Post – 2016-06-15

भारतीय सभ्यता की विडंबना

तुम्हें कामायनी की वे पंक्तियाँ याद हैं ?

वह मेरा मुंह देखने लगा की मैं किन पंक्तियों की बात कर रहा हूँ !

“ज्ञान अलग कुछ क्रिया भिन्न है इच्छा क्यों पूरी हो मन की ।
एक दूसरे से न मिल सके, यह विडंबना है जीवन की।”

“यह उनके जीवन का भी सत्य था और हमारे समाज का भी !”

“यह भारतीय सभ्यता की विडम्बना है और इसके पीछे रहा है हमारे समाज का स्तरभेद ! ज्ञान पर ब्राह्मणों का एकाधिकार और श्रम और कौशल का बोझ उनपर जिन को अक्षर ज्ञान और सैद्धांतिक विमर्श से इतना अलग करने का प्रयत्न किया गया कि वेद शास्त्र उनको सुनने तक को न मिलें! श्रमभेद सभी सभ्यताओं में रहा है। इसके बिना कोई समाज आगे बढ़ ही नही सकता, परन्तु इस तरह का सुनियोजित विधान किसी दूसरी सभ्यता में नही मिलेगा।”

‘’तुम अपने वेद पुराण की बात करो, वहाँ तक तो ठीक है, क्योंकि उसके बारे में मेरी जानकारी कुछ कम है, पर दूसरी सभ्यताओं की बात मुझे समझाने की कोशिश मत करो। तुमको पता है सुमेरिया में सेव के बागानों में काम करने वालों की आँखें फोड़ दी जाती थी और उन्हें टटोल कर फल तोडना और इकट्ठा करना पड़ता था। नये मजदूर पर चौकसी रखी जाती और यदि उसने फल खाने की कोशिश की या काम में ढील दी तो कोडे़ मारे जाते थे ! इसके बाद वे इतनी दहशत में रहते थे कि कोई पहरे पर हो या नहीं वे अपना काम पूरी मुस्तैदी से करते थे।‘’

‘’तुम कहीं मेरी ही लिखी बात को अपनी बनाकर मुझे ही तो नहीं सुना रहे हो ? भाई, जो लोग जल्दबाजी में पढ़ते हैं, और अधिक पढ़ते हैं, वे अक्सर भूल जाते हैं की कौन सी बात कहाँ पढ़ी थी। दोष तुम्हारा नहीं फास्ट फ़ूड और फास्ट लर्निंग के इस ज़माने का है, जिसमे जड़ों का पता नहीं चलता, पर पल्लवग्राही बुद्धि का चमत्कार दिखाने का लोभ संवरण नही हो पाता !

”अब तुमने इसे छेड़ ही दिया तो यह भी जान लो कि आदम और हौवा की कहानी में आँखों पर पट्टी बाँधे देवों के सेव के उद्यान में काम करने वाला पर फल को न चखने वाला आदम इन्हीं के आधार पर रचा गया है, जिसको सेव खाने के दण्ड स्वरूप स्वर्ग से नीचे फेंक दिया जाता है! इस स्वर्ग के देवता सुमेर के शासक पुजारी हैं जो स्वयं भी देवों से छले जाकर पाताल या समुद्र पार शरण लेने पर विवस हुए थे और जिनका प्रतीकात्मक इतिहास बलि-वामन की कथा या ‘बलि पठयो पाताल’ की उक्ति में सूत्रबद्ध है और ऊपर से तुर्रा यह की धरती पर आकर खेती करने वाले और इस्लामी संस्करण में सेव की जगह गंदुम खाने वाले आदम कृषि के आरम्भ में देवासुर संघर्ष में पराजित होकर पलायन करने वाले और पश्चिम के उर्वर खेत्र में पहुँचने वाले जन स्वयं थे, जिनको देव या असुर ठहराने के लिए कुछ और अध्ययन की आवश्यकता है। अधिक संभावना यह है कि बारी बारी से दोनों उस क्षेत्र में पहुंचे थे, क्योंकि आहार-संग्रह के चरण पर ही पश्चिमी भारत से लेकर भूमध्य सागर के तट तक एक संपर्कक्षेत्र बन चुका था ! फसाद तो कृषि के चरण पर आरम्भ हुआ, कृषि के लिए कृतसंकल्प जत्थों और इसके कट्टर विरोधियों के बीच, जिसमे पहले खेती की दिशा में आगे बढ़ने वाले इधर-उधर मारे मारे फिरते रहे और फिर जब ये संगठित और शक्तिशाली हो गए तो जो जब दूसरे पर भारी पड़ता था वह दूसरे को भागने पर मजबूर कर देता था!’’

’’असुरों के निर्वासन की कहानियों से तो इस देश का अनपढ़ भी परिचित है, पर देवों या आर्यों के पलायन की बात तो कभी सुनी नहीं गई. ऎसी बातें तुम कहां से गढ़ लेते हो?’’

