मयूर नृत्य’
‘’अदालत अगर बेजा भी कहे, सच न भी बोले तो भी वह जो कुछ बोल दे वह बजा और सच तो मान ही लिया जाता है, पर अदालत से क्या कहलवाना है यह अदालत नहीं तय करती, यह जांच करने वाला बीट का सिपाही करता है। जिसे फंसाना चाहे फंसा दे, बचाना चाहे उसे बचा ले। अदालत को रपट उसकी ही देखनी है और गुनहगार को गुनहगार जानते हुए भी उसे ‘पर्याप्त सबूतो के होने या न होने के आधार पर’ इतना सारा समय बर्वाद करके वही करना है जिसे बीट का सिपाही कुछ घंटों के सुलह सपाटे के बाद मुकदमा दायर करने के पहले ही कर चुका था। लेकिन मैं अदालत के सर्वशक्तिमान होने के भरम को तोड़ना नहीं चाहता। इस समय तो निवेदन यह है कि आप ने किस आधार पर यह मान लिया कि जिन वकीलों को सचाई को झूठ और झूठ को सचाई में बदलने की योग्यता के कारण न्याय का दलाल बना कर अन्याय करते हुए भी यह दिखावा करने के लिए कि न्याय हो रहा है, अंग्रेजों ने घुसाया वे ऋग्वेद न्याय विचार में भी होते थे।‘’
‘’अदालत अपनी जिम्मेदारी पर कोई काम नहीं करती, यह तुम्हें पता है ही, तो यह समझो यह जानकारी भी अदालत की नहीं है, उस शास्त्री के माध्यम से यहां तक पहुंची जो तुम्हें घास तक डालने को तैयार नहीं।‘’
‘’उसने कुर्सी को घास डाला और कुर्सी ने उसे खा कर पचा लिया, उसकी योग्यता सिद्ध करने के लिए इतना ही काफी है। मुझे अदालत उस घास से बचाए रखे! पर घास पचा जाने के बाद कुर्सी की समझ में जो कुछ आया उसे जरूर जानना चाहूंगा।‘’
’’वह बता रहा था कि ऋग्वेंद में राजदूत का भी हवाला है, दूत का भी हवाला है और किसी के मुकदमे की पैरवी करने वाले का भी हवाला है। ऊंट का पहाड़ से पाला पड़ने पर अपने कूबड़ को दुनिया की सबसे उूंची चीज मानने का उसका गरूर खत्म हो जाता है। तुम्हें पता है वकील के लिए अधिवक्ता शब्द डॉ रघुबीर ने वेद से ही निकाल कर हमें दिया था?‘’
बात इज्जगत की आ गई थी। मैंने कहा, ‘’डा. रघुवीर यह जानते थे कि उन्हीं पारिभाषिक शब्दों के अर्थ बार बार बदलते रहे हैं। एक ही शब्द में अर्थसंचार की इतनी संभावनाएं कैसे पैदा हुई यह भाषा-दर्शन का एक अहम सवाल था जिसे जांचने का प्रयास नहीं किया गया। हमारे पारिभाषिक शब्दों में जो सबसे सधे हुए शब्द है – दूत, वक्ता्, अधिवक्ता, विवेचन, समिति, सभा, सभासद, संसद, परिषद, निविदा, संविदा, ये सभी ऋग्वेद से आए हैं यह एक बार मैंने समझाया था! परन्तु, उनका अर्थ आज से कुछ भिन्न था और उनके अर्थवैभव का लाभ उठा कर उनको कुछ बदले अर्थ में प्रयोग किया जा सकता था। डा. साहब ने वहीं किया। अधिवक्ता उस भूमिका के लिए प्रयुक्त लगता है जिसमें भिन्न भाषा परिवेश में कारोबार के लिए जाने वाले वहां की भाषा से अपरिचित होने के कारण उस क्षेत्र में बसे और वहीं से अपने कारोबार का संचालन करने वाले अपने बन्धु ओं के माध्यम से अपनी बात दूसरे पक्ष के सामने रखते थे। यह एक तरह का दुभाषिया लगता है। ऐसे लोग हमारे ऋषियों मुनियों में भी रहे होंगे जिन्हे वे अपने साथ लेकर भी जाते थे! अधिवक्ता की भूमिका में इन्द्र को, जो मघवा, महाधन और इसलिए बहुत बडे़ व्यापारी के प्रतिरूप है, रखा गया है। विदेशी व्यापारिक बस्तियों या धरती के स्वर्गों के प्रधान व्यापारी इन्द्र ही थे और उसकी ऐयाशी भी बाद के कालों के इन्द्र जैसी ही हुआ करती थी। प्रतिस्पर्धा में उभरने वाले नये उपक्रमियों के प्रति उनकी ईर्ष्या का और उन्हें गिराने के उनके प्रयत्न का रहस्य आज के पूंजीपतियों से समझा जा सकता है।‘’
अदालत को मेरे ज्ञान पर भी हँसी आगई, बोली, ‘’जैसे प्रदर्शनप्रियता के कारण मोर नाचने लगता है, उसी तरह पढ़े लिखे भी ज्ञानप्रदर्शन के चलते अपनी मौज में विषय से हट कर इधर उधर चक्कर लगाते हुए मयूर नृत्य करने लगते हैं। बात शिक्षा की चली तो अदालत पर आ गई और ऋग्वेद तक पहुंच गई। और अब तुम उसमें इतिहास और शब्द-मीमांसा भी जोड़ते जा रहे हो। चलो, अब जब मयूरनृत्य आरंभ ही हो गया तो उसे पूरा भी कर लो। आज कल नया रोग चल पड़ा है। जब तक हम वेद तक किसी चीज को पहुंचा नहीं देते हैं, तब तक अपने को विश्वास ही नहीं दिला पाते कि कोई चीज हमारी है। एक ऐसा ज्ञानी जत्था तैयार हुआ है जो आधुनिक विज्ञान की नई खोजों को भी ऋग्वेद में तलाश लेता है।‘’
