Post – 2016-07-07

घरों, गलियों में बात होती है।
गालियों में भी बात होती है ।।
काम चलता नहीं जबां से जब
गोलियों से भी बात होती है ।।

गंगा भी नहीं जमुना भी नहीं दजला पर पहुंच कर देखेंगे।
गर ठौर वहां पर मिल न सका तो वापस आ कर देखेंगे।
खुद अपने कभी तो बन न सके गैरों के बनेंगे क्यों हमदम
हम खुद को बदल पाते ही नहीं, पर उनको बदल कर देखेंगे।

‘तुमने कभी फेस बुक की दुनिया देखी है।’

‘फेसबुक क्‍या है यह जाना ही नहीं।’

‘ठीक कहते हो, जब मुंह दिखाने के काबिल न रहे तो फेसबुक पर आने में घबराहट तो होगी ही। खैर, मैं कभी फुर्सत मिली तो इधर उधर की टोह ले लेता हूं। दुनिया को समझने का इससे अच्‍छा कोई मंच नहीं। हर तरह के लोग, हर तरह की जबान, लोग नंगे हो कर भी सामने आ जाते हैं। नंगई पर भी आमादा हो जाते हैं और यह वहम पाले रहते हैं कि वे बहस कर रहे हैं, या दूसरे की मिजाजपुर्सी कर रहे हैं। इसी पर यह पता चलता है कि हिन्‍दुओं का एक हिस्‍सा आ‍दित्‍य नाथ जोगी की या वह कौन सी साध्‍वी है यार जब मुह खोलती है तो अम़त झरने लगता है, उनसे भाषा सीखते और बोलते हैं और आधे मुसलमान, हो सकता है वे दो तिहाई हों यार, मुसलमान तो जज्‍बाती होने के लिए कर्बला के समय से ही बदनाम हैं, चलो अनुपात पर बाद में समझौता कर लेंगे, पर वे बोलते औवैसी और भैंस चोरी करा कर पुलिस मुहकमे केा उसके पीछे लगा कर अपनी औकात दिखाने वाला वह आदमी जिसका भी नाम इस ऐन मौके पर भूल गया, उसकी जबान हैं। बुढ़ापा भी क्‍या बुरी चीज है, अपनी मौत की तारीख तक याद नहीं रहती।’

‘वह मुझे याद है, तुम फिक्र मत करो, होनी तो मेरे ही हाथों है। लेकिन तुमने यह कैसे सोच लिया कि भैंसे उसी ने गायब कराई थीं।’

‘इतनी मोटी अक्‍ल है तुम्‍हारी। अरे भई भैंसे बरामद हो गई चोर बरामद नहीं हुआ। ओर जानते हो उनको खोजने के लिए पुलिस कौन थी। जानोगे कैसे, मैंने यह बताया ही नहीं। वह मुख्‍यमंत्री की सुरक्षा गार्डों की टुकड़ी थी और आजम खां को यह सन्‍देश देना था कि मेरी भैसों की सुरक्षा मुख्‍यमंत्री की सुरक्षा से अधिक महत्‍वपूर्ण है। बेचारा तीन तीन सुपर मुख्‍यमन्त्रियों के नीचे काम करने वाला, तनहा आदमी जो हाथ जोड़ते और माफी मागते हुए दूसरों के किए को अपने सर लेता है।”

”फिर गया दिमाग, अब हो गई गंगा-जमुनी तहजीब की छुट्टी।”

