनने में आता है कि कुछ खास सोच या फेंफड़े का जोर दिखाने वालों को जाने कहां कहां से चारा डाला जा रहा है और नतीजा यह है कि वे चारे के सिवा भी कुछ खाया जाता है, यह तक भूल चुके हैं।”
आज तो कमाल कर दिया शास्त्री तुमने, मैंने ‘जी’ के तकल्लुफ को हटाते हुए कहा, ‘पर यह बताओ कि इतनी समझ रखते हुए आप इतने छोटे दिल के क्यों हो गए है कि हिन्दुओं के हित या अहित से आगे कुछ दीखता ही नहीं और इसीलिए दूसरे आपको संकीर्ण राष्ट्रवादी ही नहीं मानते, खतरनाक भी मानते हैं। और यह बात भी गलत नहीं है कि अमेरिका ने आप लोगों को ऐसी सूची में डाल रखा है, जिससे दुनिया को खतरा है।”
”डाक्साब, दिल पर हाथ रख कर बताइये, क्या जितने लोग हमें संकीर्ण मानते हैं उनकी मानवता हिन्दू सहित है या हिन्दू रहित? यदि हिन्दू सहित है तो हिन्दुओं पर इस देश में या कहीं अन्यत्र कुछ भी बीते, और बीता तो बहुत बुरा है, उस पर किसी ने कोई आह भरी है? आपके साहित्यकारों ने उनकी पीड़ा पर कोई कहानी, लेख, गजल, गीत कभी लिखा है भीडिया ने उनकी पीड़ा को उसी तरह विज्ञापित किया है जैसे किसी भी अहिन्दू को क्षति पहुंचने की संभावना तक पर करने लगता है? क्या यह सच नहीं कि हिन्दू को अपराधी सिद्ध करने के लिए आप फरेब तक करते हैं, अकारण उत्तेजना तक फैलाते हैं, पर उसके नायकों तक के नाम से आप को नफरत हो जाती है?”
मेरा मित्र अपने को रोक न सका, ”अकारण तो कुछ नहीं होता, बिना आग के धुआं नहीं उठता।”
”आप बदनाम तो मुझे करते हैं, पर रहते उस युग में हैं जब यत्र यत्र धूमो तत्र तत्र वह्नि: का मुहावरा चलता था और लोग प्रचारशक्ति के बल पर धुंध या फ्यूम को धुंआ सिद्ध करने की कला का विकास नहीं कर पाए थे। आज विचार और संचार माध्यम जाने किसकी शह पर, उससे अधिक भ्रामक खबरें प्रसारित और प्रदर्शित कर रहे हैं जो सूचना तन्त्र के अभाव या अनुपस्थिति के दौर में द्वारा हुआ करता था? इसमें राष्ट्रीय सुर्खाब वाले पत्र तक शामिल हो जाते हैं, जब कि दूसरी जघन्य घटनाओं का कोने में जिक्र करके भूल जाते हैं या उन्हें दबा देते हैं या अपव्याख्या से नष्ट कर देते हैं। कारण तो है, उनके कुछ कहने का भी और छिपाने का भी और तरह तोड़ मरोड़ कर कूड़दान में फेंकने का भी और कारण इतना गूढ़ है कि इसका पूरा पता हमारे खुफिया तन्त्र को भी नहीं लग पाता।”
”आप गोल मटोल बातें कर रहे हैं। सचाई तो यह है कि हिन्दू संगठनों से जुडे् लाेग ही राजनीतिक लाभ के लिए कहानियां गढ़ते हैं, प्लांट करते हैं, हंगामा करते हैं, और देश में अस्थिरता का वातावरण पैदा कर देते हैं और उसका विरोध होता है तो आप कहते हैं राष्ट्रविरोधी वातावरण तैयार किया जा रहा है। मैं ऐसे एक क्या सौ दृष्टान्त दे सकता हूं, आप दो दे कर दिखाइये।” अब मेरा मित्र सचमुच तैश में आ गया था। मामला अब हाजिरजवाबी का नहीं रह गया था।
”देखिए सर आग लगाने वाली समस्याओं पर लुकाठा ले कर विचार नहीं किया जा सकता। ठंढे दिमाग से सोचना होता है। आवेश में कोई दूसरे की बात सुनने को तैयार नहीं होता इसलिए मैं जो भी कहूंगा उसकी सचाई को पूरा सुनने से पहले ही नकारने पर आपका अधिक जोर होगा, समझने पर कम या बिल्कुल नहीं। समाचार तो रोज ही एक से अधिक ऐसे होते हैं, पर मैं अभी आज के ही अखबार की एक रपट को लेता हूं। एक आयोजन चल रहा है दो मुस्लिम नौजवान मोटर सायकिल से आते हैं गोलियां चला कर आयोजन को तितर बितर कर देते हैं, भारत विरोधी और पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाते हैं पर इसी बीच पकड़ लिए जाते हैं, और आपके अखबार वे जो भी बहाना बनाते हैं उसे कारण मान कर लोगों की नजर में उन्हें ऐसे मासूम बना देते हैं जो फेसबुक पर उसके वीडियो से लाइक बटोरना चाहते थे। इसमें सारे माध्यम एक सुर में मासूमियत की एक ही तस्वीर पेश कर रहे हैंं।”
मित्र से रहा न गया तो बोल पड़ा, ”आप क्या समझते हैं ऐसा नहीं हो सकता।”
”मैं इतना समझदार नहीं हूं कि सोच लूं कि जो मेरी समझ में आया उसके अलावा कुछ और नहीं हो सकता । मैं कहता हूं, यदि इतने छोटे प्रलोभन पर युवा एेसा कर सकते हैं तो हंगामा कराने और उनके समर्थन में आनन फानन में हाजिर हो जाने वाले नेताओं के लूट खसोट से जुटाए गए अपार काले धन की महिमा से पूरे देश में, विभिन्न संस्थाओं में ऐसा हो सकता है या नहीं। यदि ऐसा हो सकता है तो इसे आप राष्ट्रव्यापी असंतोष, जन विक्षोभ आदि कह कर कैसे प्रचारित कर सकते है। इसका जवाब आपके पास है ?”
