अधूरेपन की पूर्णता
‘’हम किसी परिघटना के नितान्त क्षुद्र अंश को ही जान पाते हैं और जानना चाहते हैं! समग्र को जानने चलें तो एक कण को समझने में ही उम्र कट जाएगी, आगे बढ़ेंगे ही नहीं। इसलिए यदि किसी असावधानी से उसके किसी दूसरे पहलू की ओर ध्यान चला जायं तो डिरेल होने की संभावना बढ़ जाती है। हम शिक्षा की बात करते हुए निसर्गजात क्षमताओं की ओर मुड़ गए । मुड़ गए तो कुछ और विचर लें।
”हमारे पास वाह्य जगत की सूचनाओं के लिए पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं इसलिए दूसरे जानवरों में भी हम इन पांच को ही लक्ष्य कर पाते हैं। हमारी ज्ञानेन्द्रियों का विकास क्रमश: हुआ है और कुछ जानवरों को ये सभी इन्द्रियां नहीं मिलती हैं। उदाहरण के लिए, कहते हैं सांप सुन नहीं सकता और वह जो वीन की धुन पर नाचता है, वह उसकी ध्वनितरंगों से उत्पन्न स्पन्दन का या कहें एक तरह की गुदगुदी का प्रभाव होता है।
”मान लें कि मनुष्य की श्रवणेन्द्रिय का विकास नहीं हुआ होता तो क्या वस्तु जगत में नाद की सत्ता से हमारा भौतिक विज्ञानी अवगत हो पाता। और इसी तरह हम मान ले कि किसी प्राणी में कुछ इतर इन्द्रियां होती हैं भले हमे सुलभ इन्द्रियों में से कुछ उनमें न हों, या मनुष्य में ही साधना से ऐसा विकास हो जाता हो जिसमें कुछ अतीन्द्रिय बोध होते हों, जैसेे क्लेयरवान्सं (दूरानुभूति ) में, या टेलीपैथी (पूर्वानुभूति या प्रतीति ) में या सम्मोहावस्था में होता है तो क्या हमारे भौतिक नियमों से की जाने वाली व्या्ख्या को ही परम ज्ञान मान लेना उचित होगा?‘’
‘’मारो गोली इस अदालती ड्रामे को, तुम इतने गधे हो यह तो मैं जज की कुर्सी पर बैठ कर कह ही नहीं सकता, जब कि सचाई यही है। जानते हो जिनको दूरानुभूति या पूर्वानुभूति कहते हैं या पूूर्वजन्म की स्म़ृृति आदि कहते हैं, इनकी जांच करने पर इनको वाहियात पाया गया । ये विश्वास और अन्धविश्वास की बातें है।‘’
‘’जैसे हिप्नोसिस।‘’ मैंने उत्तेेजित हुए बिना शान्त भाव से कहा।
उस पर जैसे बिजली सी आ गिरी हो। तिलमिला उठा, ‘’मैं सम्मोहन को तो नकारता नहीं।‘’
‘’उसकी कोई भौतिक व्याख्या होगी तुम्हारे पास। मुझे भी बताओगे?‘’
”है न। हमारे अवचेतन में अपार भंडार है जिसमें हमारे जन्म से आज तक के एक एक क्षण के अनुभव और विचार संचित है। संभव है भ्रूणावस्था़ के अनुभव और ज्ञान भी संचित हों। अरे भई जिसे हम अपना चेतन मस्तिष्क कहते हैं वह तो हमारे दिमाग का दो से तीन प्रतिशत तक होता है।”
”यह भी एक अनुमान है क्योंकि इसकी माप तो संभव ही नहीं है।”
”मान लेते हैं, यह भी अनुमान मात्र है और हमारे असाधारण मेधावी उसके एक आध प्रतिशत अधिक का उपयोग कर लेते हैं।”
”यह भी मात्र अनुमान है। पर मान लें यह सच है, तो जरूरी नहीं कि एक असाधारण मेधा का भौतिक विज्ञानी अवचेतन के उसी भंडार को अपनी चेतना का अंग बना पाता हो, जिसको एक साधक अपनी साधना से बना लेता है और वह किन्हीं भिन्न निष्कर्षों पर पहुंचता है।”
वह फंसा फंसा सा अनुभव करने लगा इसलिए चुप हो गया । फिर कुछ संभला तो बोला, ”यार किस झमेले में पड़ गए । छोड़ो इसे, विषय पर तो आओ। क्या यह सच नहीं है कि तुम अपनी भाषा में शिक्षा से विषमता इसलिए दूर करना चाहते हो, क्योंकि तुम सीधे संपत्ति के समाजवादी बंटवारे को, उस पर सबके लगभग-समान-अधिकार को टालना चाहते हो। तुम्हारे पास समाधान नहीं है, इसलिए समाधान से कतराने का चोर दरवाजा तलाश रहे हो।‘’
‘’चोरदरवाजा तुम तलाश रहे हो, इसलिए तुमको अपने भीतर की मार्क्सवादी काई और जनवादी फंफूद को उजागर करते हुए समस्या के समाधान में सहयोग करना चाहिए जिससे जनसमाज को भी लगे कि तुम्हारी जनपक्षधरता मात्र भावुक झाग नहीे है जिसकी तलहटी में समाजद्रोह जमा पड़ा है। विचार तुम करो कि वह कौन सी चीज है जिसे देख न पाने के कारण अथवा ठीक से न देख पाने के कारण, तुम जानवरों को डराने के लिए खडे किए गए ‘धोखे’ के समान अतिमानवाकार भ्रम बन कर रह गए हो।”