आ देवानामपि पन्थामगन्म यच्छक्नवाम तदनु प्रवोळ्हुम् ।
(हम देवों के मार्ग का अनुसरण करें और जितना निर्वाह कर सकें करें!)
”शास्त्री जी, अब आप चाहें तो हम कल की बात को आगे बढ़ा सकते हैं।”
शास्त्री जी ने कुछ कहा नहीं, पर उनकी मुद्रा में जो परिवर्तन आया उसका अर्थ था, ‘ठीक है।’
आप पता नहीं फेस बुक पर जाते हैं या नहीं, पता नहीं, यदि जाते हों तो 14 जुलाई को चन्द्र मोहन ने कश्मीर के विषय में अपना अनुभव लिखा था उसे अवश्य देखिएगा। और हां, हसन पाशा का भी 15 का एक ट्वीट है, ‘सुरक्षा बलाें पर पत्थर कौन फेंक रहा है’, मेक इन इंडिया ने इसे शेयर किया है, उसे भी देखिएगा। अभी आप ने देखा, एक ओर तो छर्रों से गुदे हुए चेहरे, पीठ और फूटी हुई आंखों की तस्वीरें और तनाव की खबरें आ रही थीं, और उसी बीच यह खबर आई कि नमाज के लिए जाते हुए कुछ मुसलमानों को बचाओ की पुकार सुनाई दी तो वह उस ओर बढ़ गए और पाया अमरनाथ यात्रियों की एक जीप का ऐक्सीडेंट हो गया था। उन्होंने नमाज छोड़ कर उनकी सहायता में अपना समय लगाया। इस बात पर ध्यान दीजिए कि माहौल कितना बिगड़ा हआ है और नमाज के पाबन्द मुसलमान तो आपको कट्टर मुसलमान ही नहीं, मस्जिद में जुट कर हिन्दुओं के खिलाफ राेज साजिश करने वालों की छवि में देखते होंगे जैसे वे शाखा के बौद्धिक में रोज मुसलानों पर हमले की तैयारी के रूप में देखते हो सकते हैं। नफरत से लड़ने के लिए आपको आत्मबल और हथियार इन चिनगारियों से ही मिल सकते हैं।”
”आप से विवाद नहीं कर सकता, इक्के दुक्के अच्छे लोग तो सभी समाजों में मिल जाते हैं, परन्तु प्रश्न अनुपात का है। उन कुछ लोगों के कारण हमें भारी कीमत चुकानी पड़ी है।”
”ठीक यही शिकायत दलित आप से कर सकते हैं और करते हैं। ठीक यही शिकायत स्त्रियां पुरुषों से करने लगी हैं। यही पाठ उन क्षेत्रों के लोगों की जबान पर है जहां व्यवस्था गड़बड़ है और सैन्य बल की उपस्थिति सामान्य जीवन को नरक बनाए हुए है और यही उन वनांचलों में मिशनरियों के माध्यम से भरी जा रही है। किसी की शिकायत गलत नहीं है, आपकी भी नहीं। एक विशस सर्कल है, जिसमें सभी को किसी न किसी से शिकायत है। इसका निदान क्या है जिनसे शिकायत है उनसे मुक्त समाज या समझ और समायोजन का ऐसा माहौल जो भले तत्काल फलीभूत न हो, परन्तु लगे कि उसे सफल बनाने की दिशा में ईमानदारी से प्रयास किया जा रहा है।”
”क्या आप मानते हैं कि इनकी शिकायतें दूर करने के प्रयास में हमने कभी बाधा डाली है? किसी को इस प्रयास से रोका है? क्या हमने इस प्रयत्न के लिए उनकी मौखिक आलोचना भी की है जिनके क्षोभ के कारण सही हैं? हमने तो मायावती को भी समर्थन दे कर कहा तुम सामाजिक न्याय दो, पर हुआ क्या? हमने यही प्रयोग कश्मीर में भी दुहराया पर हो क्या रहा है?”
