कुछ भाव की कुछ बेभाव की
आज वह सचमुच छड़ी लेकर आया था। ‘’हां अब बोलो!’’
‘’बोलने को तो एक ही बात है यार, कि प्रतिरोध क्षमता कम हो जाय तो बीमारियों का अन्त नहीं होता। स्वत्व खोकर दूसरे जैसा बनने की कोशिश में तुम दूसरा तो बन नही पाते, आत्मबल भी क्षीण होता जाता है, प्रतिरोध क्षमता घटती जाती है और फिर समस्याएं इतनी अधिक और उग्र हो जाती हैं कि तुम उनको ठीक से देख नहीं पाते हो, एक को समझने चलते हो तब तक दूसरी प्रचंड रूप धारण कर लेती है, समाधान तलाशने के लिए जिस सुस्थिरता और घैर्य की अपेक्षा होती है वही चुक जाता है।
‘’हमने आज तक अपनी समस्याओं से मुंह चुराया है, अपनी छोटी से छोटी समस्या का समाधान करने की दृढ़ इच्छाशक्ति प्रकट नहीं की। यह दृष्टि और संकल्प केवल गांधी में थी, समस्या की पहचान भी, समाधान का संकल्प भी और समाधान की योजना भी, उसके लिए अहर्निश प्रयत्न भी। और इसका निपट अभाव, भारतीय समाज, संस्कृति, मनोरचना किसी को भी समझने के प्रति दारुण उपेक्षा और किसी भी कीमत पर जल्द से जल्द सत्ता हासिल करने की व्यग्रता कम्युनिस्टों में थी! हमारे वामपंथी विचारक भले हमेशा हाशिये पर ही रहे हों, पर सबसे अधिक मुखर वे ही रहे हैं और नौजवानों में सबसे अधिक नहीं तो भी बहुत अधिक लोकप्रिय आरंभ से ही रहे क्योंकि नौजवान में जोश होता है, वह भी एक झटके में ही कुछ कर गुजरने और बदलने को आतुर रहता है! नौजवानों के पास सपना था पर समझ नहीं, कम्युनिस्टों के पास सपने बेचने का एकाधिकार था परन्तु न समझने की योग्यता, न अपना दिमाग नहीं, न परिश्रम करने की आदत! लगभग सभी आरंभ से समाज के परजीवी तबके से निकले हुए थे और अपना जनाधार तैयार करने के लिए किसी भी कारण से एकट़ठा हुए जत्थे जहां भी मिल जायं उनको झपटने की तैयारी में रहते थे और आज तक रहते हैं! वे कारखानों के मजदूर भी हो सकते थे या कालेजों और विश्वविद्यालयों के छात्र । डनकी जनता में पैठ कभी बनी ही नहीं! इसे दुबारा दुहरा दूं कि वे अमर बेलि की तरह पहले से लहराते हुए झाड़ो और झाड़ियों पर छा जाना चाहते थे।
‘’गांधी इस देश की रंग रंग को समझते थे और ये गांधी तक को समझने की योग्यता नहीं रखते थे इसलिए उनको अव्यावहारिक ठहराने में सबसे बड़ी भूमिका इनकी ही रही। अपनी दर्शनी वामपन्थिता के कारण उसका बुखार नेहरू पर भी पड़ा।
‘’गांधी जी के सामने बहुत पहले से साफ था कि स्वतन्त्र भारत का प्रधान नेहरू को न बनाया गया तो उनकी भूमिका जिन्ना की तरह ही सत्यानाशी हो सकती है। गांधी जिन्ना के बाद कोई दूसरा सत्यानाशी पैदा करने का साहस जुटा नहीं सकते थे। इसलिए यह जानते हुए भी कि उनके सपनों को साकार करने की क्षमता, सादगी और समर्पण भाव पटेल में ही है, वह अपने को समझा चुके थे कि नेहरू की महत्वाकांक्षा की राह में वह नहीं आएंगे! वह बार बार उनको ही अपनी कार्ययोजना के महत्व को समझाने का प्रयत्न करते और यह प्रयत्न अन्तिम दिनों तक जारी रहा, पर नेहरू उन्हें पिछड़े दिमाग का मानते थे और उनके सुझावों का उनके सामनेसे भी विरोध करते थे। उनकी समझ थी कि दुनिया इतनी आगे बढ़ गई है कि इतने पीछे लौट कर शुरुआत करना देश को पीछे ले जाना होगा! वह एक झटके में देश का दुनिया के विकसित देशों की बराबरी पर लाना