राजनीति से बचते हुए
‘’क्या यह सच नहीं है कि तुम अपने खयाल को ही हकीकत मान लेते हो और हकीकत की अनदेखी करते हुए, तीन तेरह करके अपनी बात सही सिद्ध कर देते हो।‘’
‘’मैं अदालत की टिप्पणी समझ नहीं पाया!’’
’’जहां तक मैं समझ पाया, तुम कह रहे हो, ‘यदि अपनी भाषा में शिक्षा मिले तो उस भाषा का व्यवहार करने वाले सभी समान हो जाएंगे और इसलिए सामाजिक विषमता दूर करने के लिए संघर्ष करने वालों को भाषाओं की राजनीति करनी चाहिए!’’
‘’मैं पहले ही यह निवेदन कर चुका हूं कि अदालत कुछ ऊँचा सुनती और ऊँचा समझती है, इसलिए पूरी बात न सुन पाती है, न समझ पाती है! पहली बात यह कि मैं किसी चीज की राजनीति करने को दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूं, यह मैं लगातार कहता आया हूं, क्योंकि इससे सबसे अधिक क्षति हमारी राजनीतिक समझ को पहुंचती है। धर्म की राजनीति करने वालों ने पहले देश को धर्म के नाम पर बांटा और उसकी सबसे बड़ी कीमत हिन्दुओं को और इस देश को चुकानी पड़ी। आबादी का संतुलन बदलते ही नये पाकिस्ता़न बनाने की तैयारी होने लगती है। परन्तु संतुलन ठीक रहा तो हिन्दू समावेशिता और खुलेपन के कसीदे पढ़े जाते हैं और इन दोनों ही स्थितियों में बांसुरी बजाने वाले अपने को सेक्युलर कह कर सेक्युलरिज्म की राजनीति करते हुए उसकी भी मिट्टी पलीद कर देते हैं।
” उस बंटे और अरक्षणीय हो चुके देश को भाषा की राजनीति करने वालों ने पचास राष्ट्रों में बांट दिया पर किसी भाषा का भला न हुआ हुआ । अधिक से अधिक यह कि उनमें जैसी तैसी रचना करने वालों को भी अकादमी पुरस्कार मिलने लगा जिसे फेंकने की राजनीति ने उसका भी सत्या नाश कर दिया।
”अब उस पचास राष्ट्रों में बंटे देश को जाति की राजनीति ने भीतर से चीर कर रख दिया कि कुकर्मी शासक भी अपनी जाति का हो तो चलेगा। इसके पीछे अंग्रेजी और अंग्रेजी आन्तरिक उपनिवेशवाद का और मिशनरी उपनिवेशवाद का हाथ है इसे समझने की कभी कोशिश नहीं की गई। हम भाषा की राजनीति की बात नहीं कर रहे उनके उत्थान की जनतान्त्रिक मांग की बात कर रहे हैं और उन्हीं के माध्यम से उच्चतम अभिलाषाओं की पूर्ति का मार्ग तलाशने की बात कर रहे हैं जहां इन विभाजनकारी शक्तियों को निरस्त करने और सबके जुड़ने की प्रकिया आरंभ होती है और इसलिए भी कर रहे हैं कि आज इसे हासिल किया जा सकता है। सियासत में उस चीज का ही सत्यानाश कर दिया जाता है जिसकी राजनीति की जाती है, और राजनीतिक समझ में उसके उदात्त संभावनाओं की परिकल्परना होती है इसलिए अच्छे प्रशासक राजनीति नहीं करते, राजधर्म का निर्वाह करते हैं।
‘’जीव जन्तुकओं और आदिम जनों के उदाहरण से यह समझाने का प्रयत्न किया था कि शिक्षा के अभाव में कोई प्राणी अपनी रक्षा तक नहीं कर सकता, अपना पेट तक नहीं भर सकता और अपने को क्षति पहुंचाने वालों से अपना बचाव तक नहीं कर सकता। परन्तु गलत शिक्षा से मनुष्य को बरगलाया जा सकता है, पागल बनाया जा सकता है, अपने आप से घृणा करना और अपने आत्मसम्मान को तिलांजलि देना तक सिखाया जा सकता है।
“इसके विपरीत उन्नत शिक्षा से वंचित रख कर उसकी उन्नति में रुकावट डाली जा सकती है, इसलिए समाज को नियन्त्रित करने का इरादा रखने वालों ने सबसे पहले शिक्षा पर एकाधिकार किया! अपनी विचारधारा का प्रसार करने वालों ने भी शिक्षा संस्थाओं को नियन्त्रित करने या उन पर एकाधिकार करने का प्रयत्न किया। संस्थाबद्ध शिक्षा प्रणाली का जन्म इन प्रयासों के चलते ही हुआ: मनुष्य के मस्तिष्क को नियन्त्रित करके उसे अपने उपयोग की चीज बनाने के लिए। हमारे गुरुकुल हों या आश्रम, या बौद्धों और जैनियों के मठ और मन्दिर या ईसाइयों का ग्रामर स्कूगल या आज के मिशनरी चालित स्कूल, इस्लाम के मकतब और मदरसे या संघ के सरस्वरती शिशु मन्दिर, सबके पीछे यही उद्देश्य रहा है। मनुष्य को अपने इरादों के अनुसार ढालते हुए उसकी मनुष्यता को कुछ कम करना और पालतू पशुओं के करीब लाना। हमारे