शंकानिवारण
‘’मैंने एक बार कहा था न तुमसे कि पिछले जन्म में तुम चारण रहे होगे। पहले मेरा जन्म‘ जन्माकन्तर में विश्वास नहीं था, तुम्हें देखने के बाद और तुम्हारी आदत को समझने के बाद हो गया, और यह विश्वास भी तभी तक रहता है जब तक तुम सामने रहते हो।‘’
मैं चुपचाप मुस्कराता रहा ।
’’तुम जिसकी भी प्रशंसा करना शुरू कर दोगे, तो एक तो कबित्त पूरा होने तक रुकने का नाम नहीं लोगे, और दूसरे यदि किसी ने कोई नुक्स गिना दिया तो तारीफ में एक और कवित्त रच दोगे। तुम्हें गंभीर बातों पर चिन्ता करना छोड़ कर तुकबन्दी ही करनी चाहिए। देखाे न इतनी खुल कर दाद मिलती है कि सामने की हवा भी आईने में बदल जाय और उसी में अपनी शक्ल निहारते हुए झूमते रहो।‘’
मैंने उसी तरह मुस्कराते हुए कहा, ‘’आज तो तुम्हीं कबित्त पर कबित्त सुनाए जा रहे हो, निन्दा में ही सही, जो पुराने चारण इनाम न मिलने पर किया करते थे। आखिर पता तो चले कि इसके पीछे तुक ताल क्या है।‘’
’’मैं क्या कहूंगा, अब तो तुम्हा‘रे दोस्त ही कह रहे हैं कि बकवास बन्द करो, तुम्हारे कहने से हम अपना विचार बदल लेंगे क्या। पहले उनका जवाब दो तब मुझे गांधीवादी ट्रस्टीशिप और वर्णव्यवस्था समझाना। तुम्हारे विवेचन का मूल्यांकन तो यह रहा: Bahut bhramak. Bas ek hi bat siddh hoti hai – Hindustan mai bhi democracy baki hai. Khuda kare yeh baki rahe.
”अब तुम्हारी समझ में आ ही जाएगा कि मैं मैंने भरी बोतल क्यों जमीन पर पटक कर तोड़ दी थी । वह पानी की बोतल न थी, वह तुम्हारा सिर था और जो बह रहा था उसको सही नाम तुम खुद दे लोगे। अब रहे तुम्हारे ही मित्रों के सवाल तो यह लो और यह लो वाले अंदाज में दे दनादन:
सवाल नंबर एक: गुरूजी एक प्रश्न है कि गाँधीजी को मुसलमान जब इतना मानते थे तो नोआखली में उनकी बात क्यों नहीं मानी ? गाँधीजी के सारे आंदोलन बीच में ही क्यूँ बंद हो जाते थे और सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस छोड़ने पर मजबूर क्यों किया ?
आपत्ति यह भी कि ‘’गाँधीजी में ईमानदारी, सच्चाई, दूरदृष्टि और निस्पृहता तो थी किंतु वे निरभिमानी/ निरहंकारी नहीं थे।‘’
और फिर: खिलाफत आंदोलन के समर्थन को लेकर उसके दुष्परिणाम के बारे में जिन्ना ने गाँधीजी को आगाह भी किया था। बाद में जिन्ना की महत्त्वाकांक्षा पाकिस्तान के निर्माण की ओर ले गई। केरल के मोपला आंदोलन के समय भी गाँधीजी ढुलमुलपन का शिकार रहे और विभाजन के समय भी। इस कारण पाकिस्तान में रहनेवाले हिंदू-सिख अनिश्चय का शिकार बने रहे।
और उूपर से एक और चोट। इसे भी संभालो: गांधी के सामजिक निर्णयों से तो सहमत हुआ जा सकता है लेकिन राजनीतिक निर्णयों से कतई नहीं ।राजनीति में देश समाज व धर्मद्रोहियों के प्रति कठोरता व जरूरत पड़ने पर उनका वध करना ही पड़ता है ।बबूल और केले के पेड़ एक साथ नहीं उगा सकते चाहे जितना बड़ा महात्मा हो । ईश्वर और अल्ला दोनों एक ही हैं इसे अल्ला के मानने वालों ने न तब माना था न अब मानते हैं । और यह बात फेसबुक के बाहर भी कही जाती थी लेकिन आवाज दबा दी जाती थी जो अब सम्भव नहीं ।”
”देखो मैं इनका जवाब दूं उससे पहले अपने प्रिय कवियों में से एक वाल्ट ह्विटमैन की कुछ पंक्तियां सुना दूं। इससे तुम्हें और मेरे मित्रों को भी गांधी को समझने में मदद मिलेगी:
I exist as I am, that is enough,
If no other in the world be aware I sit content,
And if each and all be aware I sit content. …
Do I contradict myself?
