ऐसी हठ जैसी गांठि पानी पड़े सन की
”मैने तुम्हारी सुबूही देखी। तुम सुबूही लिखते ही नहीं हो, लगता है आज कल सुबह सुबह चढ़ा भी लेते हो, नहीं तो इस गली में पांव न रखते। यह पुराने पापियों का इलाका है, नौसिखुओं पर रोड़े पत्थर पड़ते हैं।मुझे तुमसे बहुत सारे सवाल करने हैं, परन्तु सबसे पहले शास्त्री जी से। कल इन्होंने तुलसी को आसमान पर तो चढ़ा दिया और बोर करके भाग लिए, परन्तु मेेरे इस सवाल का जवाब नहीं दिया कि वह प्रतिक्रियावादी थे।”
शास्त्री जी ने मुस्कराते हुए कहा, ”दिया तो था, परन्तु आपको समझा नहीं पाया। मैंने कहा था, कबीर बाहरी या कहें सामाजिक समस्याओं का समाधान करने के लिए भीतर की यात्रा करते है और ब्रह्म में विलीन हो जाते हैं। तुलसी कहते हैं अन्तर्यामी ब्रह्म को जानने और ध्यान और साधना में ममय बर्वाद करने की जगह काम करने वाले अवतारी राम को आदर्श मानते हुए अपने काम में जुट जाओ। अन्तरजानिहु तें बड़ बाहरजामी हैं राम जे नाम लिए ते’। साधना में जीवन बर्वाद हो जाता है और आदमी और किसी काम का नहीं रहता। वह राम का नाम ले कर अपना काम करने वाला रास्ता दिखाते हैं और उसके लिए बहुत ध्यान और पूजा की भी जरूरत नहीं, भाव कुभाव अनख आलसहू, नाम जपत मंगल दिसि दसहू। वह एक किसान की मोटी समझ रखते हैं। ”
मित्र ने बिना किसी उत्तेजना या व्यंग्य के कहा, ”मेरे कहने में ही चूक रह गई। जिस अर्थ में मैं तुलसी को प्रतिक्रिया वादी मानता हूं और दूसरे लोग भी मानते हैं वह कबीर से सीधे जुड़ी हुई है। यदि हम किसी यात्रा में आगे बढ़ आए हैं और कोई दूसरा हमें खींच कर पीछे ले जाय तो हम उसे प्रतिक्रियावादी कहेंगे।”
शास्त्री जी चुपचाप सुनते रहे।
”कबीर ने अन्धविश्वास और बाहद्याचार के स्थान पर तार्किकता की प्रतिष्ठा की। आध्यात्मिक तुष्टि के लिए एक ऐसी साधना का समर्थन किया जो सर्वसाध्य थी और जिस पर कोई रोकटोक न थी। जीवन को ईमानदारी से जीने को, पूरी लगन से काम करने को ही पूजा का स्थानापन्न बना दिया। व्यवहार में कहा, पहले देखो जो काम कर रहे हो उसका परिणाम क्या होगा, फिर उसे करो। वह जप माला छापा तिलक की ही व्यर्थता की बात नहीं करते हैं अपितु दाढी बढ़ाय जोगी हो गए बकरा की भी बात करते हैं और प्रकारान्तर से दाढ़ी रखने वालों की मूर्खता की भी बात करते हैं। दोनों को भटका हुआ सिद्ध करके एक नए पंथ की आवश्यकता पर बल देते हैं तो तर्क, अनुभव और सार्थकता पर आधारित मानवीयता की हिमायत करते हैं। पुस्तकीय विधानों की चिन्ता नहीं करते और अपने ज्ञान पर भरोसा करने का पाठ सुझाते हैंं। तुलसी इस पूरे क्रम को उलट देते हैं। वह आगे नहीं बढ़ते पीछे लौट जाते हैं। कबीर प्रगतिशील हैं और तुलसी प्रतिक्रियावादी। कबीर के सामने बहुत छोटे।”
अब तो शास्त्री जी को कुछ कहना ही था, ”देखिए श्रीमन्, मुझसे तो आप भी बहुत बड़े और अनुभवी हैं, परन्तु आप ही नहीं, जिस विचारधारा से आप जुड़े हैं उसके दोषाें से उससे जुड़ा कोई व्यक्ति मुक्त नहीं हो सकता। आपकी सोच से हमारी सोच अलग रही है। आप मानते हैं एक सही है और दूसरा उससे भिन्न है तो दूसरा गलत होगा ही। सही के दो या अनेक रूप हो सकते हैं यह व्यवहार में तो आप को दिखाई देता है, पर सिद्धान्त में आप लोग भूल जाते हैं। यह एकेश्वरवादी सीमा है और इसीलिए मैं डाक्साब के उस मत से सहमत हूें कि मार्क्सवाद की आत्मा सामी है। यही कारण है कि आप पर लीगी जादू आसानी से चल गया। हम बहुदेववादी संस्क़ृति के लोग हैं जो संहार नहीं करती, भिन्न के लिए जगह दे देती है। इसलिए ही वह