”वह कब थी यार? कभी थी ही नहीं? जहां मुसलमान हों वहां गंगाजमुनी तहजीब हो ही नहीं सकती। यह उनके भूभौतिक यथार्थ से भी मेल नहीं खाता, मनोसामाजिक यथार्थ से भी नहीं और मजहबी यथार्थ से भी नहीं। देखो तो दजला और फरात कितनी लम्‍बी दूरी तक एक दूसरे के इतने करीब बहती हैं और मजाल कि बाढ़ के दिनों में भी मिल कर दिखा दें। तुम्‍हें पता है भारत में पहला सांप्रदायिक दंगा शिया-सुन्‍नी के बीच हुआ था और पाकिस्‍तान में हिन्‍दू इतने दबे हुए हैं कि विरोध और दंगा करने की भी जरूरत नहीं पड़ती तो सारे दंगे और बवाल शियाओं के साथ ही होते हैं। यह उनके फितरत में है ही नहीं, क्‍योंकि एकोहं द्वितीयो नास्ति, का वे अलग अर्थ करते हैं। यही कारण है आबादी का अनुपात बढ़ते ही दूसरों का उनके साथ रहना तो मुश्किल हो ही जाता है, उनके अपनों का यदि वे कुछ खुले खयाल के हुए तो, जीना मुश्किल हो जाता है इसलिए वे कुछ मसलों पर मुंह सी लेते हैं, कुछ पर सिले हुए मुंह से बात करते हैं नहीं तो जिन्‍दा बच भी जायं तो तस्‍लीमा का तरह देशबद्र होना पड़ जाय। वे उनके गुनाहों पर चुप रहते हैं और आप की ओर से छोटी से छोटी असुविधा पर देश छोड़ने की धमकी देने लगते हैं और लोग घबरा जाते हैं कि यदि यह रतन न रहा तो हमारा तो बाजार भाव ही गिर जाएगा।’

‘यह तुम्‍हारा कौन सा चेहरा है, इसे अब तक कहां छिपा रखा था यार। तुम्‍हें यह नहीं लगता कि तुम तिल का ताड़ बना रहे हो ।’

‘मैंं तिल का ताड़ बनाना तो दूर मैं तिल को सरसों तक नही बना सकता। सच इतना सादा और इसके बाद भी इतना डरावना होता है कि लोग उसका सामना नहीं कर पाते। सामना नहीं करेंगे तो हेरा फेरी करेंगे और समस्‍याओं काे सुलझाने की जगह और उलझाएंगे और सुलझाने का नाटक करते हुए परेशान दिखेंगे और फिर दोष किसी दूसरे पर मढ़ेंगे, कि मेरे इतने प्रयत्‍न के बावजूद अमुक के कारण समस्‍या सुलझ ही नहीं पाई। मैंने जो अभियोग लगाया वह तुम्‍हें अतिरंजित और काल्‍पनिक तक लगा होगा, इसलिए मैं माइक्रो लेवल की दो स्‍टडीज पेश करता हूं।

”राजेन्‍द्र यादव जब जीवित थे, हंस के जन्‍म दिन पर एक गोष्‍ठी किया करते थे, यह तुम भी जानते हो। एक गोष्‍ठी मे एक सबाल्‍टर्न हिस्‍टोरियन थे, जो संयोगवश मुसलमान थे और उनका अध्‍ययन चौरीचौरा कांड पर था जिसमें उन्‍होंने सिद्ध किया था कि उस कांड के नेता और शहीद होने वाले लोग मुसलमान थे। रहे होंगे। उन्‍हें शिकायत यह थी कि वह ज़ेर और जब्र के निशान अपने हिन्‍दी लेखों में बड़ी सावधानी से लगा कर भेजते हैं तब भी हिन्‍दी वाले उनका ध्‍यान नहीं रखते। यह तो एक तथ्‍य कथन था जिसके कारण रहे हो सकते है। हिन्‍दी में वैसे भी जलील और ज़लील में किसका मतलब क्‍या है यह सभी नहीं जानते। बिन्‍दी न रहने पर जानकार सन्‍दर्भ के अनुसार उसका अर्थ कर सकते हैं, नुक्‍ता गलत लग गया तो अनर्थ हो सकता है इसलिए अच्‍छा है हिन्‍दी में नुक्‍ताें से भी बचें और, चींं चां चूं से भी बचा जाय। पर उनको इसका इतना रंज था कि उन्‍होंने क्षुब्‍ध हो कर कहा कि क्‍या इसके लिए मुझे पाकिस्‍तान जाना पड़ेगा?

राजेन्‍द्र जी तो थे ही, नामवर जी थे, देशपांडे जी थे और दूसरे बहुत से लोग थे। सब उनकी आहत भावना से स्‍वयं आहत। अकेला मैं था जिसे इतनी छोटी सी वजह पर इतना बड़ा बखेड़ा सेक्‍युलरिज्‍म की परिभाषा से मेल खाती न लगी। उसके बाद मुझे बोलना था। मै सेक्‍युलर हूं और इसलिए कभी कह कर यह जताने की जरूरत नहीं समझी, और एेसे दागों से सेक्‍युलरिज्‍म की चुनरी बचाने की भी कोशिश नहीं की क्‍योंकि उसे कभी पहना नहीं आत्‍मसात किए रहा। उसके बाद मुझे किसी विषय पर बोलना था पर विषयान्‍तर हो कर भी मैंने इस पर कुछ कहा था, क्‍या, यह याद नहीं, पर सुन कर गमजदा चेहरों की चमक लौट आई थी।

