Post – 2016-07-16

राख की ढेर में होगी कहीं चिनगारी भी

”शास्‍त्री जी, मैं कई बार पहले भी कह चुका हूं, एक बार फिर दुहरा दूं कि मैं जीतने के लिए बहस नही करता, समझने के लिए संवाद करता हूं। अपनी समझ से आपको बदलने की कोशिश के साथ आपकी अपनी सोच के अनुसार, यदि ऐसा लगा, अपने को और अपने पहले के कथन को भी बदलने के लिए मंथन करता हूं। जीतने के लिए बाहुबल का प्रयोग हो, या बुद्धिबल का, या धनबल का, इसका परिणाम दूसरे को दबाना और अपने वश में करना होता है। इसमें सद-असद की चिन्‍ता नहीं होती। दूसरे के दमन या उच्‍छेदन का प्रयास होता है। मैं उस संवाद का पक्षधर हूं जिसे बुद्ध ने उभय कल्‍याण कहा था। जो दोनों पक्षों को समान स्‍तर पर लाकर बन्‍धुता पैदा करता है। दोनों में सद्बुद्धि पैदा करता है। दोनों को लाभ होता है और संबन्‍ध प्रगाढ़ होता है। चाणक्‍य की ही बात करें तो ‘समे हि लाभे सन्धिस्‍यात्’ ।

कल आपने मुझे पराजित करना चाहा, खुल कर उस तरह बात नहीं की जिसमें अपनी गलती भी स्‍वीकार करते हुए इच्छित परिणाम न आने में अपनी भी विफलता स्‍वीकार की जाती है। उत्‍साह में इतने थे कि बोलने तक नहीं दिया। आप अपना बचाव करते हुए, अपने को निष्‍कलुष और दूसरे को दोषी सिद्ध करते रहे और तर्कश: कर भी ले गए। चाणक्‍य की नजीरों के सामने मेरी भला क्‍या चलती। परन्‍तु जो तीन बातें आपके ही कथन से, आपके इरादे के बिना ही निकलीं, उनमें पहला यह कि आपकी संस्‍था का जन्‍म असुरक्षा की भावना, या हिन्‍दुत्‍व खतरे में है, के बोध से हुआ और आप तो जानते होगे कि खतरे की चेतना खतरे के कारण को जड़ से मिटा देने का दबाव पैदा करती है, या इस मानसिकता को बनाए रखती है। दूसरी बात यह कि इसी के कारण आप सामाजिक सौमनस्‍य के लिए कोई पहल नहीं कर सके । तीसरी एक बात इसी से निकलती है कि अब आप थक और हार गए हैं। दूसरे को दोषी मान लिया जाय इतने से ही आप सन्‍तुष्‍ट हो जाएंगे।”

शास्‍त्री जी ने मुस्‍कराते हुए कहा, ”आपने तो डाक्‍साब मेरे सारे प्रयत्‍न पर पानी फेरते हुए मुझे ही अन्‍यायी सिद्ध कर दिया। आपके वाककौशल की दाद तो दे सकता हूं पर सन्‍तुष्‍ट नहीं हो सकता। आप कहते हैं हमने प्रयत्‍न नहीं किया। प्रयत्‍न तो वहीं किया जाता है जहां फल की आशा हो।”

”प्रयत्‍न कभी विफल नहीं जाता। रवि बाबू की वह पंक्ति याद है न !”

”कौन सी ?”

”याद आए तब न बताउूं । लेकिन उसमें कई व्‍याजों से कहा गया है कि यदि तुम्‍हारे प्रयत्‍न का इच्छित फल नहीं मिला तो भी यह न समझो कि वह व्‍यर्थ गया। पहले भी यह विचार हमारे चिन्‍तकों में रहा है, भतृहरि की वह पंक्ति, दैवं निहत्‍य कुरु पौरुषं आत्‍मशक्‍त्‍या। यत्‍ने कृते यदि न सिध्‍यति न कोत्र दोष: तो स्‍मरण होगा ही। आप थक के बैठ गए और आत्‍मसन्‍तोष के लिए दूसरों को कोस रहे हैं। थकान से भाग्‍यवाद पैदा होता है और प्रयत्‍न से विश्‍वास।”

