Post – 2016-06-09

9 जून 2016
कुर्सी का कद और टाट का दायरा

“मैने जीवों जंतुओं और वन्य जनों के दृष्टान्त से निवेदन यह किया था कि शिक्षा के बिना कोई भी जीव अपनी रक्षा नहीं कर सकता, इसलिए उसके दल के सदस्य अपने प्रत्येक सदस्य को अपने को हा‍‍नि पहुँचाने वालों को पहचानने, उनके आघात से बचने, अपने शिकार को पकड़ने और उसको खाने-चबाने, खाली समय में क्रीड़ा करने और आनंद लेने तक की शिक्षा देते है।

“यह अनिवार्य कार्य भार है जिसे उसका प्रत्येक सदस्य निभाता है और इसके कारण मामूली भेद के बाद भी, वे सभी लगभग एक जैसे दिखाई देते हैं और एक जैसे होते भी हैं। अंतर आता है तो कुछ लिंग, वय, व्याधि के कारण परन्तु वे अपने लम्बे जातीय अनुभव के आदान प्रदान से अपनी बीमारियों का इलाज करना भी जानते हैं।”

“मैंने वचन दिया था कि तुम अपनी बात कहोगे और मैं बीच में हस्तक्षेप नहीं करूँगा. पर जब बेवकूफी की बात करोगे तो टोकना तो पडेगा ही! जिनके पास भाषा ही नहीं वे विचारों और अनुभवों का आदान-प्रदान करते थे और उसे अपनी बाद की पीढ़ियों को हस्तांतरित करते थे, इससे बड़ी मूर्खता क्या हो सकती है?”

“आप जिस भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं उसका मैं आपके लिए इस उकसावे के बाद भी नहीं कर सकता. परन्तु आप जानते हैं कि कुर्सी सोच सकती है और उसके फैसले को आप मान सकते है और बोल कर सुना भी सकते हैं, दूसरों पर लाद भी सकते हैं, पर यह बात आपकी समझ में नहीं आ सकती कि जब काठ सोच सकता है तो जीवधारी क्यों नहीं। मैं यह कहना चाहता हूँ…”

“तुम्हारी बात मेरी समझ में आ गई, आगे बढ़ो। पर एक बात का ध्‍यान रखो। तुम हर चीज़ को अतिरंजना से भर कर अपने को यह विश्वास दिलाते हो की मैंने ऊँची बात कह दी और बाज़ी मार ली। इस आदत से बचो।”

” मैं कह रहा था कि पश्चिमी सभ्यता कुर्सी की सभ्यता है और अपनी टाट की। कुर्सी की ऊंचाई बढ़ने-घटने के साथ तथ्यों और साक्ष्यों के अर्थ बदल जाते हैं। टाट ऊँचा नहीं उठता, फैलता या सिकुड़ता है। वह टाट से बाहर के लोगों को टाट पर जगह देने के लिए कुछ फैलता है या पहले जो टाट पर थे उन्हें टाट से बाहर कर देता है। इसलिए सोचना टाट को नहीं उस पर बैठने वालों को पड़ता है।

“पश्चिमी सभ्यता में भौतिक सफलता को अधिक महत्व दिया गया है इसलिए सही और अधिक सही, कुर्सी की ऊंचाई और बटुए के आकार से तय होता है। उसका सदस्य यह सोचता है कि आज हमारे पास दौलत है, सुख समृद्धि का स्तर ठीक है इसलिए हम सदा से ऐसे ही रहे हैं। वही यह सोच सकता है कि मनुष्य के पास जो योग्यताएं हैं वे उसके पास सदा से रही है। मनुष्य के पास भाषा है इसलिए जिनके पास भाषा नहीं है उनके पास कोई संचार प्रणाली है ही नहीं और वह भी तब जब कि आंखों की भंगिमा और अंगचेष्टाओं के दूसरे संचारों को व्यक्तं करने में भाषा समर्थ ही नहीं। भारतीय चिंतक यह जानते थे, मानते थे और उसका लाभ उठाते हुए अपनी ज्ञान-व्यववस्था् को ऐसी उूंचाई दी थी जो अन्यत्र दुर्लभ है, कि सभी जीवों जन्तुओं और कीट पतंगों की कुछ ऐसी योग्‍यताएं हैं जिनसे दूसरे वंचित हैं। उनका अवेक्षण करते हुए उन्हों ने अपनी मेधा को हमारे लिए अज्ञेय उूंवाइयों तक पहुंचाया था। आज पश्चिम भी उन जीवों जन्‍तुओं की गतिविधियों का अध्ययन करके सीखने के लिए प्रयत्नशील है, परन्तु हम उन ऋषियों का उपहास करते हैं।‘’

कुर्सी सहमति में झूमने लगी, परन्तु मैंने कहा, ”कुर्सी ने अपनी ही मर्यादा तोड़ी और विषयान्तर किया है इसलिए आज विषय पर बात करूं भी तो कोई लाभ न होगा। इस पर कल बात करेंगे।”