मेरे मित्र से कुछ कहते न बने । शास्त्री चालू हो गया, ”क्या आपको पता नहीं है कि कश्मीर का विकास वहां व्याप्त अशांति और अस्थिरता के कारण दशकों से रुका पड़ा है, इसलिए उसकी सबसे बड़ी समस्या नौजवानों की बेकारी है, इस लिए उनको मामूली प्रलोभन से कोई भी गुमराह करके उनसे कुछ भी करा सकता है? पता है केन्द्र से उसके नेताओं का दिल खुश रखने के लिए भारी मदद पहले से दी जाती रही है और अशान्ति के कारण वह विकास कार्यों पर लग नहीं सकती थी इसलिए उसे वे शान्ति से अपनी जेब में डाल लेते रहे है? मौसेरे भाइयों का मामला था इसलिए जानते हुए भी केन्द्र चुप रहता था और मदद जारी रहती थी।
” क्या आप को मालूम नहीं है कि पाकिस्तान सहित दूसरे कई देशों से वहां अलगाववाद की खेती करने वालों को खाद पानी के लिए अकूत धन दिया जाता रहा है और उसका खाद वाला पैसा बांट कर वे जब जी में आता था तब अराजकता फैला देते रहे हैं? कि बेकार नौजवानों का घाटी में मनरेगा जैसा लाभ नारों की उूंचाई और आवर्तिता पर काम के दर से मिलता रहा है? पता नहीं है कि इसका उचित समाधान खोजने में नाकाम नेतृत्व सेना के माध्यम से उसी तरह का चारा फेंक कर भड़के हुए या भड़कने और भड़काने वाले नौजवानों काे फुसलाती रही है इसलिए यह भावनात्मक ज्वार भाटे का ऐसा खेल बन चुका था जिससे अलगाववाद के फायदे अधिक और लगाव के फायदे कम दिखाई पड़ते थे? क्या आपको पता नहीं है कि इस पर पहली बार रोक लगी है और पहली बार सही तरीका अपनाया गया है जिसके सफल होने पर इसके दूरगामी अच्छे नतीजे आएंगे? क्या आपको पता है…”
मित्र का धीरज खत्म हो गया पर उसने इस बार स्वर को संयत ही रखा, ”आप छरों से छलनी होती पीठों, अन्धी होती आंखो और बीच बीच में होने वाली मौतों को सही तरीका बता रहे है? आप लोगों का सही तरीका यही है?”
