Post – 2016-06-25

मैंने आज ऐसी पोस्‍ट पहली बार सार्वजनिक की जिसको पढ़ना उसकी लंबाई के कारण एक सजा जैसा था और उूपर से उसकी कुछ बातें कुछ मित्रों के लिए हृदयविदारक थीं। इसकी क्षतिपूर्ति के लिए मेरी पहली गजल जो 1963 में मसूरी में, एक ही रात में, लिखी पांच गजलों में से अन्तिम थी और जो पता नहीं कैसे जहां तहां से याद आ गई। इसे जब मैंने अपने किसी मित्र को सुनाया था तो उसने इसे कूडेदान में डालने की सलाह दी थी क्‍योंकि दूसरे ही शेर में तुक गड़बड़। पूरी गजल में ‘हो’ की तुक है इसमें ‘हों’। यह उर्दू में चलता नहीं और उस्‍ताद लोग इसी तरह की गलतियां सुधारते हुए शुअरा को नौसिखुआ से उस्‍ताद बनने का अभ्‍यास कराते रहते थे। मैंने कहा, यार यदि यह उर्दू में नहीं चलती तो हिन्‍दी में चला लेंगे। मैंने एक वाकया बयान किया। जयशंकर प्रसाद के यहां कभी राय‍कृष्‍णदास के साथ गुप्‍त जी पहुंचे और उन्‍होंने उन्‍हें कामायनी का प्रथम सर्ग सुनाना चाहा, प्रसाद ही ने पढ़ा, हिमगिरि के उत्‍तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छांह । एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था प्रबल प्रवाह । गुप्‍त जी अपने को रोक न पाए इस्‍लाह दे मारी, छांह की तुम प्रवाह से निभती नहीं। उन्‍होंने कहा नहीं, पर किसी जुगत से प्रवाह की जगह बांह होता तो चल जाता। प्रसाद जी ने कहा हेंह और सुनाने का प्रलोभन समाप्‍त। आज तक किसी ने कामायनी पर इस तुक के कारण उंगली नहीं उठाई। तो जो दरबारी संस्‍कारों में पली बढ़ी उर्दू ग़जल में मंजूर नहीं, वह हिंदी में चल सकती है जिसमें कथ्‍य सलीके से अधिक महत्‍वपूर्ण रहा है और थोडी दाएं बाएं की छूट रही है। इसी अधिकार से आज इसे आपकी वेदना की क्षतिपूर्ति के लिए पेश कर रहा हूं। पर मेरे मित्र की टिप्‍पणी का यह असर तो हुआ ही कि मैने मान लिया कि यह काम मेरे बस का नहीं और शायरी से मुंह मोड़ लिया। पर मैंने अपनी पिछली गजल में जिसमें काफी तालियां बजीं एक चूक की थी रक्‍स को रक्‍श लिख दिया था। एक मित्र ने सुझाया कि रक्‍़स करो तो रक्‍़स कर दिया पर अब सोचता हूे जिस‍ हिन्‍दुस्‍तानी का मैं कायल हूं उसमे आम लोग क़, ख़, ग़, ज़, फ्र का उच्‍चारण क, ख, ग, ज, फ के रूप में ही करते हैं इस लिए ज़ेर और ज़ब्र पर अधिक आग्रह न हो तो ही हिन्‍दुस्‍तानी जबान बन पाएगी जिसमें जानकार लोग उच्‍चारण दुरुस्‍त कर लिया करेंगे। अत: इसकी कमियों को सुझाने का आग्रह भी है क्‍योंकि इस घर को अपना घर बनाया ही नहीं।

अपनी मस्ती का ज़माना तुमको शायद याद हो ।
जी में जो आया किया होना है उसके बाद हो ।।
मैं हँसूँ तो यह अंधेरा खुद ही बन जाए मशाल
मैं चलूँ वीरानगी गुलजार खुद शादाब हो ।।
आदमी चाहे तो दुनिया को बदल सकता भी है
हाँ नजर में आने वाली जिन्दगी का ख्वाब हो ।।
क्या नहीं मुमकिन है इंसां के लिए ऐ दोस्तो
हाँ कि दिल में हौसला हो फैसला हो ताब हाे ।।
हाँ ज़रा ठहरो अभी आया अभी आता हूँ मैं
क्यों मेरी बर्वादियों मेरे लिए बेताब हो ।।