चाहते थे और उनके यहां जो विकास हो चुके थे जल्द से जल्द कर दिखाना चाहते थे। नेहरू जी स्वयं भी इस विषय में सचेत नहीं थे कि वह अन्तर्विरोधें का संगम थे और इसलिए उूपर से बहुत सुलझे दिखाई देने के बाद भी भीतर से नितान्त भाववादी, स्वप्नजीवी और बहुत कन्फयूज्ड थे। नानएलाएन्ड की कल्पना, मिश्रित अर्थव्यवस्था का चुनाव, आधा अमेरिका आधा सोवियत संघ बराबर भारत का भविष्य में इसे देखा जा सकता है। परन्तु उस दौर में जो आभामंडल था उसमें मेरी तो कोई औकात नहीं, बड़े बड़े भी इसे भांप नहीं सकते थे।
” गांधी की दृष्टि साफ थी। उनके चिन्तन में अन्तर्विरोध न था! उनकी योजनाओं में एकांगिता नहीं थी, उनके सामने केवल सत्ता नही, समाज की गरिमा थी। अपने समाज की सीमाओं में संभव उपायो को ध्यान में रखते हुए, शिक्षा, कौशल और रोजगार, शिष्टाचार, आरोग्य, और नैतिक आत्मोत्थान सभी पक्षों का एक समन्वित कार्यक्रम उनके पास था। कहें, उनके पास वह था जिसके आश्वासन लोकतन्त्री व्यवस्था में लोग सत्ता पाने के लिए करते हैं पर न उसका खाका उनके सामने होता है न उसकी याद उन्हें बाद में आती है। ‘’
उसने कुछ कहा नहीं, गला साफ किया और छड़ी को बाईं ओर से दांए हाथ में लंबवत पकड़ कर उसकी मूठ अपनी मुट्ठी में ले ली।
मैंने मुस्कराते हुए उसकी चेतावनी का सम्मान किया, ‘’गांधी जी नेहरू को केवल यह समझाना चाहते थे कि सबसे समृद्धि और सुख को बढ़ाने से भी अधिक जरूरी है। यह आदर्श राज्य की युगों पुरानी भारतीय अवधारणा थी, जिसमें आदर्ष राज्य की कसौटी थी दैहिक, दैविक, भौतिक ताप से समस्त प्रजा को मुक्ति दिलाना! प्रहृष्टम मुदितो लोकः तुष्ट : पुष्टि: सुधार्मिकः । निरामयो हृयरोगष्च दुर्भिक्ष भय वर्जितः !! …न चापि क्षुद्भयं तत्र न तस्कर भयं तथा! नगराणि च राष्ट्राणि धनधान्य युतानि च!
”गांधी अपने कामगारों को उनका कारोबार और पुराना औजार और उपकरण वापस कराना चाहते थे जिसके उत्पादों का मुकाबला ब्रिटिश पूजीपति अपने मशीनी उत्पाद से भी नहीं कर पा रहे थे और इसलिए उन्होंने इसे बलप्रयोग से बन्द किया था। उससे आगे का विकास वे स्वयं अपनी आवश्यकता, प्रतिभा और साधनों के अनुसार करते जाते। यह वह रास्ता था जिसे कम्युनिस्ट चीन ने अपनाया और किसी भी अन्य देश की अपेक्षा अधिक तेजी से विकास किया। गांधी का रास्ता आर्थिक आत्मनिर्भरता, आत्मिक और बौद्धिक स्वतंत्रता और दूरगामी विकास का था। नेहरू इसे समझने में अक्षम तो थे ही, हमारे अधिकांश बुद्धिजीवी आज भी इसे समझने में अक्षम हैं इसलिए इसके लिए अकेले नेहरू को दोश देना भी सही नहीं है।‘’
वह मुस्कराने लगा! छड़ी को उठा कर दो तीन बार नीचे की ठक् ठक् बजाया पर बोला इस बार भी नहीं! मुझे भी लगा कि यदि यह काम यह पहले से करता तो हमारा बहुत सारा समय इधर उधर की बातों में बर्वाद न हुआ होता! मैंने जब उससे अपना विचार प्रकट किया तो उसने कहा, ‘’जानते हो तुम क्या कह रहे हो और इसका इनाम क्या होता है।‘’
मैं सचमुच इस विषय में सावधान नहीं था, बल्कि यह भी तय करने से पहले ही कि इसे उससे कहना चाहिए या नहीं, असावधानी में ही कह गया था! उसी ने बताया, ‘’तुम अपनी जबान नहीं बोल रहे थे, विज्ञापनों के एक घिसे हुए जुमले को दुहरा रहे थे, और इसका इनाम था, थप्पड !’’