Very well then I contradict myself,
(I am large, I contain multitudes.) (Walt Whitman)
ये पंक्तियां हैं तो ह्विटमैन की परन्तु ये उस पर उतनी नहीं लागू होतीं, जितनी उन महान व्यक्तियों पर लागू होती हैं और जिनकी छवि में अपने को उतार कर कवि गण दर्पोक्तियां कर बैठते हैं।”
‘’रुक जाओ जरा नहीं तो बाद में भूल जाउूंगा, यह सांग आफ माइसेल्फ तो मुझे भी पसन्द् है, पर यह बताओ लीव्ज अफ दि ग्रास लिखने से पहले ह्विटमैन ने गीता या उपनिषद पढ़ा था या नहीं।‘’
‘’यह सवाल उसकी कविताओं को पढ़ने वालों के दिमाग में उठता जरूर है। शायद यह भी एक कारण हो कि हमें उसकी कविताएं बहुत अपनी सी लगती हैं। यह सवाल उससे पूछा भी गया था, और उसने कड़क उत्तर दिया था, नो, नाट ऐट आल। और अब इमर्सन उसके बारे में क्या सोचते थे इसे मेरी नोटबुक के एक पन्ने, से देख सकते हो-
When Thoreau, in Nov. 1856, came to tell him that his Leaves of Grass recalled to his mind the great oriental poems and to ask if he knew them, Whitman replied with a categorical ‘No’
[Fn. But he had read the ancient Hindoo poems before writing his Leaves of the Grass. See his own admission to his ‘A Backward Glance O’er Travelled Roads.’ Romain Roland, Life of Vivekanand and the Universal Gospel, F.F.Malcom Smith, 1960, p.58
Fn. Once or twice he mentioned Maya Calamus (कल्मष) “The basis of all metaphysics”., Avatar (Song of Farewell) and Nirvana (Sands at Seventy)”Twilight), but in the way of an illiterate, Nirvana, ‘repose and night, forgetfulness’. P.59
It is then all the more interesting to discover how without going beyond himself – a hundred percent American Self – he could unwittingly link up with Vedantic thought for its kinship and not escape any of the Emersion’s group beginning with Emerson himself whose genial quip is not sufficiently well known, “Leaves of the Grass seems to be a mixture of the Bhagwat Gita and the New York Herald.