मैं दबाव मे नहीं आया, ‘’इस पर अचरज इसलिए है कि अदालत ऋग्वेद के विषय में कुछ जानती नहीं, और कर्तव्य के रूप में केवल यह जानती है कि जब भी वेद के विषय में कोई बड़ा दावा किया जाएगा, उस पर यह सोचकर हंसना शुरू कर देंगे कि इतना पहले यह हो ही नहीं सकता था। परन्तु सच यह है कि बाद के विकासों के प्राथमिक रूप बहुत प्राचीन काल से ही मनुष्य की जानकारी में रहे हैं और उनकी कुछ ऎसी उपलब्धियां भी रही हैं जिनके रहस्य को हम आज तक नहीं उजागर कर पाये । बुढ़ापे से मुक्ति पाने के तरीके आज भी खोजे जा रहे है और यह खोज वेद से पहलेे से जारी थी और उस चरण पर समाधान भी तलाश लिया गया था यह च्यवन के बूढ़े से युवा बनाए जाने की कथा में ही नहीं है, उस अवलेह में भी है जो उनके नाम से आज तक चला आ रहा है। इसे कोई कहे कि आधुनिक शोध को देख कर कल्पना से गढ़ कर वेद में घुसा दिया गया या उस कथा का अतिपाठ किया जा रहा है तो उचित न होगा। हमारी सभ्यता की जड़ें दस बारह हजार साल पुरानी हैं, और इनकी केशिकाएं उससे बहुत बहुत पीछे जाती हैं। ऋग्वे्द पांच छह हजार सालों के विकास के एक युग का शिखर बिन्दु है। उसके बाद आता है ढलान और बिखराव का काल जिसमें हजारों साल ‘हाय वेद! हाय वेद! हाय हमारे रिसी मुनी !’ की आहें सुनाई देती हैं, जैसे किसी का कुछ लुट गया हो, खो गया हो और वह बावलों की तरह उसकी तलाश में तड़पते हुए उसकी चिन्दियां सहेज रहा हो। जो बचा नहीं, जिसकी क्षीण याद ही बची रह गई है उसकी खोज कर रहा हो। ऋग्वेेद काल की समस्त उपलब्धियां वेद की कविताओं में नहीं मिल सकतीं परन्तु उनमें से कुछ का आभास हमें उनमें मिल सकता है। हमें पहले उसकी खोज करनी चाहिए, उसे समझने का गहन प्रयत्न करना चाहिए और उसके बाद जितना उपलब्ध हो सके, जिस स्तर का वह पाया जाय उसे अभिलिखित किया जाना चाहिए। उसके बाद ही हम यह कहने का अधिकार पा सकते हैं कि कौन सी बात अतिरंजित है, या निरा दिवास्वलप्न है। हमने उल्टे सिरे ये यात्रा आरंभ की। जांचने परखने से पहले ही फेंकने, मिटाने और उपहास करने का काम किया, इसलिए अतिरंजना उसी की क्षतिपूर्ति है। अतिरंजना करने वालों से बड़े अपराधी हम है।”
’’ मैं जिस आगजनी की बात कर रहा हूं वह लंबे समय तक, कई पीढि़यों तक चलने वाला प्रचंड निदाघ और अनिश्चित वर्षा और सूखे से पैदा दुर्भिक्ष था जिसमें पहले की सभी उपलब्धियां नष्ट हो गई। जिस बिखराव की बात कर रहा हूं वह उसी का परिणाम था जिसका एक सिरा आज के तुर्की से जुड़ा रहा है। उसी का आखिरी सिरा ग्रीक सम्य ता के उत्थान से जुड़ा रहा है। जिस तरह आधुनिक विकासों का इतिहास तलाशते हुए यूरोपीय विद्वान ग्रीस तक पहुंचते हैं उसी तरह उससे भी पीछे की यात्रा करते हुए हम ऋग्वेवद तक पहुंच सकते हैं। भारतीय दर्शन, चिकित्सां, विज्ञान आदि ही नहीं, वेशभूषा तक में भारत से ग्रीक सादृश्यों की बात अक्सर की जाती है और फिर पश्चिमी आतंक के कारण उसे दरकिनार कर दिया जाता है। दरकिनार किसी चीज को नहीं किया जा सकता। यह सत्य की एक महत्पूर्ण कड़ी को जान बूझ कर तोड़ने और फेंकने जैसा है! इससे बौद्धिक बदहवासी पैदा होती है जिसका शिकार आज का बुद्धिजीवी वर्ग है।‘’
‘’यह तो सही है परन्तु तुम शिक्षाव्य्वस्था की बात करने चले थे और तुम्हा्री चर्चा में वही गायब है।‘’
“आज का दिन तो मयूर नृत्य में निकल गया, परन्तु यह नृत्य भी विषय की परिधि पर ही था। कल विषयान्तर न होने पाये इसका ध्यान अदालत को रखना होगा। ठीक?‘’
अदालत को यह मंजूर था । अब तो कल की कल ही देखी जाएगी।