उदारता और खुलापन हमारे यहां बचा रहा है जब कि संत हों या सिद्ध या इस्लाम या बौद्ध कहीं भी यह बच नहीं पाया। हमारे यहां विष्णु से भिन्न भूमिका रुद्र की है और किंचित विरोधी भी। ब्रह्मा की अलग है ही। पर हम तीनों की महिमा के कायल है। इसलिए हमारे लिए कबीर साहब भी महान हैं और तुलसी भी। आप तुलसी को छोटा बनाए बिना कबीर को बड़ा बना ही नहीं पाते। एक को जीवन देने के लिए आप लोगों को दूसरे की हत्या करनी पड़ती है, एक को आदर देने के लिए दूसरे का अपमान करना जरूरी हो जाता है।
”अब रही आपकी प्रतिक्रियावादिता और प्रगतिशीलता का। आप लोगों ने उस भाषा से ही मुंह फेर लिया जिसमें शब्द विवेक पर बहुत ध्यान दिया गया है और यह कहा गया है कि कोई भी दो शब्द जो एक ही चीज के लिए प्रयोग में आते हैं, उनका अर्थ ठीक एक नहीं हो सकता। वे उसी के किन्हीं गुणों से जुड़े हो सकते हैं। इस विवेकहीनता के कारण आप लोग सही सोचना तो दूर सही शब्दों का इस्तेमाल तक नहीं कर पाते। आपके पास मूल्यांकन की दो श्रेणियां है, एक प्रशंसा की दूसरी भर्त्सना की। जिसकी भर्त्सना करनी है उसके लिए उस टोकरी में से निकाल कर कोई पत्थर फेंक दो मतलब ताे चोट पहुंचाने से ही है न। आप के लिए शब्द भी पत्थर ही हैं, डाक्साब को कहना होता तो पता नहीं इसे किस अन्दाज से कहते, पर मैं तो आप से छोटा हूं मैं नहीं कह सकता कि जिस दिमाग से शब्द भी पत्थर बन कर निकलते हैं, वह सचमुच है क्या।
”आपने तुलसी को प्रतिकियावादी ठहरा दिया। समझाते हुए बताया कि कबीर ने समाज को जहां पहुंचाया था वहां से उसे वह पीछे ले गए, अर्थात् पश्चगमन किया। पश्चगमन में एक निर्णय होता है, किचार होता है और उसके परिणाम के अनुसार ही हम उसका श्रेय या अपयश किसी को दे सकते हें। अभी तीन दिन पहले डाक्साब ने मुझे कहा था एक फिल्मी इबारत को याद करने को, राह भूले थे कहा से हम और समझाया था कि जब इसका उत्तर मिल जाय तो पहले उस बिन्दु पर लौटना होगा और सही रास्ते का चुनाब करना होगा और यदि रास्ता भी न हो तो बनाना पड़ेंगा। सैन्य विज्ञान में इसे खतरनाक बिन्दु से पीछे लौटना या रिट्रीट कहते हैं। यह एक वैज्ञानिक क्रिया है। परन्तु क्या तुलसी ने विभिन्न सन्त मतों में जो लोग प्रवेश कर चुके थे उन्हें वहां से वापस लौटने को कहा। नहीं। वे वहीं बने रहे। उन पर उनका अधिकार भी नहीं था। उनकी आवाज भी उनको सुनाई नहीं दी। इसलिए प्रतिगामी शब्द भी उनके लिए समीचीन नहीं है। ,,
”परन्तु प्रतिक्रियावाद तो होता ही नहीं। क्रिया होती है और प्रतिक्रिया होती है और यह एक भौतिक नियम है जिससे जड़ तत्व भी प्रभावित होते है। क्रिया के साथ निर्णय और उत्तरदायित्व सब कुछ आता है, प्रतिक्रिया तो अवश्यंभावी है। इसका वाद कैसे होगा। ताे क्रियावाद भी नहीं होता, प्रतिक्रियावाद भी नहीं होता, यह न तो तुलसी ने किया, न उनसे हुआ।
”तुलसी सेतुबांधते हैं। यह देख कर कि एक संकट आ गया है, उससे निबटने के लिए जो बचा हिन्दू समाज है उसको एक मर्यादा में बांधते हैं। वह मर्यादावादी हैं। मर्यादा अच्छी और बुरी नहीं होती, एक सीमांकन होता है। डाक्साब ने ही लिखा है कि बहुत प्राचीन काल में क्षेत्र विभाजन में यह निर्णय किया गया था कि सभी अपनी सीमा में ही आखेट आदि करेंगे, बाहर नहीं जाएंगे। यदि उनके तीर से मारा शिकार भी दूसरे क्षेत्र में जा गिरा तो उस पर दावा करने के लिए भी उसमें प्रवेश नहीं करेंगे। गए तो उनकी जान पर बन आएगी। इसी के कारण बालि सुग्रीव के कमजोर होते हुए भी उसके क्षेत्र में आ कर उसे हानि पहुंचाने का