सो जानइ जेहि देइ जनाई
”तुम्हें पता है नेपाल के उनहत्तर साल के एक आदमी ने स्कूल में बच्चो के साथ पढ़ने की ठानी है।”
‘’देखा तो मैंने भी था। बहुत दिलेर आदमी है।‘’
‘’तुम कब भर्ती हो रहे हो?‘’
’’मैं हंसने लगा तो बोला, “तुम्हारी गणित बहुत अच्छी है, पूरे सौ तक की गिनती एक सांस में गिन सकते हो सीधी भी उल्टी भी। भरती हो जाओ तो औवल आओगे।‘’
उसने ठहाका लगाया तो उसमें मैं भी शामिल हो गया। संभला तो बोला, ‘’जब तुम किसी विषय की व्याख्या करते हो तो तुम्हांरे निष्कर्ष इतने साफ और अकाट्य लगते हैं जैसे दो धन दो बराबर चार का गणित। लेकिन जब असलियत पर गौर करो तो तस्वीर उल्टी दिखाई देती है। तुम क्या सोचते हो तुम्हारे कहने से दलित और पिछड़े और तंगहाल लोग शिक्षा में अवसर की समानता की जंग छेड़ देंगे।‘’
’’मैं इतना आशावादी नहीं हूं। तुमने ठीक कहा, मैं केवल गणित ही लगा सकता हूं कि यदि ऐसा हो जाय तो इसे रोका नहीं जा सकता, परन्तु वैसा क्यों नहीं हो रहा, या हो पाया और आगे आसानी से क्यों नहीं होगा, यह भी जानता हूं। इसके लिए जिस स्तर की जागरूकता चाहिए वह किसी में नहीं है। मैंने ज़ारा कैथरीन के हवाले से जो बात कही थी, वह भारत पर भी उतने ही सटीक ढंग से लागू होती है। तुम कैथरीन की सफलता की तुलना में नेहरू को नहीं रख सकते परन्तु आभामंडल में नेहरू जी अपनी लोकप्रियता के दौर में उससे कम नहीं थे और पश्चिम की नकल पर पूरब को ढालने और नवजागृति की प्रतीति कराने में उसके समान ही थे। और जो कड़वी सचाई मैं रखने जा रहा हूं वह यह कि जैसे कैथरीन ने अपने शिक्षा निदेशक के यह कहने पर कि हमने स्कूल तो खोल दिए पर उसमें पढ़ने वाले ही नहीं आ रहे हैं, यह कहा था कि निदेशक महोदय, हमने स्कू ल तो इसलिए खोले हैं कि दुनिया को बता सकें कि हम सभ्य हैं, परन्तु जिस दिन लोग उनमें पढ़ने आने लगेंगे उसके बाद न तो मैं इस जगह पर हूंगी न आप अपनी जगह पर, कुछ वैसा ही खयाल नेहरू जी का भी था। वह अभिजात वर्ग के आभिजात्य की रक्षा करते हुए प्रगतिशीलता का भ्रम न पैदा कर रहे होते तो उन्होंने स्वयं भारतीय भाषाओं को उच्च तम शिक्षा और प्रतियोगिता की भाषा बनाने की दिशा में पहल की होती। उन जैसा सुशिक्षित व्यक्ति शिक्षा के महत्व को न समझ सके यह सोच कर हैरानी होती है।‘’
’’इतना घालमेल ! इतना घालमेल ! मैं अपना पहला फैसला वापस लेता हूं कि तुम गणित में सही हिसाब लगा लेते। तुम तो सादे जोड़ की जरूरत हो तो टिगनामिट्री घुसा कर हल को हलाल कर सकते हो।‘’
“मैं यह कह रहा था कि आरंभ से ही हमने शिक्षा के महत्व को समझा ही नहीं। नेहरू जी को लीगियों के साथ मिली जुली सरकार चलाने में जो कुछ भुगतना पड़ा था, उसे देखते हुए उन्हों ने बाद में भी किसी मुसलमान को कभी भरोसे का नहीं समझा, मात्र दिखावा करते रहे और इसलिए ग़ृह, रक्षा, विेदेश, वित्त आदि पर किसी की नियुक्ति न की। ले दे कर शिक्षा, डाक, आपूर्ति आदि जैसे विभाग थे जिन पर उनको लगाए रखा। पाकिस्तान बन जाने के बाद कोई मुसलमान नेता खुल कर इस तरह के दावे भी नहीं कर सकता था, या करता तो इसके साथ ही सन्देह के घेरे में आ जाता।
“अब हम दुबारा प्राणिजगत की और लौटें तो हम पाएंगे हमारा पूरा अस्तित्व शिक्षा पर निर्भर है. वह हमारी मनोरचना हो, स्वास्थ्य हो, सुरक्षा हो या आहार और आनंद के साधन और माध्यम हों, सभी सही शिक्षा से सुनिश्चित किये जा सकते है और विकृत शिक्षा से इन सभी में विकृति पैदा की जा सकती है, इसलिए यह प्रतिरक्षा हो या गृह या विदेश के मामले हों, कोई भी महत्व की दृष्टि से शिक्षा विभाग की समता में नहीं ठहरता. परन्तु केवल भारत में नही पूरे विश्व में कहीं भी शिक्षा को वह महत्व नहीं दिया गया जो अन्य प्राणियों में दिया जाता है और जो विश्वसभ्यता के उत्थान के लिए ज़रूरी था. इसका कारण है कि दुनिया का कोई देश विश्वसमाज को सभ्य बनाना या देखना नही चाहता, क्योंकि यदि ऐसा हो गया तो अपने कमीने तरीकों से आगे बढे और बहुत अधिक शक्तिशाली हो चुके देशो का वही हाल होगा जिससे अपनी महानता और आधुनिकता और सभ्यता का दिखावा करनेवाली कैथरीन डरती थी.