इसलिए भारत के अतीत का मजाक उड़ाने का जो कार्यक्रम मिशनरियों ने हीन भावना के कारण अपने मजहब के प्रचार के लिए जमीन बनाने के लिए आरंभ किया और जिसे अपनी असाधारण समझदारी से भारतीय मार्क्समवादियों ने बिना सोच विचार के अपना दाय समझ लिया, उससे बाहर आए बिना न प्रगति को समझ सकते हो न विज्ञान को न आधुनिकता को। और गांधी को तो समझ ही नहीं सकते।‘’
’’आत्मश्लाघा एक तो सभ्य समाज में अशोभन मानी जाती है, दूसरे इससे आत्मरति पैदा होती है, और आगे देखने की जगह पीछे देखने की प्रवृत्ति पैदा होती है। इसलिए इससे बचा करो।‘’
‘’तुम खुद ही सवाल करते हो, उत्तर देने चलता हूं तो खुद ही बीच में व्यवधान डालते हो और भेजा बकरे से भी कम मिला है इसलिए पूरी बात सुनने से पहले ही गरम हो जाता है। इस तरह तो आज तुम्हें लाद कर ले जाना पड़ेगा।
”फिर भी यदि पूछ दिया तो इसे भी समझ लो। अपने बारे में पुरानी भूली बातों को याद करने से आत्म श्ला़घा नहीं आत्मबोध पैदा होता है, मैं कौन हूं और क्या क्षमता मुझमें है और मैं क्या कर सकता हूं। अपने सोये हुए शक्तिपुंज की पहचान पैदा होती है। अपनी या अपनों की मामूली सफलता भी आत्मविश्वास से भर देती है जैसे गामा पहलवान का गोरे पहलवान सैंडो को परा्स्त करने या राममूर्ति के योगसाधना की शक्ति प्रदर्शन से हुआ था या जापान की रूस पर विजय से हुआ था।
”किसी समाज को रौंद और कुचल कर रखने वाली ताकतें और योजनाएं अपनी प्रशंसा के लिए झूठी कहानियां गढ़ कर भी अपनी श्रेष्ठ ता का खुला प्रचार करती और दूसरे की वास्तविक उपलब्धियों को आत्मश्लाघा न हो जाय आत्मस्फीति न पैदा हो जाय का हौवा दिखा कर उन्हें हर तरीके से नकारते हुए उनके मनोबल को गिराने के लिए काम करती हैं जैसे यूरोपियनों ने आर्य आक्रमण, जाली तुलनात्मबक भाषाविज्ञान आदि गढ़ कर यह साबित करते हुए किया कि यूरोप सदा से सम्यता और ज्ञान का प्रेरक और उस एशिया की सम्यताओं का जनक रहा है जिनके उच्छिषट भोग से ग्रीक की महिमा का आरंभ हुआ था। उनकी उन्ही कहानियों को तुम जैसे लोग स्वरयं दुहरा कर अपनी हीनता, दीनता पर गर्व करते हुए अपनी रोटी मक्खन का इन्तजाम राष्ट्रीय अपमान की कीमत पर करते हैं। तुम जैसे बिके हुए लोगों की समझ में न भारत का अतीत समझ में आ सकता है न जामवन्त का हनुमान को उनके पराक्रम की याद दिला कर समुद्र पार करने की क्षमता जगाने का रहस्य समझ में आ सकता है और गांधी तो समझ में आ ही नहीं सकते । चलो इस बहाने तुम्हारे प्रभाव में रहने वाले पहले शंकालु की लघु शंका का निवारण हो चुका होगा। अब आराम करो, अगले सवालों पर जब सुनने का जज्बा पैदा हो जाय तब लौटेंगे। आधा घंटा तो लग ही जाएगा।
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अब जैसे तुमने मेरे मित्रों के कुछ सवाल पेश किये है वैसे ही मैं चाहूंगा कि वे गांधी जी के कुछ विचारों पर ध्यान दें तो हमें एक दूसरे के विचारों को समझने में मदद मिलेगी: However much I may sympathize with and admire worthy motives, I am an uncompromising opponent of violent methods even to serve the noblest of causes. There is, therefore, really no meeting-ground between the school of violence and myself.