”आप ही सुझाइये इसमें क्‍या किया जा सकता है? मेरी समझ में तो कुछ नहीं आता। आप ने देखा न कल फ्रांस में इतने शुभ दिन पर कितनी निर्ममता से इन्‍होंने क्‍या किया ! पूरी दुनिया में यही तो कर रहे हैं।”

”मैं आपके वाक्‍य को कुछ सुधार कर दुहराना चाहता हूं कि इनमें से किसी ने ऐसा कर दिया जो जघन्‍यतम है और इनमें ऐसे संगठन पैदा हो गए हैं जो हमारे ही नहीं विश्‍वशान्ति के लिए खतरा तो हैं ही, सबसे अधिक उनके लिए खतरा हैं।”

”चलिए, मान लिया। फिर?”

” उन कारणों का पता लगाना होगा जिनसे यह नौबत पैदा हुई है या कहें, उनमें बहुत बड़े पैमाने पर असुरक्षा की चेतना पैदा हुई है।”

”आप इनमें असुरक्षा की भावना की बात करते हैं। सच तो यह है कि इनके कारण दूसरों की असुरक्षा बढ़ी है। जिस पार्क में हम बैठे हुए हैं, उसका इतिहास पता है। वह हिस्‍सा जो अबुल फजल के सामने है क्‍यों पार्क में घुसा हुआ है। आप तो बहुत बाद में आए यहां, मैं बहुत पहले से हूँ जब इस सोसायटी का निर्माण कार्य पूरा हो गया, लोग रहने लगे तो इन्‍होंने पार्क में बढ़ कर एक मस्जिद बना ली, फिर उसकी सीध में दीवार खड़ी कर ली और उसके पीछे चारमंजिला फ्लैटों की एक पूरी कतार डीडीए की जमीन में बना कर बेच बाच कर अबुल फजल महाशय नौ दो ग्‍यारह हो गए।”

”आप मेरी ही बात को दुहरा रहे हैं। इनमें से एक चालाक आदमी ने धर्म की आड़ में सरकारी जमीन पर कब्‍जा करके उसका सौदा कर लिया और दूसरों को बेवकूफ बना गया और दूसरी सोसायटियों के लोगों ने, वे भी जो इससे प्रभावित हुए इसका विरोध नहीं किया।

“पर शास्‍त्री जी इस प्रसंग में आप यह भुला बैठे कि इसी पार्क के दूसरे सिरे पर जो टी के आकार का था, एक दूसरे धूर्त ने गोशाला के नाम पर कब्‍जा कर लिया, वहां राममन्दिर बना लिया और भीतर कुछ गायें पाल कर दूध का कारोबार करता है और, छाेडिपए, नहीं कहूंगा, नहीं तो आप आहत होंगे और मुझे भी कहते अच्‍छा नहीं लगेगा (ये तथ्‍य हैं, कल्‍पना प्रसूत विवरण नहीं)। यह व्याधि इस देश में व्यापक है क, योंकि संविधान में सेक्युलर शब्द भले डाल दिया गया हो हमारी सरकारें धार्मिक ढकोसले बाजों के हाथों में खेलती रही हैं। सेकुलर होने की जिम्मदारी यहां के नागरिकों ने संभाल रखी है तो फिर सरकार को इसकी फिक्र करने की जरूरत क्या है । ऐसे तो हमारे बुद्धिजीवी हैं जो खुद को ही सेकुलर मान बैठते हैं। यह तक नहीं मानते कि सरकार और राज्‍य सेकुलर होता है, आदमी नहीं, उसका मानवीय होना ही काफी है। मानवीयता न कि अनीश्‍वरता या अधार्मिकता समाज को उदार और सौहार्दपूर्ण बनाती है। गांधी धार्मिक थे, आस्तिक थे, जिन्‍ना सेकुलर और नास्तिक, पर अपना मतलब साधने के लिए सीधी कार्रवाई करा चुके थे और कराने की धमकी देते रहते थे। खुद अपने को सेकुलरिस्‍ट बताने वाला आदमी अपने को ही राज्‍य समझने लगता है। हमारे देश में सांप्रदायिकता भड़काने में इनकी भूमिका सांप्रदायिक संगठनों से भी अधिक है, पर है प्राक्‍सी से। इनमें कम घटिया और मक्‍कार नहीं मिलेंगे।”

”चलिए, मान लिया कि मक्‍कार और दुष्‍ट लोग सभी समुदायों में हैं, परन्‍तु मुझे ही क्‍यों, सारी दुनिया को लगता है कि मुसलमानों में कुछ अधिक हैं, यह तो मानेंगे ही आप। ऐसे में आप उपाय क्‍या सुझाते हैं?”