”हम आपसे कहना यह चाहते हैं कि कुछ शिकायतें सही होते हुए भी गलत होती हैं, क्योंकि भुक्तभोगी तत्काल उस स्थिति से मुक्ति चाहता है, उस रोगी की तरह जो चाहता है डाक्टर मुझे अभी अच्छा कर दे। वह अपनी बेसब्री से अपने उपचार में कई बार बाधा भी डालता है। यही स्थिति मानसिकता में परिवर्तन से जुड़ी है। इससे हम इच्छा करते ही मुक्त नहीं हो पाते। पूरे समाज को जादू की छड़ी से बदल नहीं सकते।”
”आप ठीक कहते हैं। और इसके साथ एक और बात भी है मानसिकता का एक भौतिक और बौद्धिक और नैतिक पर्यावरण होता है। ऐसी बात मुझे लगता है आप स्वयं कहीं कह आए हैं, यदि नहीं तो मान लीजिए मैंने ही आप के विचारों को आत्मसात करने के क्रम में कभी सोचा होगा। समता कानून ने दे दी। व्यक्ति और समुदाय को उसे आयत्त करना है। उनको अपने को साबित करना है। मायावती ने साबित नहीं किया कि दलितों और अस्पृश्यों के भाग्योदय में उनकी रुचि है अन्यथा पत्थर के हाथी बनाने और नोटों की माला पहनने की जगह ममता जैसी जीवनशैली अपनाते हुए उस धन को ऐसे औजारों के विकास पर खर्च किया होता जिससे अधोगति से संतप्त जनों को उबारा जा सके। समाजवादी सपने दिखाने वाले मुगलकालीन जीवनशैली का प्रदर्शन न करते। महबूबा के लिए इस समय कुछ नहीं कहूंगा पर यह शक तो है ही कि वह अपने को साबित नहीं कर पा रही हैं या जो कुछ साबित कर रही हैं वह सद्भाव और विश्वास को बढ़ाता नहीं है।”
”शास्त्री जी हम व्यावहारिक राजनीति से बचे रहें तो अच्छा। वह व्यक्तियों पर और वह भी उनके कुकर्मो पर लौट आती है और उन हथकंडों पर उतर आती है, जिनसे सामाजिक पर्यावरण को विषाक्त करके अपने स्वार्थ साधने के तरीके अपनाए जाते हैं। राजनीति की मुझे समझ भी नहीं है परन्तु जिनको रास्ता चलने तक की समझ नहीं, वे भी इसी पर बहस करते मिलेंगे। हम एक बहुत बड़ी समस्या से लड़ रहे हैं जिसके लिए हमें राजनीतिज्ञों से भी निबटना पड़े तो निबटेंगे।
”हम पहले कह आए हैं सत्ता, साधन और धन पर अधिकार के लिए राजनीतिज्ञों द्वारा ही अधिकांश सामाजिक विकृतियां पैदा की जाती हैं और साधन और धन और बल का ही इसमें इस्तेमाल होता है। जिनके पास यह हो वे बुद्धिजीवियों का भी इस्तेमाल करते हुए जो चाहते हैं कर ले जाते हैं क्योंकि बुद्धिजीवी का तो अर्थ ही होता है बुद्धि बेच कर खाने वाला। इनके सहयोग से जो अनर्थ वे चाहे कर ले जाते है और हमारी लंबी तैयारियां धरी की धरी रह जाती हैं। फिर भी सही समझ सभी विकृतियों का अकेला जवाब है। पैदा हमें वही करना है। आपके भीतर भी।”
शास्त्री जी का यह अच्छा गुण है कि वह आसानी से आपा नहीं खोते। हंस कर पूछा, ”मेरे भीतर भी आपको कमी दिखाई देती है।”
