क्षेपक का शेष
”तुम्हें पता है सभी सभ्य देशों में लोग कुत्ते पालते है ।”
”सभ्य न कहो, आगे बढ़े हुए देश कहो। सभ्य लोग कुत्तों से दूरी बना कर रखते हैं। वे कुत्तों का पोसते हैं, पालते नहीं।”
”अरे यार, पालने और पोसने में क्या फर्क पड़ गया । शब्दों का फेर है।”
”पालने में अपना बना कर रखने का भाव है। पोसने में उनको उपयोगी पाकर उनके पोषण के लिए के लिए अपने आहार में से कुछ निकाल कर बाद में उनके लिए रख देने का भाव है जैसा भारत में गांवों में आज भी किया जाता है। ये सामाजिक कुत्ते होते हैं। पूरे मुहल्ले की पहरेदारी करते हैं।”
”परन्तु वे उतने स्वामिभक्त नहीं होते जितने पालतू कुत्ते।”
”तुम्हें कहना चाहिए वे उतने गुलाम नहीं होते जितने सामाजिक कुत्ते परन्तु यदि कोई उनका नियमित प्राप्य देता रहता है तो वे इतने सहायक होते हैं जिसकी कल्पना पालतू कुत्तों से नहीं की जा सकती। मैंने एक बार अपने पास पड़ोस के एक कुत्ते का किस्सा तुम्हें सुनाया था जिसके लिए मैं कुछ अंश निकाल कर बाहर उसके लिए बने बर्तन में डाल दिया करता था और उसे इसका समय पता था इसलिए पहुंच जाता था। वह मेरी बेटी को कालेज जाने के समय कहीं भी होता, लगभग एक किलोमीटर दूर तक बस अड्डे तक छोड़ने जाता। जब तक बस नहीं आ जाती और वह उसमें बैठ नहीं जाती वहीं खड़ा रहता, और फिर अपनी चाल से लौट आता। यह काम पालतू कुत्ते नहीं कर सकते क्योंकि उनको वह आजादी नहीं मिली होती है जो इन कुत्तों को मिली रहती है।”
वह हारे हुए की तरह चुप लगा गया ।
मैंने कहा, ”पश्चिम में अधिकांश समाज अभी कुछ शताब्दी पहले तक चरवाही पर पलते रहे हैं और उन्हें कुत्तों को उसी तरह पाल कर रखना होता था जैसे कई बार हमारे यहां भी भेड़ पालने वाले करते हैं। अपनी भेड़ों को भेडियों से बचाने के लिए भी उन्हें इसकी जरूरत होती। फिर गुलामी का दौर आया और गुलामों को डराने, धमकाने, भागने से रोकने के लिए पालतू कुत्तों की जरूरत होती। गुलामों की सेवा के आदी समाज को अपना हुक्म मानने वाले जान वर की जरूरत अनुभव हुई और उसका परिणाम है ये विविध प्रकार के कुत्ते।
”इसलिए कुत्ता पालने का सभ्यता से कोई सीधा संबन्ध नहीं, कुत्तों को पोसने का कुछ हद तक हो सकता है।
”हमारे यहां कुत्ता पालने वाले उनके कुत्तों से भी गए बीते हैं, क्योंकि उनके कुत्तो के लिटर का खयाल वे खुद रखते हैं। हमारे यहां उनकी नकल तो करते हैं लेकिन नकल करने वालों में आत्मसम्मान का भाव नहीं होता अन्यथा मुंह बिदकाने वालों का नित्य सामना होने के बाद वे अपनी आदत में तो कुछ सुधार करते। रास्ता चलना मुश्किल कर देते हैं ये कम्बख्त।”