नम्रता में भी वह पर्वत सा उठा लगता था
कमाल की बात तो यह कि वह आज सचमुच छड़ी की जगह पानी की बोतल ले कर आया था। पानी की बोतल का उसे एक ही उपयोग दिखाई दिया। बेंच पर हमारे और उसके बीच की सीमा तय करने के लिए गड़ी खूंटी की जगह लेना। मैंने इसे लक्ष्य किया। मुस्कराते हुए पूछा, ‘’तुम किस देश में रहते हो? पता है?’’
सवाल था ही बेतुका। उसने मुझे खीझ भरी दृष्टि से देखा जिसका हिन्दी, अनुवाद होगा, ‘क्यां बकवास करते हो।‘
मैंने समझाया, ‘’देखो एक दिन मैंने तुम्हें समझाया था कि हमारा देश महान है। जो दुनिया में कहीं नहीं मिलेगा, वह यहां मिलेगा, जैसे तुम्हारे जैसा नमूना। दुनिया के किसी अन्य देश का एक नाम होता है, कभी कभी दो भी हो जाते हैं, जैसे ब्रिटेन को हम लोग उसके एक हिस्से के नाम पर अक्सर इंगलैंड कह लेते हैं। हमारे देश के बहुत सारे नाम और रूप हैं, इंडिया, दैट इज भारत, हिन्दुस्ताल दैट इज हिन्दुस्थान, हिन्द, पाकेट्स आफ पाकिस्तान इन दि मेकिंग विदिन इंडिया, और एक्सपैंडिग पाकेट्स आप पोपेसी इन इंडिया। अन्तिम दो के निर्माण में नेहरू, तुम्हारा और हिन्दुस्तान को हिन्दुस्थान मानने वालों का भी कुछ हाथ है इसलिए पूछ लिया कि तुम किस देश में रहते हो?’’
वह और चिढ़ गया। ‘’तुम्हें बात करने की तमीज कब आएगी।‘’
‘’देखो सच बात तो यह है कि तुम सचाई का सामना करने से घबराते हो पर घबराहट दुर्गति को बढ़ाती है उसे मिटाती नहीं। तुम या तो इन सभी देशों को एक मानते हो, या इन सभी में रहना चाहते या अपने ही देश में टूरिस्ट की तरह विचरण करते रहना चाहते हो । मेरे सामने भी कई बार दिक्कत पैदा हो जाती है यह तय करने में कि मैं किस देश में रहता हूं कि तभी एक फिल्मी गाने से मदद मिल जाती है और अपने को या कोई पूछे तो उसे समझाते हुए बोल पड़ता हूं ‘मैं उस देश का बासी हूं जिस देस में गंगा बहती है।‘ पर यहां भी चैन नहीं मिलता, यही पंक्ति लौटती है तो सुनाई देता है, अबे रहता दिल्ली में जमुना के किनारे है और बताता है जिस देश में गंगा बहती है। यह भी नहीं जानता कि इसको अपनी गंगाजुमनी तहजीब पर नाज है न कि मैं गंगा की मौज और गंगा की धारा पर।‘’
अब वह थोड़ा नार्मल हुआ, हंसते हुए बोला, ‘’शैतानी से बाज नहीं आओगे। बस यही बताने के लिए मुझसे रूकने को कह रहे थे?’’
