दरपन मलिन मलिन छबि गहई
‘‘क्या तुमने पूरा गांधी वाङ्मय पढ़ा है ।”
‘‘एक बार उलट-पलट कर देखा था।”
‘‘उलट पलट कर देखने से तुम्हारा क्या मतलब है!”
‘‘मैं उन दिनों दिल्ली प्रशासन में था जिसे आज दिल्ली राज्य कहा जाता है। प्रशासन की लाइब्रेरी में कुछ पठनीय पुस्तकें त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी जो तब मुख्य सचिव थे और आदित्यनाथ झा जो लेफ्टिनेंट गवर्नर थे, के कारण उपलब्ध थीं। उस लाइब्रेरी का थोड़ा बहुत लाभ मैं भी उठाता रहा। एक बार गया तो देखा एक बड़ा सा गट्ठर बंधा पड़ा है। जिज्ञासा की तो पता चला संपूर्ण गांधी वाङ़मय है। अलमारियों में जगह नहीं, कोई पढ़ने वाला भी नहीं, इसलिए गट्ठर खोला ही नहीं गया। मैंने कहा, यह तो ठीक नहीं है। जरा खोलो तो इसे। लाइब्रेरियन ने गट्ठर खोला। अब तो यह भी याद नहीं कि कितने खंड थे, परन्तु इतने तो थे ही कि मैं उन्हें उठा नहीं सकता था! मैंने एक खंड को उठाया कुछ पन्ने उलटे फिर पलटे और रख दिया। फिर दूसरे तीसरे के साथ भी यही किया और तय किया कि इसे पढ़ पाना उसी के लिए संभव है जो गांधी जी से आतंकित होकर उनसे दूर भागना चाहता हो। मैंने उसके बाद दूसरी बहुत सी पुस्तके पढ़ीं, परन्तु गांधी वाङ्मय के किसी खंड पर हाथ नहीं लगाया। लाइब्रेरियन ने ही समझाया था, साहब यह पढ़ने के लिए नहीं है, विदेश का कोई अतिथि आये तो यह पूरा सेट उसे भेंट करने के लिए तैयार किया गया है। तो समझो मैंने एक बार उलटा-पलटा तो था पर पढ़ा नहीं।”
‘‘तुमने प्यारे लाल की डायरी पढ़ी है।”
इसके बारे में तो यह जानता तक नहीं था कि वह प्रकाशित भी हुई है।
‘‘तुमने घनश्याम दास बिड़ला की बापू की परसादी पढ़ी है।”
यह भी मेरे लिए नई सूचना थी। ‘‘परन्तु यदि इस पुस्तक से परिचित होता और वह मेरे सामने की मेज पर होती और मैं कोई और चारा न होने के कारण बोर हो रहा होता तो भी उसे नहीं पढ़ता। जो आदमी प्रसाद को परसादी लिख रखा है वह भी पढ़ने योग्य हो सकता है!”
”तुमने कुछ पढ़ा भी नहीं और फिर भी मुझे ही गांधीवाद समझाने लगे, गांधी और नेहरू का फर्क बताने लगे। और तो और, कम्युनिस्टों पर भी अपनी भड़ास निकालते रहे।”
‘‘देखो मैं जिन विषयों को नहीं जानता उन्हीं पर पूरे विश्वास से बात कर पाता हूँ। यह रहस्य तो मैंने तुम्हें भी बताया था कि अज्ञान आत्मविश्वास का जनक है। जितना कम जानोगे उतनी ही दृढ़ता से जानोगे और जिसे जानते हो उसे ही ज्ञान की पराकाष्ठा मानोगे! हां कुछ उड़ती फिरती बातों की जानकारी अवश्य होनी चाहिए, किसी चीज को समझने के लिए। परम ज्ञान में विषय गायब हो जाता है और ज्ञान ही विषय बन जाता है।”
”जब तुम कुछ नहीं जानते तो मुझसे सुनो। गांधी सीधे सादे व्यक्ति नहीं थे। भीतर से बहुत कांइयाँ थे। पाखंड ऐसा कि जैसे अपना कुछ नहीं, जब कि उनकी बकरी भी बादाम खाती थी। निस्पृहता ऐसी कि स्वयं कभी कांग्रेस के अध्यक्ष तक नहीं बने, कांग्रेस के चवन्नी के सदस्य तक नहीं बने और पूरी पार्टी को अपनी उंगलियों के इशारे से नचाते रहे। और उनके सारे कांइयापन के बाद भी हमारे पूँजीपति घराने, बजाज और बिड़ला, उनका भी इस्तेमाल कर ले गए। उन्होंने बिदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करा कर देसी धन्ना सेठों की चांदी कर दी और वे, इसीलिए, जब यह समझ गए आजादी तो मिल कर ही रहेगी तो उन्होंने उनकी सेवा आरंभ कर दी! अरे भई, गाय को भी पहले चारा देते हो उसके बाद ही तो उसे दूहते हो। तुम्हें पता है आन्दोलनों में के समय जो कांग्रेसी जेल चले गए थे उनके परिवारों को पैसा कौन देता था? गांधी के अछूतोद्धार के लिए बिरला ने कितना पैसा दिया था? उन्हें पता था कि यही आदमी अपने प्रभाव से हमारे कल कारखानों का राष्ट्रीकरण रोक सकता है। यही भारत में कम्युनिज्म को रोक सकता है। कम्युनिज्म के प्रति घृणा भी उनके मन में उन्हीं पूंजीपतियों ने डाली होगी। अगर एक शब्द में सुनना चाहो तो मैं कहूँगा, वह पूंजीपतियों के दलाल थे। पेट न भरा हो, कुछ और सुनना हो तो, बताओ!”