”मेरे पास कोई ऐसा नुस्‍खा नहीं है जिस पर अमल करते ही सारी समस्‍यायें सुलझ जाएं, न इसकी आशा करता हूं। इस तरह के तात्‍कालिक समाधान लोगों को भड़काने वाले मांगते हैं और वह चुटकी बजाते दूर नहीं हो पाता तो उनसे प्रभावित लोगों को बरगलाते हैं। मै तीन बातें सुझाना चाहूंगा।

”पहली तो यह समझ पैदा करना कि हाथ पर हाथ धरे बैठने और दूसरों को दोष देने से किसी समस्‍या का समाधान नहीं होता। आपको तो लगता है कौटिल्‍य कंठस्‍थ है, इक्‍के दुक्‍के टुकड़े मेरे भी हिस्‍से में आते रहे हैं इसलिए : अनुत्‍थाने ध्रुवो नाशो प्राप्‍तस्‍य अनागतस्‍य च । प्राप्‍यते फलमुत्‍थानात् लभते च अर्थ संपदम् । अर्थ तो आपको बताने की जरूरत नहीं।”

शास्‍त्री जी ने दबे स्‍वर में कहा, ”वहां उत्‍थान का अर्थ कुछ विशेष है, पर चलिए जो अर्थ आप लेना चाहते हैं वह भी चलेगा।”

”इसके बाद बुझी हुई आग में भी बचे अग्निकणों का संचय और नए उत्‍साह का संचार करना होगा। सभी समाजों में ऐसे लोग होते हैं जो विषम स्थितियों में भी अपनी मानवीयता का त्‍याग नहीं करते, वे ही सद्कार्यो में कैटेलाइजर की भूमिका निभाते हैं। उनकी खोज करना होगा और उनको आशा की किरण बनाना होगा।
”और फिर महाव्‍याधि के कारणों की पड़ताल और उसका विवेचन। व्‍याख्‍या स्‍वयं एक हथियार है और इसका असर अधिक व्‍यापक भी होता है, अधिक गहरा भी और अधिक टिकाऊ भी ।”

शास्‍त्री जी से रहा न गया, ”एक जगह की बात हो तो कुछ कहा भी जाय। ये तो जहां भी हैं, सर्वत्र यही देखने में आता है।”

मैं हंसने लगा, ”और कुछ समय पहले तक यह ऐसा देखने में नहीं आता था। यह अधिक से अधिक पिछले बीस वर्षों के बीच एकाएक उग्र हुआ। फिर प्रत्‍येक सन्‍दर्भ में यह देखना होगा कि वहां कब, क्‍या बदलाव हुए और उनमें किनकी पहल थी, और उसके पीछे उनके क्‍या इरादे थे और किन साधनों और युक्तियों कके बूते वे अपनी योजना में सफल हो गए।”

”क्षमा करें, डाक्‍साब, इस तरह के उपदेश सुनते उम्र बीत गई। इनसे ऊब और थकान पैदा होती है, आशा का संचार नहीं होता।”

मैं हंसने लगा, ”आप मुझसे कह रहे हैं कि आपकी उम्र बीत गई। आप सचमुच थक गए है, जवानी में ही बूढे हो गए हैं। मुझे उनकी तलाश करनी होगी जो थके, ऊबे और निराश नहीं हैं और आपको अधिक बूढा बनाने के लिए मुझे आपसे आपकी जवानी के कुछ वर्ष मांग कर लेने और अपने बुढापे के कुछ वर्ष आपको बदले में देने पड़ेंगे।”

शास्‍त्री जी ने हंसने की कोशिश की और हंसने में कामयाब भी हो गए। मैंने कहा, ”अब इस पर कल बात करेंगे। आज अाप सचमुच ऊब गए हैं।”