‘’यार, मैं तो अपनी बात सलीके से कहना तक नहीं सीख पाया, गढ़ने की कला कैसे सीख सकता था। जो पढ़ते हैं, वे गढ़ते हैं; जो देखते हैं वे समझ नहीं पाते कि इसे कैसे बयान करें। मेरी मजबूरी इस देखने से और अपने देखे पर शास्‍त्र-
चक्षु से अधिक भरोसा करने की है, जो एक साथ मजबूरी भी है और उपलब्धि भी।

” इतने लंबे समय तक ‘आर्य आए, हमला किया, स्थानीय लोगों को मार भगाया’ का जाप चलता रहा, साथ ही अपनी प्राणरक्षा और आगे बयान बदलने के लिए यह भी स्वीकार किया जाता रहा कि आक्रमण का कोई प्रमाण नहीं है, पर वेदों पर अनन्य अधिकार रखने का दावा करने वालों को क्यों उन साक्ष्यों में से कोई मुझसे पहले दिखाई नहीं दिया, जिसे प्रस्तुत करते हुए मैंने उन समस्त मान्यताओं को उलट दिया। अब उसे गलत सिद्ध करने की जगह ऋग्वेद को उससे भी बहुत पहले ले जा कर उस साम्य को विस्थापित करके, ऐसे युग में ले जाकर, उसकी जड़ों को खिसकाने के प्रयत्न उन लोगों द्वारा होने लगे जो इसे नरम दिमाग के लोगों द्वारा मान्य बनाने के बाद इतर कारणों से हास्यास्पद बता कर पुरानी आधारहीन पर पश्चिम को रुचने पचने वाली मान्यता की वापसी के लिए प्रयत्नशील हैं। इस कुचाल को समझने में उतावले लोगों द्वारा चूक ही नहीं की जा रही है, अपितु इसे बढ़ावा दिया जा रहा है।‘’

‘’इसमें इतना क्षुब्धे होने की जरूरत क्या है, मैं तो मानता ही हूं कि तुम्हारे जैसी प्रतिभा न पहले पैदा हुई, न आज है, न भविष्य में पैदा होगी। कहो तो मैं यह बात एफीडेविट, क्या कहते हो तुम, शपथपत्र, या जो भी कहते हो तुम, उस पर लिख कर दे दूं।‘’

‘’तुम्हारा फिकरा सिर माथे, पर यह समझ लो कि जो तरीका तुमने अपनाया ठीक वही तरीका उन्होंने अपनाया है। किसने किससे सीखा, इसका पता लगाना होगा। परन्तु यदि मुझे पता न होता कि मैं दूसरों की अपेक्षा अधिक देर से समझता हूं, दूसरों की अपेक्षा अधिक मन्द गति से पढ़ पाता हूं, यहां तक कि दृश्‍य माध्‍यमों की बैनर लाइनें मुझे समझ में नहीं आतीं इससे पहले ही बदल जाती हैं इसलिए उन्‍हें पढ़ नहीं पाता, किसी सवाल या समस्या का तत्काल न जवाब सूझता है, न समाधान, और लंबे अरसे तक यह-या-वह की पेंगें भरता रहता हूं और मैं जो कहना चाहता हूं उसे लाख तैयारी के बाद भी ठीक ठीक नहीं कह पाता हूं, तो मैं भी तुम्‍हारी बात मान लेता। मैं इस बारे में आश्वस्त हूं कि मैं मन्दबुद्धि हूं और इसी से सन्देह पैदा होता है कि जो सचाई मुझ जैसे मन्दबुद्धि को दिखाई दी, जिसे नकारने की ताकत किसी में नहीं है, वह मुझसे पहले के अधिक मेधावी, कुशाग्र और वाग्विद विद्वानों को अगर नहीं सूझीं, तो इसलिए कि वे जो देखते थे उसे नकारते हुए आगे बढ़ जाते थे। कारण कई हो सकते हैं। इस समय इसके दो ही कारण ठीक लगते हैं, यूरोपीय विद्वानों के मामले में नस्लवादी हेकड़ी और उसके विपरीत पड़ने वाले किसी भी साक्ष्य को सुनने या किसी भी दृष्टान्त को देखने से इन्कार कर देना, या सत्ता ऐसे लोगों के हाथ में होने के कारण, अपनी असहमति को उनके लिए स्वीकार्य बना कर प्रस्तुत करना या किसी ऐसे क्षेत्र में काम न कर पाना जिसमें जमीन को आसमान से अधिक अपना और अधिक भरोसे का समझा जाता है।‘’

‘’तुमने लफ्फाजी में इतना समय बर्वाद कर दिया। क्या यह बताओगे कि कहीं इस बात का कोई प्रमाण है कि इस भूभाग से कभी देवों या बाद के आर्यो को निष्कासित किया गया।‘’

‘’ऋग्वेद की एक ऋचा है। हमारे विरोधी या निन्दक कहते हैं, कि यहां से भाग कर कहीं दूर चले जाओ , और अपने साथ अपनी इंद्र-भक्ति को भी लेते जाओ अर्थात् भाड़ में जाओ तुम और भाड़ में जाए तुम्‍हारा इन्‍द्र :

उत ब्रुवन्तु नो निद: नि: अन्यत: चित् आरत ।
दधाना इन्द्रे इद दुवः ! 1-4-5

“संस्कृत तो तुम्हें आती नहीं, वैदिक सांप की बांबी है, इसलिए पल्ले तो कुछ पड़ा न होगा। समझ लो मैंने जो कहा है वही, उस ऋचा में लिखा है, मैंने अपनी ओर से कुछ गढ़ा नहीं। वैदिक समझने की योग्यता भी सन्दिग्ध है, पर गढ़ने की योग्यता तो है ही नहीं।

“हमारा पूरा साहित्य देवों के विरुद्ध असुरों के अत्याचार और देवों की त्राहि त्राहि से भरा है। यह आक्रमणवादियों को न दिखाई दिया, न हमने अपनी जातीय स्‍मृति के महत्व को समझा।”

“प्रसाद जी को सबसे बड़ी विडंबना जो भी दिखाई दी हो, पर हमारी विडंबना यह है कि विषय अलग व्याख्यान भिन्न है, चर्चा क्यों पूरी हो दिन की। अब न बैठने का धीरज है यही व्यथा है मेरे मन की।”

आप समझ सकते हैं कि इसके बाद बैठे रहना या आगे कुछ सुन पाना उसकी शान के खिलाफ था और ग्लानि तो विषयान्तर की मुझे भी हो रही थी।