” मैं यहां यह अर्ज कर रहा था कि भारतीय मुसलमान हिन्‍दुओं की सदाशयता में वृद्धि के अनुपात में ही इतना हाइपर सेन्सिटिव होता गया कि वह लिपि के सवाल पर देश और समाज को बांट सकता है और उस बंटे हुए देश के बचे हुए देश में रहते हुए नुक्‍ते के सवाल पर भी वही काम कर सकता है, और हमारे बुद्धिजीवी उनसे नुक्‍ते के छूटने के दर्द से इतने आहत हो सकते हैं कि किसी को यह याद दिलाने की भी हिम्‍मत नहीं हुई कि वह इतनी छोटी सी बात पर बौखला क्‍यों गया।

नुक्‍ते के छूटने के पीछे जिसमें किसी तरह की दुर्भावना नहीं थी, वह बुद्धिजीवी और कुछ दूर तक सेकुलर समझा जाने वाला नौजवान, लगेगा देश छोड़ने की धमकी दे रहा थाा ध्‍यान से सुनिए तो वह कह रहा था कि जब इस देश में मुसलमानों के नुक्‍ते तक के लिए जगह नहीं रह गई है तो मुसलमानों के लिए क्‍या होगी। पहले देश टूटा था अब वह समाज को तोड़ने का प्रयत्‍न कर रहा था। वह भी यह जानते हुए कि जिस पाकिस्‍तान में जाने की वह धमकी दे रहा है उसमें पहुंचे हुओं को इस नुक्‍ते के कारण ही लोग नफरत करते हैं, क्‍योंकि इसके साथ उन्‍हें गुश्‍ताखी की गंध आती है और इसलिए तब के गए हुए आज तक वहां मुहाजिर या शरणार्थी की बने रह गए हैं।

इस नुक्‍ते के लिए भारतीय भाषाओं में जगह नहीं और पाकिस्‍तान की बोलियां भी यहीं की बोलियां हैं इसलिए नुक्‍ते के सही उच्‍चारण में उनसे चूक होती है और इसके कारण उनकी फजीहत की जाती है। इस नुक्‍ते के कारण पाकिस्‍तान में भाषाई अस्मिताएं उर्दू के विरोध में खड़ी हो गईं और सिन्धियों ने ‘सिन्‍ध जिन्‍दावाब’ कहना आरंभ कर दिया पर इन्‍हीं शबदों में नहीं। उनका नारा था ‘जीये सिन्‍ध देश’ । पाकिस्‍तान जिन्‍दाबाद पाइन्‍दाबाद के मुकाबले, जीये सिन्‍ध देश । यह है इस अतिरिक्‍त जज्‍बाती आग्रह का नतीजा।

‘और एक दूसरा …।’

‘चुप कर यार। कल तुम्‍हीं ने तो गंगाजमुनी संस्‍क‍ृति की बात की थी आैर आज यह हाल…’

‘ वह कल की बात थी। मैं तुम्‍हारी तरह जड़ तो हूं नहीं कि एक बात हारिल की लकड़ी की तरह पकड़ कर लटका रहूं। ‘

‘मौकापरस्‍त हो यह तो देख ही रहा हूू।’

‘यदि तुम कुछ देख पाते तो सबसे पहले यह देखते कि यह गंगा-जमुनी संस्‍कृति वह है जिसे बनाए रखने के लिए इकतरफा कुर्बानियां दी जाती रही। गंगाजमुनी गाने गाए जाते रहे, ‘अल्‍ला ईश्‍वर तेरे नाम’ से ले कर सेक्‍युलर भारत में इफ्तार पार्टियों से ले कर हज के लिए राजकीय अंशदान तक। इसको बनाए रखने के लिए क्‍या क्‍या प्रयत्‍न कब कब किसी मुसलमान ने किए है, इसकी एक तालिका बनाओ।

