घूम कर बात फिर वहीं पहुँची
‘’तुमने तो सारा गुड़ ही गोबर कर दिया यार । कहां ऋषियों मुनियों का आध्यात्मिक ज्ञान और भारतीय मानस में उनकी छवि और कहां तुमने कह दिया कि अन्तर्वेदी व्यक्ति का चरित्र बहुत ऊँचा हो यह जरूरी नहीं। उनको तुमने हमारी बिरादरी में ला कर रख दिया ।‘’
‘’मैं कहता आया हूँ कि भावना में बहने से बचते हुए, अपने विवेक से काम लेते हुए हम किसी परिघटना का मूल्यांकन करें तो ही उसके साथ और स्वयं अपने साथ न्याय कर सकते हैं। पहली बात तो यह है कि आत्मिक उत्थान या आध्यात्मिक प्रगति के लिए अन्त: साधना जरूरी नहीं। हम अन्यथा भी काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ और मात्सर्य से बच सकते हैं और इनसे बचने के अनुपात में ही हमारा व्यक्तित्व अधिक गरिमामय होता है। अन्त:साधना एक तरह का अभ्यास है, उसकी एक पद्धति है, उस पद्धति का अनुगमन करते हुए हम अपने ध्यान को उस एकाग्रता तक पहुंचा सकते हैं जिसमें कतिपय असाधारण क्षमताओं के पैदा होने की बात की जाती है। यदि यही इनका लक्ष्य हो तो विज्ञान उनकी अपेक्षा अधिक आसानी से और सुनिश्चित रूप में इनकी पूर्ति कर सकता है। तुमने सुना होगा एक साधक के बारे में प्रचलित कहानी कि उन्होंने बारह साल की साधना में बाद ऎसी सिद्धि प्राप्त कर ली कि वह पानी की धारा को चल कर पार कर सकते थे। इसे सुन कर किसी ने कहा इतनी छोटी सी बात के लिए इतने साल बर्वाद कर दिये। इसे तो मल्लाह को दो आने दे कर कोई भी पार कर सकता है।
असाधारण क्षमताओं को अर्जित करने में विज्ञान अन्त:साधना से अधिक सक्षम है और इसकी उपलब्धियां व्यक्ति तक सीमित नहीं रहतीं, सर्वसुलभ हो जाती हैं।‘’
“परन्तु नैतिक उत्थान की बात को तो झुठलाया नहीं जा सकता.”
‘’जहां तक नैतिक उत्थान की बात है, तुम जानते हो तान्त्रिक साधकों को जिनकी अलौकिक क्षमताओं की कहानियां कही जाती है, परन्तु उनके साथ पंच मकार का चक्कर भी रहा है। कहें नैतिकता के लिए कोई विशेष चिन्ता ही नहीं थी। यदि हम इस अन्तर को नहीं समझेंगे तो सम्मोहन आदि के द्वारा अपनी असाधारण सिद्धि का प्रचार करके तरह-तरह के अपराधों में लिप्त बाबाओं, सधुक्कडों और योगियों को आत्मसंयम और समर्पित सांसारिक जीवन जीने वाले व्याक्तियों के बीच अन्तर नहीं कर पाएंगे और अपराधियों को हिन्दुत्व का संरक्षक मान कर उनके बचाव में खड़े हो जायेंगे जिससे हिन्दुत्व की समझ भी विकृत होगी, हिन्दू समाज की प्रतिष्ठा भी घटेगी, और देश की वर्तमान और भावी दिशा भी स्पष्ट न हो पाएगी।‘’
‘’तुम तो बहुत खतरनाक आदमी हो यार! यह भी नही सोचते कि जिनकी तुम वकालत करते हो वे क्या कहेंगे ?‘’
‘’मैं किसी सिद्धि को, वह ज्ञान, विज्ञान, क्रीड़ा, कला, साहित्य, साधना किसी भी क्षेत्र में हो, उसे नैतिकता निरपेक्ष मानता हूं, अर्थात् उसके होने से व्यक्ति अनैतिक हो जाए या नैतिकता में दूसरों से ऊपर सिद्ध हो यह जरूरी नहीं। कुछ सिद्धियां प्राप्त करने और सिद्धावस्था को जीवन में उतारने में भी अन्तर है। हमारे लिए सिद्धों और सन्तों का महत्व उनकी निजी आनन्दावस्था के कारण नहीं है,जिसका न तो मुझे ज्ञान हो सकता है न प्रतीति, न उस पर राय देने का अधिकार जो उन्हीं तक सीमित रहा हो, बल्कि इसलिए है कि उन्होंने सामाजिक स्तर पर क्या किया. मसलन सिद्धों ने सामाजिक भेदभाव का विरोध किया और कर्मकांड को आत्मिक उत्थान में बाधक माना। साधकों में ध्यान केन्द्रित करने के लिए चरस, भांग, मदिरा आदि के सेवन की प्रवृत्ति रही है, गो इसके असंख्य अपवाद भी मिलेंगे। नशीले पदार्थों से यदि आनन्दावस्था की प्राप्ति होती है तो ‘दम मारो दम, मिट जाये गम’ की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा। सिद्धावस्था का आनन्द क्या होता है, यह जानना संभव नहीं, उसके लिए प्रयत्न करने के लिए जितना फालतू समय चाहिए वह मेरे पास कभी रहा नहीं, पर ऐसे लोगों का आचरण जो बात अध्यात्म की करते हैं और उसे कारोबार बना कर भौतिक संपत्ति का पहाड़ खड़ा करते चले जाते हैं, यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि उनकी नजर में भी भौतिक सुख उस आनन्दावस्था से ऊपर है.?