मैंने कुछ कहा नहीं, मुस्कराता रहा।
‘‘देखो, नेहरू आधुनिक थे, गांधी की सोच मध्यकालीन थी। वह यथास्थितिवादी थे। चाहे वह वर्णव्यवस्था का प्रश्न हो, या संपदा पर स्वामित्व। न तो वह जमीदारी प्रथा को समाप्त करने के पक्ष में थे न पूंजीवाद को। वह जिस ट्रस्टीशिप की बात करते थे वह एक दिवास्वप्न था, जिसे किसी भी दशा में व्यावहारिक नहीं बनाया जा सकता था। और गांधी का अहिंसा का रास्ता तो सुरक्षा की दृष्टि से आत्मघाती था। तुम जिस गांधी की बात करते हो वह उनकी प्रधान दुर्बलताओं पर पर्दा डालकर, उन्हें रियायतें देते हुए, अतिरंजना के सहारे गढ़ा गया महिमामंडित चित्र है! अन्तर्विरोध और कनफ्यूजन नेहरू की तुलना में गांधी मे अधिक थे। एक ओर तो वह ‘ईश्व र अल्ला तेरे नाम’ गाते थे और दूसरी ओर राम राज्य का आदर्श पेश करते थे जिससे मुस्लिम समुदाय में यह डर पैदा हुआ कि यदि भारत स्वतन्त्र हुआ तो यहां हिन्दू शासनतन्त्र स्थापित होगा जिसमें मुसलमान सुरक्षित रह नहीं सकते। मुसलमान उनके भजन को भी बर्दाश्त करते रहे, क्योंकि यह हिन्दू भजन था…”
मेरे मुंह से बिना सोचे ही निकल गया, ‘‘हिन्दू भजन!”
‘‘हाँ भई, वैष्णव जन की बात, वह पीर पराई जानेगा या नहीं, यह तो बाद की बात हुई। और वह ईश्वर अल्ला तेरे नाम भी हिन्दू भजन है। तुम्हारे तो परमात्मा के हजार नाम हैं उसमें गाड, खुदा, अल्ला, रहीम, करीम सब जोड़ लो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। विष्णु के बगल में अल्ला को भी रख दिया जाय तो तुम्हें फर्क नहीं पड़ने वाला। हिन्दुओं ने ही अल्लाहोपनिषद लिखा था न! परन्तु उनको तो यह स्वीकार ही नहीं कि अल्लाह के अलावा कोई दूसरा, किसी दूसरे नाम से अस्तित्व में हो या किसी और को अल्लाह की बराबरी में रखा जाए। वे इसे सहते रहे और रामराज्य पर मन ही मन कसमसाते रहे थे। पाकिस्तान की मांग के लिए केवल गांधी जिम्मेवार थे। खिलाफत आन्दोलन के बारे में तो कुछ कहना ही नहीं। अब समझ में आया कम्युनिस्ट गांधी का क्यों विरोध करते थे ।”
मैंने कहा, ‘‘मैं तो सोचता था कि तुम भजन कीर्तन में विश्वास नहीं करते, आज मुझे लगा मैं गलती पर था।”
इतना प्रभावशाली विवेचन करने के बाद वह इतने उत्साह में था कि अब इस इन्तजार में था कि मैं उसके सामने अब ढेर हुआ कि तब । अपेक्षा के विपरीत मेरा प्रश्न सुन कर उसका हाल उस व्यक्ति जैसी हो गई जो आवेश में आगे बढ़ कर किसी को पकड़ने के लिए तिरछा हुए शरीर और बढ़े हाथ की पकड़ की चूक से स्वयं मुँह के बल गिरने गिरने को आ जाय।
‘‘मैं किसी का भजन कीर्तन नहीं करता! यह तुम जाहिलों का काम है! एक ही वाक्य को लगातार रटते रटते उस इबारत का अर्थ तक समाप्त हो जाता है!”
‘‘मैं इसीलिए कह रहा था! पिछले सत्तर सालों से गांधी के बारे में तुम जिस तरह का दुष्प्रचार करते रहे उसकी एक एक इबारत तुम्हें याद है, यह नियमित भजन के बिना तो संभव है ही नहीं ! और तुमने ठीक कहा, अगर लगातार एक ही तरह की बात को दुहराते चले जायँ तो दिमाग सुन्न हो जाता है और उसका अर्थ ही नहीं रह जाता! मैं तुम्हें समझाता हूं। पर आज तो तुम्हारा माथा अपने ही आवेश में गर्म हो चुका होगा! समझ पाओगे।”
उसने कोई जवाब नहीं दिया और कुछ उखड़े हुए मन से छड़ी सँभाली और चलने को उठ खड़ा हुआ।
मैंने कहा, ‘‘चलो, कल सही! पर एक काम करना। कल छड़ी की जगह ठंडे पानी की एक बोतल लेकर आना।”
उसने मुड़ कर देखा तक नहीं!