सितारों से आगे जहां और भी हैं (सावधान! पोस्ट लंबा भी है और गरिष्ठ भी!)
इतनी सारी भाषाओं का उदय देश को जोड़ने के लिए! शेखचिल्ली भी इतनी उूंची उड़ान न भरते रहे होंगे।‘’
‘’वह उड़ान भरते थे मैं जमीन की बात कर रहा हूं। उड़ने वाले परिन्दों को जमीन की छोटी चीजें तक उूंचाई से भी दिखाई दे जाती है, पर जमीन पर बैठे उूंची हांकने वालों को न जमीन दिखाई देती है न आसमान, न अपने पिछले अनुभवों का परिणाम।
‘’मैं जब इतनी सारी भाषाओं को उनका सम्मान और अधिकार दिलाने की बात कर रहा हूं तो इसलिए कि अंग्रेजी की हुकूमत उनके उदय से ही समाप्त होगी। अंग्रेजी रहेगी पर अपने दायरे में सिकुड़ कर। ये उच्च्तम आकांक्षाओं की पूर्ति का साधन बनेंगी तो ही अपनी बिरादरी की गरिमा की ओर भी ध्यान जाएगा और इससे वह आत्मी्यता स्थाापित होगी जो भाषा की भिन्नता के बाद भी पहले थी और जिसे नष्ट कर के अंग्रेजी ने अपने लिए स्थान बनाने के लिए उन्हें पंगु भी बनाया और परस्पर द्वेषी भी।
‘’इसी तरह जब अन्तर्जगत की बात कर रहा था तो विषय से दूर नहीं जा रहा था। मैं उस पहलू की बात कर रहा था जिसकी पश्चिम ने उपेक्षा की और जिसके कारण उसकी उपलब्धियों का सकल परिणाम सृष्टि और मानव सभ्यता के लिए घाटे का रहा है। हम आगे नहीं बढ़े हैं, हम उच्चितर जीवन की आकांक्षा में एक चक्रवात में उूपर उठते चले गए हैं और जमीन हमसे छूटती चली गई है। विज्ञान ने अल्पसुलभ को सर्वसुलभ बनाया है, कष्टसाध्यउ को सुकर बनाया है, कल्पनातीत को यथार्थ का हिस्सा बनाया है और इस तरह कुछ लोगों के लिए स्वंर्ग का भी तिरस्कार करने वाला सुख वैभव का संसार रचा है तो दूसरी ओर असंख्य लोगों में लिए नरक को उनके यथार्थ का हिस्सा बना दिया है और शेष को तुलनात्मक दृष्टि से हेय । यदि उसका भौतिक और आत्मिक विकास समरूप हुआ होता, यदि बाह्य प्रकृति पर विजय की लालसा के समानान्तर ही अन्त:प्रकृति को भी समझने का उतना ही उत्कहट प्रयास किया गया होता तो सर्वनाशी प्रगति से बचा जा सकता था और अरबों वर्षों की प्रकृति की संचित निधि को उन्मत्तों की तरह इस तरह बर्वाद न किया गया होता कि आसमान भी काला हो जाय और हमारा भविष्य भी। और समृद्धि के बीच हम सब कुछ गंवा कर कंगाल हो जायें।‘’
‘’तुम चाहते हो अब विज्ञान को अपनी प्रगति से संतोष कर लेना चाहिए और वैज्ञानिकों को अध्यात्म की ओर मुड़ जाना चाहिए। आधुनिक युग को भारतीय अतीत में घुस कर दफ्न हो जाना चाहिए या हिमालय की कन्दंराओं की ओर लौटना चाहिए।‘’
‘’तुम्हा।री जैसी समझ है उसमें इससे उूंची कोई बात सोच ही नहीं सकते। फिर से सुनो, मैं कहता हूं यदि अन्तर और बहिर् का सन्तुलित और समानान्तर विकास हो तो वह लड़खड़ाहट नहीं पैदा हो जिसमें ‘अब गिरे, अब मरे, अब मिटे, की दहशत बनी हुई है। मैं कह रहा हूं ज्ञान को पूर्ण होना चाहिए या अपने को पूर्ण बनाने की दिशा में प्रयत्न करना चाहिए, केवल बाह्य प्रकृति के ज्ञान को समग्र का ज्ञान नहीं मान लेना चाहिए, विज्ञान को उस विराट की ओर भी ध्यान देना चाहिए जिसे वह आब्सकक्यो्र कह कर खारिज कर दिया करता है। यदि धुंधला है तो रौशन करो। देखो धुंधलके में क्या क्या निधियां छिपी हुई हैं।‘’