But my creed of non-violence not only does not preclude me but compels me even to associate with anarchists and all those who believe in violence. But that association is always with the sole object of weaning them from what appears to me to be their error. For experience convinces me that permanent good can never be the outcome of untruth and violence. Even if my belief is a fond delusion, it will be admitted that it is a fascinating delusion. (यंग इंडिया 11-12-1924, p. 406) सोचो, सुभाष जैसे अनार्किस्ट जो एक अलग किस्म की व्यवस्था के पक्षधर थे जिसे वह बोसिज्म कहते थे कैसे कांग्रेस में रहे और उनमें किसी तरह का सुधार न देखकर गांधी जी ने उनसे मुक्ति पानी चाही।
But from what I know of Bolshevism, it not only does not preclude the use of force, but freely sanctions it for the expropriation of private property and maintaining the Collective State ownership of the same. And if that is so, I have no hesitation in saying that the Bolshevik regime in its present form cannot last for long. For it is my firm conviction that nothing enduring can be built on violence. (यंग इंडिया 15-11-1928, p. 381)
Socialism and communism of the West are based on certain conceptions, which are fundamentally different from ours. One such conception is their belief in the essential selfishness of human nature. I do not subscribe to it, for I know that the essential difference between man and the brute is that the former can respond to the call of the spirit in him, can rise superior to the passions that he owns in common with the brute and, therefore, superior to selfishness and violence, which belong to the brute nature and not to the immortal spirit of man. (आटोबायोग्राफी, 2-8-1934) मूल्यव्यवस्था के इस अन्तर को शायद तुम आज भी समझ न पाओगे।
I cannot accept benevolent or any other dictatorship. Neither will the rich vanish nor will the poor be protected. Some rich men will certainly be killed out and some poor men will be spoon-fed. As a class the rich will remain and the poor also, in spite of dictatorship labeled benevolent. The real remedy is non-violent democracy, otherwise spelt true education of all. The rich should be taught the doctrine of stewardship and the poor that of self-help. (हरिजन 8-6-1940, p. 159) बलप्रयोग से वह किसी की संपत्ति के हरण का विरोध क्यों करते थे । किसी ने उनका उपयोग किया या यह उनके सुचिन्तित विचारों का हिस्सा था।
I cannot accept benevolent or any other dictatorship. Neither will the rich vanish nor will the poor be protected. Some rich men will certainly be killed out and some poor men will be spoon-fed. As a class the rich will remain and the poor also, in spite of dictatorship labeled benevolent. The real remedy is non-violent democracy, otherwise spelt true education of all. The rich should be taught the doctrine of stewardship and the poor that of self-help. (हरिजन 8-6-1940, p. 159) गांधी मेरी समझ से अपने नैतिक बल के बल पर दूसरों को अपने अनुकूल ढालने और अपनी बात समझाने में सफल होते थे क्योंकि जो उनके विचार में था वही कर्म में। इच्छा, क्रिया और ज्ञान का यह संगम था।
और अन्तत:
I call myself a communist also….My communism is not very different from socialism. It is a harmonious blending of the two. Communism as I have understood is a natural corollary of socialism. (हरिजन 4-8-1946, p. 246)