’’इसलिए अन्त:प्रकृति और बाह्य प्रकृति पर जिस विजय की बात मैं करता हूं उसके लिए अन्त:साधना जरूरी नहीं, वह भौतिक उन्नति के समकक्ष नैतिक उत्थान मात्र से संभव है। यह मूल्य व्यवस्था से जुड़ा प्रश्न है। और यह मत भूलो कि मूल्य व्यवस्था का भी अपना अर्थशास्त्र होता है। भौतिक संपन्नता के अभाव में आत्मसंयम और आत्मोत्थान की बात करना मूर्खतापूर्ण है।‘’
मैं उसके मन की बात कर रहा था, ‘’तुम ठीक कहते हो, इस अध्यात्मवाद ने इस देश का जितना अहित किया उतना कोई दुश्मन भी नहीं कर सकता। इसने हमे ज्ञान विज्ञान में इतना पीछे छोड़ दिया जब कि दूसरे देश हमसे आगे बढ़ गए।‘’
‘’कुछ दिन किताबें पढ़ना बन्द कर दो तो तुम्हारी समझ में आ जाएगा कि आध्यात्मिकता, ध्यान और सिद्धि जिज्ञासा और अन्वेषण की दिशाओं में से एक है और इसकी जड़ें बहुत पुरानी हैं, उस युग तक पहुंची हुई जब भारत ज्ञान विज्ञान में विश्व में सर्वोपरि था।‘’
’’गई भैंस पानी में । तुम फिर पहुंचे रिगबेद पर ।‘’
‘’तुम्हारे दिमाग में इतना भूसा भर दिया गया है कि तुम सम्मांन से एक अनन्य कृति का नाम तक नहीं ले सकते। पर अनुमान तुम्हारा ठीक है मैं ऋग्वेद की ही बात कर रहा हूं या वेदों से भी पहले की स्थिति की बात कर रहा हूं क्योंकि ऋग्वेंद में वातरशना मुनियों का हवाला और योग का संकेत तो है ही अथर्ववेद में व्रात्य की चमत्कांरपूर्ण सिद्धियों की भी बात है जो वैदिक चिन्ताधारा के समानान्तरर प्रवाहित होता रहा परन्तु इस तरह की चमत्कारपूर्ण साधनाओं और उपलब्धियों का वैदिक समाज कृत्याा, यातुविद्या आदि कह कर आलोचना करता रहा और इसलिए लम्बे समय तक अथर्ववेद को वेद माना ही नहीं गया फिर धीरे धीरे इसके प्रति समवेशिता विकसित हुई। जिस मगध से ईरान पहुंचने वाले और उससे भी आगे जाने वाले मगों का संबंध है और जिनकी भारत में प्राचीन काल से ही उपस्थिति का प्रमाण महगरा, मगहर, गहमर आदि हैं, उनको जादू या मैजिक के लिए जाना जाता रहा और अर्थवों का अवेस्ता में भी सम्मान है. भारत में यदि वैदिक समाज उनकी निन्दा करता रहा तो ईरान में इनके प्रभाव से देवों की निन्दा होती रही। उन्हें शैतान के रूप में चित्रित किया जाता रहा.‘’
‘’तुम हर चीज को इतना फैला देते हो कि कई बार लगता है तुमको धुनिया का पेशा अधिक रास आता ।‘’
’’मैं कह यह रहा था कि भारत में केवल एक ही समुदाय ने सभ्यता का वह विशाल और व्या्पक ढांचा नहीं तैयार किया । पारस्परिक प्रतिस्पमर्धा में अनेक समुदाय लम्बे समय तक लगे रहे, आपस में टकराते रहे और अपनी श्रेस्थता का दावा करते रहे. उनकी अपनी क्रिया प्रतिक्रिया के कारण अन्वेषण और आविष्कार की अनगिनत दिशाओं में काम होता रहा जिसका शिखर बिन्दु, किन्तु साथ ही ठहराव का काल भी, सरस्वती-सिंधु का नागर चरण है। अत: इसके कारण भारत की ज्ञान और विज्ञान की प्रगति नहीं रूकी। उसमें यदि ठहराव आया तो हमारी वर्णव्य।वस्था और उससे उत्पन्न शिक्षा और कौशल के विकास में आई बाधाओं के कारण। पश्चिमी विद्वानों ने सचेत रूप में इसकी उपलब्धियों को नकारने के लिए जो जाल रचा तुम उसके शिकार हो, इसलिए न उसे ध्यान से पढ़ने की जरूरत समझी, न समझने की, बल्कि समझने तक से दहशत खाते रहे ।‘’
उसने राहत की लम्बीि सांस ली, ‘’चलो इतने चक्कूर लगा कर शिक्षा की समस्या पर आए तो सही। पर आज तो जो सूखा चना चबाना पड़ा उसी को पचाने की समस्या है।‘’
वह उठने लगा तो मैं भी साथ ही उठ लिया।
14 जून 2016