सोच कर हैरानी होती है की ज्ञान और विज्ञान में इतना आगे बढ़ जाने कि बाद भी अपनी सभ्यता की मुनादी पीटते दुनिया के सभी अग्र्णी देश अपने समाज को अपने अपने ढंग से कुशिक्षित कर रहे हैं वर्ना जितने धन की बर्वादी सेना, पुलिस, न्याय, और जेलखानों और पागलखानों पर होती है उसका आधा भी मानव जाति को एक प्रजाति के रूप में, समग्र के हित में, शिक्षित करने पर खर्च किया जाए तो इन समस्त विकृतियों से बचा जा सकता है और इतना सुखी संसार बसाया जा सकता है जो अपनी ऎसी समस्याओं का भी समाधान निकाल ले जो आज असाध्य प्रतीत हो रही हैं और बढ़ती हुई जनसंख्या और घटते हुए संसाधनों के कारण मानव समाज मानवनिर्मित अकाल, सूखे और महामारी से भरे भविष्य की और मूढ़भाव से बढ़ता चला जा रहा है.”
“कभी अपनी सीमा में रहकर बातें किया करो यार! बात बात में फर्रांटे भरने लगते हो कि जमीन से नाता ही टूट जाता है.”
“खैर, मैं कह रहा था की यूँ तो पूरी दुनिया में कही भी मनुष्य को मनुष्य बनाने की तुलना में आदमशक्ल पशु बनाने की ही शिक्षा दी जा रही है जो दूसरों से छीन और लूट कर अपना पेट इस हद तक भरने का आदी होता जाए कि विश्व मानव की कल्पना तक न कर सके पर पिछड़े समाज यह मूर्खता नही कर सकते या करेंगे तो उनके ही ग्रास बनते रहेंगे जिन के सदियों से बनते आ रहे हैं.”
“कई बार जी में आता है तुम्हारे साथ बात करने के लिए एक छड़ी लेकर बैठना चाहिए जिससे तुम इधर उधर भागने लगो तो एक दो लगा कर सही लीक पर लाया जा सके.”
“मैं कहना यह चाहता था की शिक्षा विभाग की जिम्मेदारी किसी ऐसे व्यक्ति को न सौंपनी चाहिए थी जिसका लगाव फारसी और अरबी से या संस्कृत से बोलचाल की भाषा की तुलना में अधिक हो. ऐसे व्यक्ति को दूर देश या सुदूर काल की भाषा से कोई दुराव नही हो सकता. हमारे पहले शिक्ष मंत्री तो अपने भाषणों में भी फारसी बोझिल जबान बोलते थे मानो पूरा भारतीय समाज रईस मुसलमानों का समाज हो. नेहरू जी की उस गांठ के कारण जो, एक दो अपवादों को छोड़कर, आगे भी चलता रहा शिक्षा का भार ऐसे लोगों पर रहा जो इस देश की संस्कृति से, इसके इतिहास से, इसकी मूल्य प्रणाली से, इसके विविध मतों और विश्वासों से परहेज़ करते थे और इसलिए उनकी योजना में एक स्वाभिमानी, आत्मनिर्भर, महत्वाकांक्षी समाज के निर्माण की कामना के विपरीत इसे एक दबा हुआ, कुचला हुआ, इतिहास में बार बार कुचला जाता हुआ, निःसत्व् और कातर समाज के रूप में प्रस्तुत करने की ललक थी और इसी दिशा में उन्होंने काम किया. तो एक तो सबसे बड़ी कमी जो पूरे राष्ट्रीय स्तर पर दिखाई देती है वह है आत्मविश्वास की कमी, आत्माभिमान की कमी, राष्ट्रनिष्ठा की कमी और इनके चलते अपनी भाषाओँ के सामर्थ्य पर विश्वास की कमी जिसे दूर करने की इच्छाशक्ति तक की कमी दिखाई देती है.
“तुम्हारी एक कमी ने दिन में तारे दिखा दिए, अब आगे बढे तो एम्बुलेंस की जरूरत पड़ जायेगी! अप्पन तो खिसके.”