‘’कमाल है तुम्हारा भी। तुम कुंडली मार कर फिर उसी विषय पर आ गए। चलो, यही सही। तुमने आध्यात्मिकता का ढोंग करके सौ तरह के कुकर्म करने वालों को, अध्यात्म का नाम ले कर भौतिक समृद्धि का प्रबन्ध करने वालों को नहीं देखा है तो तुम्हें कैसे समझा सकता हूं कि यह एक ऐसी दलदल है जिसमें ज्ञान तो संभव ही नहीं। चौंको नहीं, तुम्हीं कहते हो अतीन्द्रिय क्षेत्र है और ज्ञान तो इन्द्रिय ग्राह्य होता है, यही उसकी सीमा है। ज्ञान के बाद बच रहता है विश्वांस जिसे तुम्हीं बता चुके हो कि मनुष्य को ऐसी अतर्क्य और असंभव, यहां तक कि आत्महननकारी और अपमानजनक चीजों में विश्वा्स करने को बाध्य किया जा सकता है या इसकी आदत डाली जा सकती है जिसकी हम कल्पना तो कर ही नहीं सकते, देखने पर भी विश्वास न हो।‘’
‘’ज्ञान के बाद अज्ञान और विश्वास ही नहीं बचता, अनुभूति नाम की एक चीज भी होती है जो वर्णनातीत होती है। विश्वास न सदा अतर्क्य होता है, न ज्ञानातीत, वह झूठ और कुतर्क का सहारा ले कर भी, धर्म और दर्शन बघारते हुए भी,पैदा किया जाता है, जिससे तुम भी मुक्त नहीं हो। यह उस विश्वास से भिन्न होता है जो अपने अनुभव और वर्णनातीत बोध से पैदा होता है। यह तुम्हारा उपयोग अपने लिए या अपने अच्छे बुरे लक्ष्य के लिए तुम्हारे दिमाग की धुलाई करते, भजन के सम्मो हन से पैदा किया जाता है।
‘’इस भ्रम में न रहो कि हम अपने समस्त इन्द्रियग्राह्य अनुभवों का वर्णन कर सकते हैं या ज्ञान केवल वर्ण्य तक सीमित होता है। हमारी भाषा केवल श्रुत और मित ध्वनियों तक सीमित है, उसी का अनुकरण करते हुए हम अपनी बात कहते हैं और दूसरों के विचार ग्रहण करते है। इसलिए हमारा ज्ञान किसी न किसी के कहे और सुने या पढ़े के सीमित दायरे में ही सिमटा रहता है। इससे आगे का सब कुछ वर्णनातीत होता है, या वर्णन करके हम उसका सत्यानाश कर डालते हैं। हमारे रस, रूप, गन्ध , स्पर्श इन्द्रिय ग्राह्य होकर भी वर्णनातीत है, केवल अनुभवगम्य हैं। अपारक्रम्य हैं। यहां तक कि संगीत जो नाद पर आधारित है और श्रुति ग्राह्य भी है, वह तक शब्दा्तीत होने के कारण वर्णनातीत और अनुभूूति गम्य है। एक का अनुभव दूसरे तक नहीं पहुंचाया जा सकता, अपने ही जीवन के एक क्षण का अनुभव दूसरे किसी क्षण में नहीं अन्तरित किया जा सकता। इसलिए ये ज्ञेय भी नहीं है। हमारा ज्ञान शब्द जगत तक सीमित है पर हमारा बोध जो अनुभूत होता है, इसे पूर्णता देता है।
‘’अब रही बात उस पाखंड और धूर्तता की जिसे अध्यात्म के नाम पर चलाया जाता है, और इसके कारण तुम उसको समग्रत: खारिज कर देते हो। ठीक यही बात विज्ञान और ज्ञान के दुरुपोग और जघन्यजतम उपयोग के विषय में की जा सकती है, वह फरेब, वह दुष्प्रचार जो वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग करते हुए होता है वह मिलावट जिसमें तुम नकली जहर को दूध के इतने निकट पहुंचा सकते हो कि अच्छे अच्छे धोखा खा जायं। इससे विज्ञान को ही खारिज तो नहीं किया जा सकता।
‘’इसलिए अतीन्द्रिय बोध को नकारना अवैज्ञानिक है।‘’
उसने जोरदार ठहाका लगाया, ‘’फिर वैज्ञानिक क्या है।‘’
’’वैज्ञानिक यह है कि जिस विषय के बारे में नहीं जानते उसके बारे में चुप रहो। न उसका समर्थन करो न ही उसका निषेध। सीधी बात करो कि यह हमारा क्षेत्र नहीं है, इसका हमें ज्ञान या अनुभव नहीं है इसलिए इस विषय में मैं कुछ नहीं कह सकता।‘’
‘’अच्छा, अब तुम सच सच बताओ कि जिस अन्तर्जगत की इतने समय से वकालत कर रहे हो उसका तुम्हें अनुभव है?’’