’’बताना यह चाहता था, कि गांधी के जमाने में भी इसके कई नाम थे, भारतवर्ष, हिन्दुहस्तान और इंडिया तो थे ही उसके भीतर रियासतों और रजवाड़ों के रूप में कई सौ छोटे छोटे हिन्दुस्थान और सलामिस्तान भी थे, और इसके कारण दूसरों को कई तरह के भ्रम थे, अकेले गांधी थे जो निश्चित रूप में जानते थे कि वह हिन्दु्स्तान में रहते हैं, इसकी भाषा और संस्कृति हिन्दुस्तानी होनी चाहिए जिसमें हिन्दू और मुसलमान और क्रिस्तान अपने धर्म, विश्वास और रीति-नीति से बिना किसी टकराव के रह सकें और ऐसी कारगुजारियों से बचें जिनसे दखलन्दाजी और अविश्वास और टकराव पैदा होता है। वह हिन्दुस्तान उनके साथ ही दफन कर दिया गया।
”तुमने ठीक कहा था वह हिन्दुओं की प्रार्थना गाते थे, अपने को हिन्दू कहते थे। वह किसी मुसलमान से नहीं कहते थे कि वह भी उनकी प्रार्थना सभा में आए और ऐसे भजन गाए। वह हिन्दुओं की मानसिकता में परिवर्तन लाने के लिए यह भजन गाते थे। उनके भीतर वह दोगलापन, क्षमा करो यह शब्द लापरवाही में निकल गया, दुहरापन कहना चाहता था, तो उनमें उस तरह का दुहरापन नहीं था जिसे तुम सेक्यु लरिज्म कहते हो। वह प्रार्थनासभा का आयोजन करते थे, मुसलमानों को खुश करने के लिए उन्हों ने कभी प्रार्थनासभा को जमाते बन्दगी जैसा … अरे यार जबान पर फिर वही शब्द आ रहा था, रास्ते में ही रोक लिया। तुमने देखा है वह चित्र जिसमें हमारे नेताओं में बहुत सारे जालीदार टोपी अपने सेक्युालरिज्मे का प्रमाण देने के लिए पहन लेते हैं।‘’
’’टोपी में ऐसा क्या रखा है कि इसे भी तूल देते हो। हम सभी अंग्रेजी पोशाक पहनते समय कभी इस तरह का मीन मेख करते हैं।‘’
’’कोट पैंट के साथ भी एक संदेश था परन्तु वह सन्देश मजहब से जुड़ा नहीं था। वह जुड़ा था सुविधा से और हैसियत से। पोशाक में इस तरह की ढील सदा से रही है यह तो शेरवानी, मिर्जई, कमीज, समीज, सलवार आदि शब्दों से ही प्रकट है ।पर जब इसका संदेश मजहबी हो तो एक नामुहमदन को इसका प्रतिरोध करना चाहिए। सच तो यह है कि इसका प्रतिरोध मुसलमानों को भी करना चाहिए था क्योंकि यह तो ईसाइयत से आई हुई चीज है, पर उन्हों ने अपना सब कुछ वहीं से लिया है, तीज त्यौहार तक, इसलिए उनकी बात अलग है।
”गांधी ऐसा नहीं कर सकते थे न कोई गांधीवादी ऐसा कर सकता है। गांधी चन्दन भी नहीं लगा सकते थे, गेरुआ भी नहीं पहन सकते थे। उनका सब कुछ एक आविष्कार था जिसमें परंपरा की गंध विश्वमानवता की गंध से और अन्तिम जन की वेदना के अन्तंर्नाद से सुवासित और ध्वनित था। वह अपने जैसा अकेला आदमी था – भीतर-बाहर एक होते हुए भी अपनी सरलता में ही रहस्यमयता का आभास देता था- सादगी और पुरकारी, बेखुदी और हुशियारी का अनन्य मेल जिसकी लंगोट के सामने सम्राट और उनके वायसराय भी सहमते थे। नम्रता में इतनी शक्ति, सादगी में इतनी महिमा कभी इससे पहले प्रकट हुई हो तो जिन्होंने उसे देखा होगा उन्हें हमने नहीं देखा।‘’
वह मेरी बात को अब बहुत ध्यान से सुन रहा था।
’’और जो तुम कह रहे थे कि वह अपनी प्रार्थनासभाओं में जो हिन्दू गाना गाते थे उसे लेकर मुसलमानों में मलाल था और रामराज्य नाम से उनमें व्यग्रता पैदा होती थी, वह तुम लोगों की पैदा की हुई थी। मुसलमानों के दो मुल्ला हैं, एक मजहबी और दूसरे सेकुलरिस्ट और जब तब बाद वालों के सामने पहले वाले घुटना टेक देते हैं। फिर भी मुसलमान उन ढोंगियों पर विश्वास नहीं कर सकता जो उसे खुश करने के लिए जाली टोपी पहन लेते हैं। अपने धर्म और विश्वास पर आस्था रखने वालों के प्रति उनमें एक सम्मान का भाव रहा है और मैंने स्वयं ऐसे लोगों के अनन्य स्नेह को देखा है। उसकी भाषा में कहो तो, ‘जो अपने दीन और ईमान का न हुआ वह हमारा कैसे हो सकता है।‘