साहस नहीं कर सकता था। जिस सीमा की रक्षा के लिए लोग उसका उल्लंघन करने वालों की जान ले और दे सकते है उसे ही मर्यादा कहते हैं। इसे मेड़ बांधना या सेतु बांधना भी कह सकते हैं। इसलिए मुझे लगता है आप लोग जैसे लोगों की हत्या करके युग बदलना चाहते हैं उसी तरह शबदों को काठ पत्थर की तरह प्रयोग में लाते हुए केवल विक्षोभ पैदा करना जानते हैं, विचार और जागृति पैदा करना नहीं जानते या जानते हैं तो ऐसा चाहते नहीं। आप लोग आग लगाना जानते है, और जब तक आग नहीं लगती तब तक धुंए और धुंध से भी प्रसन्न रह लेते हैं, परन्तु समाज को प्रकाश नही दे पाते।
”अब प्रश्न उठेगा कि तुलसीदास दूरदर्शी थे या यथास्थितिवादी या पुरातनपंथी और उन्होंने जिन खतरों को भांपा था वे वास्तविक थे या काल्पनिक और इनके परिणाम शुभ थे या अशुभ। हम नहीं जानते कि तुलसीदास के मन में क्या विचार प्रबल रहा हो सकता है। एक तो यह कि इस तरह तो जितने संत और योगी हैं उनका संप्रदाय बन कर पूरा समाज खंड खंड हो जाएगा, अपने कोटर में बन्द भी हो जाएगा। दूसरा संकट कि ये सभी जिस दिशा में बढ़ रहे हैं उसकी अन्तिम परिणति इनका इस्लाम में विलीन हो जाना ही हो सकता है जैसा कि योगियों के सामूहिक इस्लामीकरण से हुआ था। इस दृष्टि से वह अकेले खड़े हो कर एक महासमर में उतरते हैं और विरोध के ज्वार की दिशा को उलट देते हैं। इतना पराक्रम, इनका साहस, इतनी दूरदर्शिता किसी एक मनीषी में हो सकती है, यह सोचते हुए पूरे विश्व साहित्य पर दृष्टि डालिए, यदि कोई दूसरा कवि मिले तो बताइयेगा। तुलसी की महिमा यह है कि उन्होंने कठमुल्ले पंडितों के विरोध के बाद भी जो करना था किया, विरोधी विचारधाराओं के प्रहार को झूलते और निष्प्रभाव करते हुए ऐसा किया। दूर दर्शिता यह कि आज आप जिस खुलेपन, समावेशिता वगैरह की बात करते हैं वह हिन्दू समाज को छोड़ कर न उन मतों में मिलेगा न किसी अन्य धर्म में। दलितों को भी विरोध का स्वर मुखर करने का अवसर केवल हिन्दुत्व में है, न इस्लाम में, न ईसाइयत में न कहीं अन्यत्र। जहां तक छापा और तिलक की बात है, वह सबके साथ जुड़ गया और सबके पास है क्योंकि उसके साथ एक सामुदायिक प्रतीकात्मकता जुड़ी हुई है। हाल यह कि नानकपंथ जहां पहुंचा वहा अनेक असुविधाओं और भेदभाव के बावजूद सिख पगड़ी और दाढी और केश तक छोड़ने से इन्कार करते हैं। तुलसी इस प्रतीकात्मकता को उस समय समझते थे और इसे औजार के रूप में प्रयोग करते हैं। वह वेद और पुराण को लंगर के रूप में इस्तेमाल करते हैं कि जहाज तूूफान में बह न जाय, पर किसी से पूरी तरह बंध कर नहीं रहते। उनका साहस और निर्भीकता की तो कोई तुलना नहीं। हां, बाद में, बहुत बाद में उर्दू कवियों ने इश्किया दायरा तोड़ते हुए जिस तरह राजनीति के लिए पुराने प्रतीको की आड़ ली, तुलसी उनसे बहुत पहले कलिकाल की आड़ ले कर अपनी बात करते हैं। अब इन पंक्तियों को पढि़ए तो आप को उनकी क्रान्तिकारिता और साहस और राजनीतिक हस्तक्षेप की शक्ति सब समझ में आ जाएगी जिसका ढोल बजाया जाता है, नाच नाचा जाता है, तमाशा किया जाता है और अन्त में पता चलता है कि उसके पीछे किसका पैसा काम कर रहा था, नाच आदमी रहे थे या पैसा-
गोड़ गंवार नृपाल महि यवन महा महिपाल।
फोड़े सिल लोढ़ा सदन लागे अढुक पहाड़ ।
कायर कूर कुपूत कलि, घर घर सहज डहार ।।
यह साहस किसी अन्य कवि में दीखे तो मुझे भी बताइयेगा।
”ऐसा साहस, और ऐसी विनम्रता युक्त दृढ़ता – ऐसी हठ जैसी गांठि पानी पड़े सन की।”
शास्त्री जी अपने ही कथन के भावावेश में उठ कर खड़े हो गए और चलते,