‘’अनुभव नहीं है, प्रयत्न करने पर ध्या्न को एकाग्र नहीं कर सका, परन्तुे मैं उसकी वकालत नहीं कर रहा हूं। मैं जिस क्षेत्र का हमें ज्ञान नहीं है और कुछ आप्त पुरुषों का दावा है कि ऐसा अनुभव होता है, उसे जाने बिना नकारना गलत है। और सुनो, एक विचित्र बात कि मुझे जीवन में दर्जनों बार पूर्वप्रतीति हुई है और एक संकेत है जिसको मैंने कभी गलत नहीं पाया और वह भी पूर्वप्रतीति से जुड़ा है। पहली स्ववप्नावस्था में होती रही और उस स्वप्न के साथ ही मुझे यह विश्वास हो जाता है कि यह दूसरे सपनों से भिन्न है और सच होने वाला है। सपने याद नहीं रहते परन्तु इसका एक एक दृश्य् और कथन याद रहता है, फिर भी इस पर मेरा अधिकार नहीं है कि किसी समस्या पर ध्यान केन्द्रित करके सोउूं और सपने में उसकी पूर्वप्रतीति हो जाये। जिस संकेत की बात करता हूं वह हास्याेस्पादक प्रतीत होगा परन्तु कभी गलत नहीं गया और यह केवल इस बात का संकेत होता है कि कार्य में कोई व्यवधान है। इसके बाद भी मैं इन दोनों के प्रभाव में नहीं आता यद्यपि यदि कोई दूसरा भी साथ हुआ तो उसे बता देता हूं कि चल तो रहे हैं परन्तु जाना व्यीर्थ होगा। वैज्ञानिक तरीका तो यह है कि जब यह अचूक संकेत होता है तो मैं अपना समय, धन और श्रम बचा लूं और आगे बढ़ूं ही नहीं, पर मैं इससे हार नहीं मानता और इस अनुभव को उसकी प्रामाणिकता पुन: पुष्टि के रूप में लेता हूं।‘’
‘’अब इस पर कहा क्या जा सकता है। या तो कहूं तुम मक्कार हो जो या भ्रष्टचेत, पर कह नहीं सकता।‘’
‘’तुम न कह सको परन्तु मैं यह कहना चाहता हूं कि अन्तर्जगत की यात्रा बहिर्जगत की यात्रा जैसीी ही है, इनका नैतिकता से कोई संबंन्ध नहीं। अन्तर्विद नैतिक दृष्टि से भ्रष्ट् और सामाजिक दृष्टि से अनिष्टकारी, झूठा और मक्कार भी हो सकता है जैसे विज्ञान और ज्ञान संपन्नध व्य क्ति खतरनाक, भ्रष्ट, कुटिल कुछ भी हो सकता है। मैं बाह्यप्रकृति और अन्त :प्रकृति पर विजय की बात कर रहा हूं जो अन्तर्ज्ञान और भौतिक ज्ञान से भिन्न है और मनुष्यता के लिए जरूरी।