‘पर यार सबसे बड़ी त्रासदी तो यह है कि मुझे लगता है मैं जो कुछ कहता हूैं उसका उूपर से विरोध करते हुए भी तुम उसे अक्षरश- मान लेते हो नहीं तो कल के वादे की याद न दिलाते। मेरे साथ दिक्‍कत यह है कि मैं सोचता हूें और कई बार तो अभी जो सोचा उस पर दुबारा सोचने पर उसी समय उसे गलत पाता हूं और बदल देता हूं। तुम भी सोचने की आदत डालो, चालीस साल से जहां थे वहीं खड़े हो, जिन मुहावरों में बात करते थे उन्‍हीं में आज तक बात करते हो। यथार्थ बदलता है, मुहावरे नहीं बदलते। यथार्थ का उन्‍हीं मुहावरो में समायोजन हो जाता है इसलिए तुम यथार्थ को नहीं देख पाते, मुहावरों पर टकटकी लगाए रहते हो। शब्‍द भंडार इतना सीमित कि खुले विचारों के लिए न जगह न शब्‍द।

‘दोस्‍ती अपनी जगह, विरोध अपनी जगह, पर मैं जो कहूं उसे मान लिया तो खासे अहमक आदमी हो । आज जो अभी कह रहा हूं उस पर भी विश्‍वास न करो। इसकी जांच करो। अभी तो मैं आंकड़े पेश कर रहा था। और तुमने बीच में ही रोक दिया। कल के लिए बहुत कुछ छूट गया है।’

‘तुमने आज तक ये जो तुम्‍हारे मुंहफट लोग और लुगाइयां हैं, जो कहते हैं जो भारत में रहने की उनकी शर्त नहीं मानेगा उसे बंगाल की खाड़ी में फेंक देंगे, पाकिस्‍तान भेज देंगे, उनकी आज तक, कभी, तुमने आलोचना की है?”

‘जरूरत नहीं समझता। वे वेचारे तो चीत्‍कार रहे हैं। चीत्‍कार इसलिए करते हैं कि कोई उनकी सुनता नहीं, वह तुमको दहाड़ सुनाई दे रही है तो अपने कानों की दवा कराओ। और फिर फुर्सत मिले तो मुहावरो की कोई किताब पढ़ो, कहीं न कहीं जरूर लिखा मिलेगा वार्किग डाग्‍स सेल्‍डक बाइट । भौंकने वाले कुत्‍ते काटते नहीं। काटने वाले काटने के पहले भी नहींं भौकते और बाद में भी नहीं भौंकते। मुझे चीखने वालों से डर नहीं लगता, चुप्‍पों से अंदेशा बना रहता है।’

‘भौंकने वाले माहौलन तो बिगाड़ते ही हैं।”

”उससे रौद्र रस की स़ृष्टि नहीं होती, हास्‍य रस की सृष्टि होती है, इसलिए तुम जिसे गंगाजमुनी तहजीब कहते हो उसे बिगाड़ने में इनकी भूमिका नहीं दिखाई देगी, यह तो विगड़ी हुई तहजीब के प्रकट लक्षण हैं और उनका तुर्की ब तुर्की जवाब देने वाले दोनों ओर होते हैं। यह उनका आपसी संवाद है। वे अपने समाज के लिए नहीं अपने अस्तित्‍व के लिए चिन्तित रहते है और माहौल की शान्ति और सुकून के बावजूद भौंकते हैं। समाज इसका आदी हो जाता है पर उस पर इनका असर नहीं पड़ता, असर कारगुजारियों का पड़ता है।

‘कमाल है भई। कमाल है। माहौल की शान्ति और सुकून के बावजूद भौंकते हैं परन्‍तु माहौल बिगाड़ते नहीं।

‘इनका होना जरूरी है। ये एक जरूरी काम करते हैं।सभी समाजों में ऐसे लोग होते हैं। तुम इन्‍हें पागल कह सकते हो, पर इनके होने से ही पता चलता है कि समाज जीवन्‍त है, यन्‍त्रचालित नहीं।

‘क्‍या कहें? इसका कोई जवाब हो सकता है?’

‘कहना चाहो तो कह सकते हो, अभी तक तो तुम मोदी की ही वकालत करते थे, अब बार्किंग डाग्‍स की भी करने लगे। पर तब जवाब में मुझे कहना पड़ेगा, तुम ठीक समझते हो, मैं बाइटिंग डाग्‍स की वकालत नहीं कर सकता। बार्किंग डाग्‍स तो वाच डाग्‍स होते हैं और फेस बुक पर तो ठट्ट के ठट्ट मिलते हैं। ”