Post – 2016-06-10

बदहवासी सी बदहवासी है

“निवेदन यह है कि हम अपने चारो और जंगल बसा कर दरिंदो की फसल ऊगा कर उनके बीच सभ्य बने रहना चाहें भी तो क्या उनके हमलों के बीच सभ्य रह सकते हैं? हमें अपनी आधी शक्ति दरिंदों से अपना बचाव करने पर लगानी होगी, आधी उनको खत्म करने पर, और बकौल इसरानी गणित, बाकी की सारी अपने भविष्य को अधिक संभावनापूर्ण बनाने पर। हमने छोटे पैमाने पर, बड़े पैमाने पर और वैश्विक पैमाने पर ऐसी ही सभ्यता का निर्माण किया है। हम एक उपद्रवग्रस्त खुशहाली को सभ्यता मान कर अपने को सभ्य समझ लेते हैं।”

अदालत से रहा नहीं गया, “मैंने सोचा था, बीच में हस्तक्षेप न करूँगा, पर अब तुम शिक्षा से हट कर सभ्यता पर्व आरम्भ कर रहे हो तो याद दिलाना जरूरी लगा कि अपने विषय की सीमा में रहो।”

“मैं शिक्षा पर ही बात कर रहा हूँ जनाब, और शिक्षा की बुनियादी शर्तों को हम प्रकृति से सीख सकते हैं, क्योंकि अपने उचक्कापन में हम उनकी अवहेलना करते हुए अपना शिक्षा का सिद्धांत गढ़ते रहे, इसलिए हमारी शिक्षा भी षड्यंत्र बन कर रह गई ! और जहाँ तक आपके हस्तक्षेप का सवाल है, चूक मुझसे ही हुई थी जो यह शर्त लगा दी कि बीच में न बोलें! इसका नुक्सान यह कि मुझे पता तक नहीं चलेगा कि अदालत सुन रही है या गम्भीर समस्‍याओं से ऊब कर ऊँघने लगी है।”

इतिहास गवाह है कि तौहीन अदालत को बर्दाश्‍त नहीं, “अदालत कठोर शब्दों के इस्तेमाल की इज़ाज़त नहीं देती। ये उचक्कापन क्या होता है?”

“यह नया पारिभाषिक शब्द है जनाब, इसे मैंने ‘ऊपर उठने के चक्कर में पड़े रहने की आदत’ के लिए गढ़ा है।”

अदालत को भी हँसी आती है और उसके साथ ही इस चूक को रोकने के लिए खीझ पर फटकार लगाना भी आता है, “संक्षेप में बात करो, शिक्षाशास्त्र में हमें प्रकृति से क्या सीखना है। शिक्षा, ज्ञान, विज्ञान का तो लक्ष्‍य ही है प्रकृति पर विजय।”

“प्रकृति पर विजय नहीं, प्रकृति के रहस्यों को समझते हुए प्रकृति का दोहन। माँ को रिझाते हुए उसका दुग्धपान, न कि उसका संहार करते हुए उसका रक्तपान। ऐसा करने वाले प्रकृति को भी नष्ट करते हैं और अपना भी सर्वनाश कर लेते हैं। पश्चिमी सभ्यता ने अपनी आपाधापी में यही किया है और लाखों वर्षों के दुग्‍धपायी इतिहास में रक्तपान के अहंकार में सिर्फ दो तीन सौ सालों में ही प्रकृति को नष्ट करके अपने विनाश का सारा प्रबंध कर के बैठी है। इस उचक्कापन का यह प्रत्यक्ष प्रमाण है। ”

“ठीक है! ठीक है! अपनी बात पूरी करो.” अदालत को अपनी बेवकूफी उजागर होने पर झेंप आने की जगह मुझ पर ही क्रोध आ रहा था.

“मैं पूरब और पश्चिम के इस अंतर को समझा दूँ तो आगे बढूँ। आप को पता होना चाहिए की हमारे पुराणों में उस पहेली का जवाब है जो हर्लन ने कृषि के उद्भव को लेकर उठाये थे कि जब मनुष्य अपने अविकसित औज़ारों से भी कुछ ही दिनों में वन्य अनाज को इकट्ठा करके पूरे साल के भोजन का प्रबंध कर सकता था तो उसने खेती की झंझट ही मोल क्यों ली?”

अदालत को यह विषयान्तर प्रतीत हो रहा था और इसलिए वह अपनी खीझ पर काबू करने का प्रयत्न कर रही थी.