”यह तो आपने स्वयं कहा था कि आप में विश्वास की कमी है, सन्देह भरा हुआ है, और चलिए घृणा न सही एक चिरपोषित विद्वेष ताे है ही। जब तक इतनी चीजों ने भीतर के आयतन को घेर रखा है, वह समझ पैदा भी हो तो इनके बीच तो उसे जगह मिलेगी ही नहीं।”
”मान लिया, यह भी मान लिया कि आपकी संगत में रहेंगे तो आप मन्त्र फूंक फूंक कर मेरे भीतर से उन्हें साफ कर देंगे ताकि आपके सदविचारों के लिए एक पूरा गोदाम मिल जाए, पर उनका क्या कीजिएगा जिन तक आपकी पहुंच ही नहीं। जिनको अपनी जिद से टस से मस होने की आदत नहीं है। जो अपने को बदलना तक अपना अपमान समझते हैं, जिनकी दुनिया अपने धर्मदायादों तक सिमटी है और याददाश्त हिज्रत तक।”
”मैं किसी का कुछ नहीं कर रहा हूं । आपका भी नहीं। बस मैं आपको तब तक किसी को दोषी मानने के अधिकार से वंचित करता हूं, नहीं वह भी नहीं कर सकता, कर यह सकता हूं कि जब तक आप इनसे मुक्त नहीं होते, जब तक आप यह सोच कर बैठे रहे कि जब तक दूसरे अपना घर साफ नहीं करते मैं अपने घर की गन्दगी को साफ न करूंगा, कोशिश इसे बढ़ाते रहने की करूंगा, आप पर तरस खाता रहूं । हां यह भी कर सकता हूं और करता रहूंगा कि उन सभी लोगों को याद दिलाता रहूं कि तुम्हें आज की दुनिया में सम्मान और गर्व से रहना है तो दुर्बलताओं पर विजय पाना होगा, आत्मविस्तार करना होगा। जल्लादों की कौम बन कर नहीं, डरावना लगा जा सकता है पर प्रतिष्ठा नहीं पाई जा सकती । प्रतिष्ठा के लिए अमृतपुत्र बनना होगा। मानवता के लिए हितकर काम करना होगा। कोई दूसरा इसमें तुम्हारी सहायता भी नहीं कर सकता। अपना उद्धार स्वयं करना होगा – उद्धरेदात्मात्मानम् । और मैं इसकी व्याख्या भी करूंगा कि तुम्हारे अमृतपुत्र बनने में इतिहास से ले कर वर्तमान तक कौन सी बाधाएं और मनोबाधाएं पेश आ रही हैं।”
”मैं उसके लिए भी तैयार हूं।”
”इसके लिए वह दो आंखें और बारह हाथ फिल्म आपको एक बार ध्यान से देखना होगा और फिर उस पंक्ति का जवाब अपने आप से मांगना होगा, अब तूही मुझे बतला, राह भूले थे कहां से हम’ और जब इसका जवाब मिल जाय तो चेतना के स्तर पर उस मुकाम पर लौटना होगा, जहां से भटकाव आया था। और फिर तय करना होगा कि सही रास्ता हो क्या सकता है। रास्ता मिलेगा नहीं, रास्ता भी बनाना होगा और उस पर चलना भी होगा और फिर चलने वाले इतने हो जायेंगे कि यह महापथ बन जाय।”
शास्त्री जी का अच्छा खासा मनोविनोद हो गया। वह हंसे, ”आप इतनी विचित्र बातें कहां से सोच लेते है। फिल्मों से फिलासफी निकालते है और हवा में किले बनाने लगते हैं, वह भी अकेले दम पर न ईट न गारा न पानी।”
”आपके व्यंग्य पर मुझे एक तुकबन्दी सूझ गई। आज तो बस यही सुनिए:-
”हवा के फलक पर लिखेगे कहानी
”सुनेगा जमाना हवा की जबानी।
”हवा ही रुंधी है, घुटन हो रही है
”दिखानी दिशा है और देनी रवानी।।