प्रशिक्षण संस्थान भी यही करते हैं इसलिए उच्च तकनीकी योग्यता रखने वालों के विषय में इस बात से आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता कि उनमें उच्च मानवीय गुणों का दूसरों की अपेक्षा अधिक विकास हुआ है। या जो देश और समाज तकनीकी दृष्टि से आगे बढ़ गए हैं, अधिक तरतीब से चीजों और विचारों और संकल्पजनाओं को रख सकते हैं वे अधिक सभ्य भी हो गए हैं। उनमें दरिंदगी के अधिक कारगर रूप देखने को मिल सकते हैं, मानवीयता का अभिनय दिखाई दे सकता है, और उन्हीं समाजों में ऐसे लोग भी मिल सकते हैं जो इन सीमाओं को जानते हों। तकनीकी अग्रता अधिक रोटी, और अधिक रोटी जुटाते हुए रोटियों का ऐसा पहाड़ अपने काबू में करने की इंजीनियरी है जिससे असंख्य लोगों की रोटियां छिन जाती हैं, वह पहाड़ उन छिनी हुई रोटियों से ही तैयार होता है। परन्तु रोटियों के पहाड़ में रोटियां सड़ती हैं, उतनी रोटियों के लिए प्रकृति ने उसके पेट को बनाया नहीं था, और रोटियों के अभाव में मनुष्यता कराहते हुए दम तोड़ देती है।‘’
इस बार अदालत ने कुछ कहा नहीं, लकड़ी के हथौड़े से लकड़ी की मेज पर चोट करते हुए याद दिलाया, ‘अपनी सीमा में रहो।‘
‘’मैंने यह नहीं कहा कि अपनी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने से सबको समान शिक्षा मिल जाएगी, न ही यह कहा कि यही एकमात्र बुनियादी सवाल है! मैंने इसे बुनियादी सवालों में सबसे अहम बताया था क्योंकि शिक्षा ही हमारी चेतना का निर्माण करती है। यह सर्वसुलभ अपनी मातृभाषा में ही हो सकती है। मैंने यह याद दिलाया था कि … क्षमा करें, याद दिलाया नहीं था, दिलाना चाहता था कि शिक्षा के केन्द्र या संस्थान सभ्यता के विकास के साथ बढ़ते गए हैं और उसी अनुपात में संवेदनशीलता विचलित होती गई है।‘’
यह मोटी सी बात अदालत की समझ में नहीं आई तो निवेदन करना पड़ा कि ‘’जीव जन्तुंओं के स्तर पर पैतृकता का पता नहीं था और मातृभाव समग्र से जोड़ता था इसलिए उसके जीवों को शिक्षित करने का भार समग्र जीव प्रजाति पर था। प्रकृति ने उसे इतनी ही योग्यता दी थी कि वह जो कुछ दूसरों को करते देखता है उसकी नकल कर सके और कुछ योग्यताएं निसर्गजात भी रही लगती हैं, वर्ना चिमगादड़ को राडार प्रणाली का ज्ञान कैसे हो सकता था या चिमगादड़ के व्यवहार को लक्ष्य करके राडार प्रणाली का विकास कैसे हो सकता था। इसलिए यह मानना कि मनुष्य कोरी चेतना लेकर पैदा होता है और उस पर सब कुछ बाहर से आकर दर्ज होता है जिससे उसका विवेक निर्मित होता है, मुझे अर्धसत्य लगता है। यह भौतिकवादी सोच का परिणाम है। और यह जो किसी परम शक्ति को नकारने की बात है वह भी मुझे मूर्खतापूर्ण लगती है, यानी जिस क्षेत्र को इंद्रियातीत पहले से माना गया है उसे इन्द्रिय ग्राह्य सीमा में व्यर्थ पा कर नकारना। किसी को इन भौतिक विज्ञानियों से पूछना चाहिए कि अचूक व्यवस्था और सुनियोजित विकास क्या यादृच्छित हो जाता है या इसके पीछे कोई योजना है और है तो किसकी है? यदि नहीं, तो नकारने से पहले उसका तर्क और कारण तलाश करने के लिए उन्होंने योग की वह साधना की जिसमें अतीन्द्रिय बोध की बात की गई थी।‘’
मैंने देखा तो था पर उसे विचारणीय नहीं माना था कि इस बीच कुर्सी कई बार हिली थी और उसने बहुत प्रयास से अपने को संतुलित किया था, परन्तु जब कुर्सी की सहनसीमा पार हो गई तो कुर्सीनसीन के मुंह से निकला, ‘’तुम भी इस तरह की वाहियात बातें मानते हो?‘’
मैंने नम्रतापूर्वक निवेदन किया, ‘’मानता सिर्फ यह हूं कि हम सभी को अपने ज्ञान क्षेत्र के भीतर ही अपने दावे करने चाहिए। भौतिक विवेचन भौतिक पक्ष तक सीमित रहे तो ही सबके हित में है।‘’
’’ठीक है। ठीक है। अपने विषय पर आओ।‘’
”मुझे सुनने का धैर्य बचा हो तो निवेदन करूं अन्यथा इसे कल के लिए टाला जा सकता है।‘’
अदालत ने कुछ कहा नहीं, फिर काठ के हथौड़े को काठ पर मारते हुए उठने का आभास दिया तो मुझे लगा, उसे मेरा प्रस्ताव उचित लगा है।