” इसलिए मुसलमानों के मन में भी गांधी के प्रति उतना ही गहन आदर था। जिस इतिहास का उकेर कर जिन्नां ने अलगाव के बीज बोए थे वह सावरकर का तो हो सकता था, गांधी का नहीं। यहां मैं यह तय नहीं कर रहा कि सावरकर गलत थे या सही, वह गांधी को पचा नहीं सकते थे। सच्चा हिन्दू भी ढ़ोगियों पर विश्वास नहीं कर सकता, परन्तु गांधी के पंथ से किनारा कसने का एक परिणाम यह है कि पाखंड आधुनिक भारत का अघोषित धर्म बन गया है जिसके उत्थान में तुम्हारी भूमिका सबसे अधिक है और तुम्हारी सफलता यह कि तुमने उन अन्तर बाहर एक व्यक्ति को ही ढोंगी प्रचारित करने में शिक्षितों के एक तबके में सफलता अवश्य पाई।
’’और जो तुम कह रहे थे कि कांग्रेस का चवन्निया सदस्य हुए बिना भी पूरे दल को अपने इशारे पर चलाते थे तो पहले यह तो सोचा होता कि जिस व्यक्ति ने इतनी वीतरागता अर्जित कर ली उसके पास ऐसी कौन सी शक्ति थी कि दूसरे सभी उसके इशारे पर पुतलियों की तरह नाचने को तत्पर रहते थे। उसकी उस शक्ति का स्रोत क्या था? वह था आत्मबल, दूरद़ृष्टि जिसके सभी लोग कायल हो जाते थे, निस्पृ्हता और अपनी भूलों को सुधारने की लोच और ईमानदारी।
”इसीलिए कह रहा था, वह इस देश को समझते थे, तुम गांधी तक को नहीं समझ सके और अपनी पैशुनी वृत्ति से उनको कलंकित करने के प्रयत्न में लगे रहे।‘’
अब उसे कुछ घबराहट महसूस होने लगी थी।
‘’तुमने कभी बादाम खाया है? नहीं, नहीं, खाया तो होगा यह मैं जानता हूं पर कुछ दिनों तक अधिक मात्रा में खाया होगा तो यह समझ गए होगे कि इसके बाद कंडा बंध जाता है। खूनी पेचिस हो जाती है। बेचारी बकरी तो वैसे भी साग पात खाने के बाद भी लेंड़ी करती है, नियमित बादाम क्या पचाएगी। यह तुम लोगों का ही आविष्कार है जिसका सार सत्य केवल यह है कि गांधी की बकरी चरने के लिए जाय इसकी जगह उसे चारा और खल-चोकर अपने बथान पर ही मिल जाता रहा होगा।
’’देखो, मैं तुम्हें आहत करने के लिए नहीं कह रहा हूं। सचाई को समझने में तुम्हारी मदद कर रहा हूं। गांधी स्वराज्यं और सुराज को अलग करके नहीं देखते थे और उनके यहां पहले से इकट्ठा लोगों को भड़का कर अपना बनाने की धूर्तता न जैसा तुमने पहले मजदूरों के साथ किया और उनको मिटाने के बाद अब छात्रों के साथ कर रहे हो। वह भेदभाव किए बिना पूरे देश का आवाहन करते थे। यदि उसमें किसी रूप में किसी चरण पर पूंजीपति घरानों में कुछ जागरूक लोग यह साहस कर सके कि दमन के उस दौर में भी आन्दोलनकारियों की मदद करे या किसी आयोजन में आर्थिक सहायता देने को तत्पर हों तो यह गांधी की समस्या नहीं थी, वह तो नवविवाहिताओं से उनके जेवर तक उतरवा लेते थे।
”अन्तर केवल यह कि उसका राई रत्ती भी अपने लिए या अपनों के लिए नहीं खर्च करते थे। इस तरह के सवाल तो तुमको उठाना भी नहीं चाहिए क्योंकि तुम उन देशों का काम करते रहे हो जो तुम्हें पैसा देते रहे हैं मैंने इसलिए भी यह सवाल किया था कि तुम किस देश के रहने वाले हो क्योंकि तुम लोगों ने सदा देश के विरुद्ध उन देशों के लिए काम किया जिनसे पैसा मिला। दूसरे महायुद्ध में देश अंग्रेजो से असहयोग कर रहा था और तुम सहयोग कर रहे थे, क्योंकि तुमको पैसा देने वाला उनके साथ था। अब वह बिखर गया तो सुना मार्क्सवादियों और सेकुलरिस्टों की सबसे बड़ी जमात उन अनिवासी भारतीयों की है जो ईसाइयत के साथ मिल कर काम करता है कयोंकि उससे उसे पैसा और सम्मान मिलता है।
’’रुको, रुको यार, अभी तो बात पूरी हुई ही नहीं, वह वर्णव्यवस्था वाली और ट्रस्टीशिप वाली बात तो रह ही गई। उठ क्यों रहे हो?’’
’’तुम और तुम्हा्रा ट्रस्टीशिप जाए भाड़ में।‘’ उसने पानी की भरी बोतल उठाई और नीचे इतने जोर से पटका कि वह फट गई और पानी इधर उधर बहने लगा। दूसरी बेंचों पर बैठे लोग चौंक कर देखने लगे कि मामला क्या है!
23 जून 2016