शास्त्री या तो बीच में टोकने के कारण या इस घटना की उग्रता के कारण, अपनी प्रतिज्ञा भूल कर खुद भी कुछ गरम हो गया, ”आप ने अमेरिका का इतिहास पढ़ा है। जानते हैं वहां के महानतम राष्ट्रपतियों में एक का नाम अब्राहम लिंकन है और उसने दासों की पीड़ा से कातर हो कर और कोई चारा न रह जाने पर गृहयुद्ध का विकल्प चुना था। कहीं से पता लगाइये उसमें कितने लोगों की, गोरों के हाथों ही कितने गोरों की जान गई थी क्योंकि हथियार वहां नागरिकों के पास सदा से रहे हैं। उन्हें यह करना पड़ा क्योंकि न्याय और राष्ट्रहित के लिए वह जरूरी था। कठोर विकल्प मनोरंजन के लिए नहीं चुने जाते, विवश हो कर चुने जाते है और बाद में उसके परिणाम अच्छे होते हैं। दक्षिण के जिन राज्यों ने एक साथ बागी तेवर अपना लिया था वहां भी आज लिंकन को उसी आदर से याद किया जाता है जैसे वाशिंगटन को। जिन महान विभूतियों का बस्ट एक साथ एक शिखर पर अंकित है उनमें त्याग, तपस्या, समर्पण और राष्ट्रनिष्ठा का प्रतीक लिंकन भी एक हैं।”
मेरा मित्र अपनी हंसी को रोक नहीं पाया, ”किस जमाने की बात कर रहे हो भाई और फिर यह असंतोष तो पूरे भारत में यत्र तत्र फैल चुका है।”
”फैल चुका है, अर्थात फैलाया गया है, अर्थात आप इसके फैलाने और राष्ट्र के लिए समस्याएं पैदा करने वालों के साथ हैं, पर एक बात आप स्वीकार नहीं करेंगे कि आप , मेरा मतलब है आप नहीं सर, आपको तो मैं अच्छी तरह जानता हूें पर, आप जिनसे सहानुभूति रखते हैं और जिन्हें समझदार समझते हैं, वे यह नहीं जानते कि टुकड़ों के लोभ में वे राष्ट्र के अहित की अमेरिकी योजना को पूरा कर रहे हैं।वे भारत के नागरिक हो कर भी अमेरिका के भाड़े के सैनिक हैं।’
मित्र अपनी हंसी पर काबू नहीं रख सका, हंसी के साथ ताली भी बजाने लगा। हंसी तो उसकी चिडि़यों को उड़ाने वाली होती ही है, ”अमेरिका का।”
”आप तो, क्षमा करें, मुझसे अभद्रता हो गई होती। अभी अभी। आपके ज्ञान पर शंका तो कर ही नहीं सकता, परन्तु आपको ध्यान नहीं होगा कि भारत ने जितना कठोर और दृढ़ स्टैंड अमेरिका के विरुद्ध इन्द्रा जी के समय में लिया था उतना न उससे पहले लिया गया न बाद में। यह बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में अमेरिका की धमकी भरी योजना के कारण था। वह अकेली नेता हैं जिसे किसिंजर गाली देता था क्योंकि उन पर उसकी कूटनीति का जादू नहीं चल पाया जो चीन तक पर चल गया। और उसी समय भारत के बाल्कनाइजेशन अर्थात टुकडे टुकडं करने की किलपैट्रिक योजना का आरंभ हुआ था। आप सभी लोग जो भारत के टुकड़े टुकड़े करने की विविध योजनाओं पर काम कर रहे हैं, चाहे आप माओ आ चेहरा लगा कर आएं या नक्सल का नाम लेते हुए, या मार्क्स का, अपने को भारतीय कहते हुए या भारत से अलग तार जोड़ते हुए, आपको यह पता है आप किसकी योजना पर काम कर रहे हैं। एक बात ध्यान रखें, अमेरिका की सभी योजनाएं दीर्घकालीन होती हैं और उसने रूसी सैनिकों तक का इस्तेमान रूस को नष्ट करने के लिए पैसे के बल पर और मिथ्याप्रचार के बल पर कर लिया था।”
मेरी तो आंख खुल गई । किलपैट्रिक वाली बात तो मुझे भूल ही गई थी, फिर भी मैं यह तो कई बार कई तरह से कह आया था कि भारतीय मुसलमानों के बीच सीधी या अरब देशों में पहुंचे कामगारों को उनके ही तन्त्र द्वारा सिखा पढ़ा कर और उनका पैसा भी पंप करते हुए अपनी परोक्ष पैठ बना कर धर्म और जाति की विभाजन रेखा पर इस देश को तोड़ने का काम उसी की योजना का हिस्सा है। मैंने शास्त्री को यह सुझाया और कहा, ”भई, अगर आपकी समझ इतनी पैनी है तो कम से कम अपने घर परिवार में यह संदेश तो पहुंचाते कि हिन्दू और मुसलमान दोनों एक अधिक ताकतवर दुश्मन के निशाने पर हैं और इन्हें आपस में मिल कर ही इसका सामना करना होगा।” तो शास्त्री ने कहा, डाक्साब, आप ठीक कह रहे हैं, पर घृणा की जड़ों को इतनी गहराई में पहुंचा दिया गया है कि मैं अपने लोगों से कहूं तो उनमें से कितनों के गले के नीचे यह बात उतरेगी, यह नहीं जानता। यही बात आप मुसलमानों से कह कर देखिए कोई सुनने को तैयार नहीं होगा और तत्काल तैयार हो गया तो भी आंख से ओझल होते ही भूल जाएगा। मैं तो समझता हूं यह सीधी सी बात इन सर को भी समझाना आसान नहीं हे।‘’