“हर्लन ने इस बात का ध्यान नहीं रखा कि उसी अनाज के दावेदार दूसरे जानवर भी थे, कि मौसम सदा एक सा नही रहता और अतिशय चराई या असमय नोच चोंथ चलती रहे तो उर्वर क्षेत्र भी रेगिस्तान में बदल जाते है. पुराणों की इस प्रतीक योजना में कहा गया है कि धरती ने अनाजों को अपने भीतर छिपा लिया।उसे गोरूपा चित्रित किया गया है और कहा गया है कि मनु ने बछड़ा बन कर उसके दुग्ध का पान किया। तो हमारा विकास उचक्केपन का न था, प्रकृति के दुग्ध पान का था।”

बर्दाश्त की भी हद होती है, अदालत फट पड़ी, “मान गए भाई, दुग्धपायी संस्कृति है हमारी, पशुपालन और गो-उत्पादों का आरम्भ भी तुम यहीं दिखाओगे, पर शिक्षा के मामले में हमें प्रकृति से क्या सीखना था, जो नहीं सीख पाये?”

”कहना ये है की जीव जगत में और आदिम समाज में समानता और सामूहिक उल्लास और सहयोग का कारण यह है की वे सभी एक ही भाषा बोलते हैं और इसलिए उनका ज्ञान बराबर होता है. मामूली फर्क़ प्रतिभा का पड़ता होगा पर उससे उनके जीवन स्तर में अंतर नहीं आता ! सम्मान में अंतर होता है और यही उनकी परम उपलब्धि होती है. पक्षियों में कुछ मे अनुकरण की क्षमता अधिक होती है इसलिए इनके शावकों में से कुछ को चुरा कर मनोरंजन के लिए बेच दिया जाता है. उनके ग्राहक उनकी सारी ज़रूरते बैठे बिठाए पूरी करते हैं. वे उनकी बोली बोलते हैं और उनकी रखवाली करते हैं पर वे उस शिक्षा से वंचित हो जाते हैं जो उन्हें अपने परिवेश में मिला होता. इसलिए यदि उन्हें आज़ाद कर दिया जाए तो वे ज़िंदा नहीं रह सकते और पिंजड़े में बंद रहते हुए स्वर्ग सुख भोगते हैं पर न यह जानते हैं कि वे जो बोल रहे हैं उसका अर्थ क्या है, न यह कि उन्हें जो सुख-भोग मिल रहा है उसकी क्या कीमत उन्हें चुकानी पड़ी है।”

“तम्हे मालूम होगा तुम क्या कह रहे हो? अदालत नहीं समझ पाई कि जो कह रहे हो उसका अर्थ क्या है और उसे इस मौके पर क्यों कह रहे हो? खुलासा करोगे? ”

“मैं कहना यह चाहता हूँ कि सामाजिक न्याय की सबसे पहली ज़रूरत शिक्षा की समानता है। शिक्षा की समानता के लिए शिक्षा की भाषा का मातृभाषा होना ज़रूरी है और इसके साथ ही यह कहना चाहता हूँ कि जिन लोगों को किन्ही कारणों से ऐसा पिंजड़ा मिल जाता है कि वे अपने समाज, देश, परिवेश और उसकी भाषा से कट जाते हैं और उन्हें इसी के बल पर अकूत भौतिक सुविधाएं मिलती हैं और वे अपनी जाति और प्रजाति से अपने को ऊपर समझते हैं, वे नहीं जानते कि वे अपनी ज़बान खो चुके हैं, जिनकी भाषा का अनुकरण करते हैं उसमें उनके कथन या वचन का अर्थ क्या है और यह तो वे जान ही नहीं सकते कि उनके द्वारा उन्हें जो सम्मान मिलता है उसका वैचारिक मूल्य शून्‍य और मनोरंजन मूल्य अकूत है। और मैं यह भी कहना चाहता था कि अदालत को मेरी बात समझने में इसलिए कठिनाई होती है कि उसे पता ही नहीं कि जब पूरा देश, आधा-अधूरा ही सही, आज़ाद हुआ तो न्यायपालिका ने अपनी आदत के कारण अपने तई, मालिकों का काला कोट, गाउन, विग, भाषा सब कुछ बरकरार रक्खा और सार्वजनिक घोषणा करती रही कि वह भारतीय समाज का मनोरंजन करने की कीमत पर भी अपनी आदत नहीं छोड़ सकती। जिसके पास अपनी आत्‍मा ही नहीं है वह सही न्‍याय कैसे दे सकता है?”