‘’बात तो तुम्हारी ठीक लगती है पर इस तर्क से तो थप्पड़ तुम्हें पड़ना चाहिए था कि तुमने पहले छड़ी का ऐसा उपयोग क्यों न किया, पर मैं चाह कर भी तुम्हें थप्पड मार नही सकता था क्योंकि तुम्हारे हाथ में छड़ी है।
‘’देखो, दीवानगी में भी होश न खोने वाले पतंग लौ पर जान देने की जगह उस के चारों ओर मडराते रहते हैं! मैं विषय से भटक कर भी विषय के आभावृत्त में ही मंडराने वालों में हूं इसलिए मेरे कहे का जो व्यर्थ लगा वह भी व्यर्थ नहीं है।
‘’मैं कह रहा था कि आत्मनिर्भरता की नीति से हट जाने के कारण हमने परजीवियों की और पीड़कों की जमातें पैदा की जिनके अनन्त रूप तैयार हुए जो तेजी से आगे बढ़ने और ऊपर चढ़ने की उसी आतुरता की अभिव्यक्तियां थी जिसमें नेहरू जी एक झटके में भारत को पश्चिम की बराबरी पर लाने के लिए व्यग्र थे और इससे उपजी विडंबनाओं को उग्र रूप धारण करने से पहले ही रोकने के लिए मध्यकालीन आडंबरों को अपनाना पड़ा जिनमें यतीमखाने, लंगर, सदावर्त, धर्मशालाओं के नए रूप आए।
”गांधी की योजना में आत्मोत्थान की चुनौतियां थीं, दैन्य और कातरता के लिए जगह नहीं थी! व्यवस्था ने ही यह संभावना पैदा की कि कुछ लोग बहुत अधिक धनी हो जाएं और दूसरे पहले से अधिक विपन्न हो होते हुए आदमशक्ल कीड़ों में बदल जाएं। तन्त्र बड़े उद्योग के साथ था, धनिको के साथ था इसलिए गरीबों को अपनी सदाशयता के जाल से छलने की कोशिश में उसे यह तो करना ही था! परन्तु ये वे टोटकेके हैं जिनसे मनुष्यता का पतन होता है! देश स्वाभिमानी बनने की जगह परजीवी बनता चला जाता है और परजीवी बनने का अर्थ है जीवट का अभाव। अब उन समस्याओं के समाधान के लिए वह सरकार का मुंह देखने लगता है जो उसकी निजी हैं और जिनका समाधान वह स्वयं कर सकता था, पहले से करता आया था। राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे लोगों की संख्या में निरंतर वृद्धि, जाटों, कुर्मियों और पटेलों जैसी स्वाभिमानी जमातों से उतर कर टुकड़खोरी के लिए संघर्ष करना इसी प्रक्रिया का हिस्सा है!’’
उसने छड़ी पर कुछ इस तरह का दबाव डाला कि जिसका अर्थ था, वह उठ कर चलना चाहता है!
मैंने कहा, ‘’रुको! मैं जानता हूं तुम्हारे दिमाग में कितनी बातें अंट सकती हैं! अधिक कुछ नहीं कहना है, बस यह पूछना है कि गांधी अपने देश, समाज और इतिहास की जनवादी समझ रखते हुए आधुनिक और अपने समय से अधिक आगे थे या किताबों से देश को समझने वाले और किताबी दुनिया में ही कैद रह कर मध्ययुग के नुस्खों की वापसी कराने वाले नेहरू आधुनिक थे। और एक बात और, इस बात पर गौर करो कि जिस प्रगतिशीलता और प्रगतिवाद के डंके बजाए जाते रहे उसमें दुखी मनुष्य के नाम पर बहुतों की अपेक्षा अधिक सुखी रोजगार पाए हुए मिल मजदूरों के लिए जगह थी, पर यातना के दूसरे रूपों के लिए नहीं! और उन्हीं के कारनामों से मिलें बन्द हुंईं, मिल मजदूर बेकारों की जमात में शामिल हो गए, और पहले से अधिक विपन्न और बेसहारा हो गए। सामाजिक भेदभाव के सताए और अस्पृश्य समझे जाने वालों ने यदि पहली बार किसी को अस्पृश्य समझा तो तुम्हे और तुमको पता ही नहीं!
तराना पुराना ही गाते रहेंगे
हम लोगों को लल्लू बनाते रहेंगे!
बहुत फायदे हैं, इन्हें गिन के देखो।
हम आने ही वाले हैं आते रहेंगे।
आलसी, धूर्त, कामचोरों और लफ्फाजों की इतनी बड़ी और इतनी ताकतवर जमात जो पसीना नहीं बहा सकती पर खून बहा सकती है, इतिहास में पहली बार पैदा हुई जिसने एक अच्छे खासे दर्शन को कर्मकांड में बदल दिया और वामपंथी शंकराचार्यों से बौद्धिक जगत को भर दिया।