तुम जानते हो मैं बहुत पढ़ा लिखा आदमी नहीं हूं क्योंकि इतने सारे क्षेत्रों में टांग अड़ाने से अपने को रोक नहीं पाता जिनमें से किसी एक का अधिकारी विद्वान होने के लिए किसी को पूरा जीवन लगाना होता है। इसलिए इतना सारा हाथ पांव मारने के बाद भी हाथ में जो आता है वह कुछ उड़ता उड़ता ज्ञान ही होता है। मैं यह नहीं मानता कि मैं अपने मित्रों में से किसी से अधिक जानता हूं। यह बात तुम जैसे दुश्मनों के विषय में भी मानता हूं कि तुम्हारी जानकारी अधिक होगी। मैं कविता से दूर भागता हूं और जब मजबूर हो जाता हूं तभी लगभग बनी और अधबनी पंक्तियों को दर्ज कर लेता हूं जो मेरे सोचविचार के क्रम में ही रास्ता रोक कर आ खडी होती हैं। कविता को इतना आसान या चलती राह कुछ टांक कर अपने को कवि मान लें यह कविता का सम्मान नहीं है। पर यदि मैं बहुत अच्छा कवि हो जाउूं तो भी मुझे जितनी भी प्रशंसा मिल जाय पर अपने पाठकों को आह्लाद के कुछ क्षण ही दे सकता हूं जब कि मेरे लेखन का लक्ष्य अपने समाज की सोच को बदलना है। विरोध और प्रतिरोध सह कर भी। उपेक्षा झेलते हुए भी । वह बेकार नहीं जाता, धीरे धीरे जगह बनाता है । गांधी जी के ही शब्दों में ‘’पहले वे तुम्हारी उपेक्षा करेंगे, फिर तुम्हारा विरोध करेंगे, फिर वे तुमसे टकरा जाएंगे और फिर तुम जीत जाओगे।‘’
मैं इसे गांधी जी को पढ़ने से पहले से जानता था और इसे जीवन में घटित होते देखा है। मैं जो गांधी जी पर यह ज्ञान बघार रहा हूं वह आनन-फानन में इधर उधर से जुटाया हुआ है, इसलिए मेरी डायरी में दर्ज उनके कुछ सूत्र तुम्हें देने के बाद तुमसे चाहूंगा कि तुम स्वयं इस मामूली सी पूंजी के बल पर उन प्रश्नों के उत्तर तलाश करने की कोशिश करो। गांधी में नम्रता के साथ अपार दृढ़ता थी। उसे अहंकार समझने वाले को आत्म निरीक्षण करना चाहिए। गांधी का तरीका था कि “In a gentle way, you can shake the world.” ये उन्हीं के शब्द हैं।
किसी कौम के साथ, भले वह हमारी नजर में बहुत बड़े पैमाने पर घटित दिखाई दे, इकहरी राय बनाना जिस महासंहार की दिशा में ले जाता है उस महासंहार का ही आरोप लगा कर आप उससे घ़णा करने लगते हैं। वही रास्ता अपना कर आप अपने को घ़णित बनाना चाहेंगे क्या । गांधी की समझ सीधी थी “An eye for an eye will make the whole world blind.”
गांधी किसी महान उद्देश्य” के लिए किसी तरीके से काम करने वाले का सम्मान करते थे, परन्तु वह अपने तरीके को सही मानते थे और उसमें व्यवधान बनने या बन सकने वालों को रास्ते से हटाने का प्रयत्न करते थे इसलिए वे भी उनका सम्मान तो करते थे पर उनसे सहमत न थे। सुभाष के मन को और उनके तेवर को वह जानते थे, उनकी क्षमता का सम्मान करते थे लेकिन ‘’तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’’ वाले इतने ओजस्वी नेता के लिए उस क्रांग्रेस में जगह नहीं थी जिसे उन्होंने एक भिन्न सिद्धान्तू में ढालने का प्रयत्न आजीवन किया था। नेहरू आर्थिक नीति में उनसे अलग थे, अन्य सभी मामलों में उनके अनुयायी थे पर अधकचरे।
और अंतत: सफलता या असफलता के सवाल पर “Glory lies in the attempt to reach one’s goal and not in reaching it.”
गांधी जी विचार और आचार और दृढ़ता को सबसे बड़ा हथियार मानते थे न कि हथियार को जिसकी होड़ ने गांधी को दुबारा संगत बनाया है। उन्हों ने कितने सारे पत्रों का संपादन किया : इंडियन ओपिनियन, यंग इंडिया, नवजीवन, हरिजन बन्धु्, हरिजन, हरिजन सेवक और फिर प्रतिदिन प्रार्थना सभाओं में उनके प्रेरक विचार। इतना बड़़ा पत्रकार कोई दूसरा हुआ हो तो मुझे पता नहीं। पर संभव है मैं गांधी को बिल्कुनल समझ ही न पाया हूं, गांधी को गढ़ कर ही उनको नमन करता होउूं। मुझसे सहमति नहीं विचार प्रक्रिया का जारी रहना और भावुक उदगारों से बचना जरूरी है। और जहां तक मुसलमान उन्हें प्यार करते थे या नहीं का सवाल है, ऐसे सवालों के जवाब दंगाग्रस्त परिस्थितियों से नहीं मिलता। वहां भी वह एक मुसलमान के घर ही ठहरे थे जहां से बच कर आ गए पर एक हिन्दू के हाथों जान गंवाई क्या इसके आधार पर कह सकते हैं कि हिन्दू भी उन्हें प्यार करते थे। केवल भ्रष्ट व्यक्तियों को छोड़ कर सभी गांधी का सम्मान करते हैं, भ्रष्ट उनका नाम तक इस्तेमाल कर ले जाते हैं।