Post – 2016-06-06

यारब न वो समझे हैं न समझेंगे मेरी बात

‘’ कुछ तो मेरी आदत है और कुछ अदालत के रुतबे का असर, मैं जो कहना चाहता हूं उसे ही अक्सर भूल जाता हूँ या जिस तरह रखना चाहिए उस तरह रख नहीं पाता । मैं शिक्षाविदों के ज्ञान का अवमूल्यन करने के लिए वन्य जनों और अन्य जीवधारियों की शिक्षा को अधिक श्रेयस्कर नहीं बता रहा था।‘’

’’अदालत के पास इतनी समझ है! उसे पता है कि तुमको शिक्षाविदों से नहीं, शिक्षाप्रणाली से शिकायत है और तुम इसे नष्ट करके आदिम समाजवाद लाना चाहते हो जिसमें शिक्षित कोई रह न जाय इसलिए‍ शिक्षित और अशिक्षित का भेद समाप्त हो जाए और मानव समाज उस तरह की बराबरी पर उतर जाए जो जंगली कबीलों और जीवों जन्तु ओं में पाई जाती है।‘’

’’कुर्सी की शान कि वह कुछ ऊँचा सुनती है, उूंचा देखती है, ऊँचा हांकती है, ऊँचा समझती है और ऊँचा बोलती है जो अपना दुखड़ा मिमियाने वालों को दहाड़ की तरह सुनाई देती है, इसलिए अदालत ने जो समझा उसको समझने की औकात हमारी नहीं है। अदालत इतना ऊँचा सुनती और समझती है कि उसे अक्सर किसी बात को समझने में इतना समय लग जाता है कि उसे समझाने में कई वकील बदल चुके होते है, अदालत की कुर्सी पर कई बैठने वाले इधर से उधर हो चुके होते हैं और कई बार तो न्याय की गुहार लगाने वाला दुनिया से उठ चुका होता है, और इन बदलावों के चलते उसकी समझ का स्तर क्रमश: ऊपर पर उठता हुआ इतना ऊपर उठ चुका होता है कि उसका वारिस तक तलाशे नहीं मिलता फिर न्याय कैसे मिल सकता है और अदालत दे भी दे तो किसे मिल सकता है? न्याय के विलम्ब का लाभ अन्यायी को मिलता है, इसे समझते हुए भी अदालत मान नहीं पाती। इसलिए पुराने जमाने में जब अदालत नहीं थी तो लोग गुहार लगाते थे कि हे भगवान मुझे इस अन्यायी से बचाओ, और अब गुहार लगाते हैं हे भगवान मुझे अदालत से बचाओ। मैंने गुस्ताखी की हो तो क्षमा करें, पर क्या कुछ गलत कहा मैंने?’’

अदालत ने बुरा नहीं माना था, क्यों कि उसे पक्का विश्वास था कि मैं उसके इक्बाल की बुलन्दी के कसीदे पढ़ रहा था। उसने हामी में सिर हिलाया और होठों को जबान बनाने की कोशिश में यूं टेढ़ा किया कि जिसका अनुवाद था, ‘बोलते जाओ, अच्छा लग रहा है।‘

‘’अदालत की समझ की बुलन्दी कैलाश के शिखर तक पहुंचे! उसे समझाने के लिए विश्व का विधान करने वाले विधाता भी उतर आएं तो किसी अदालत को कुछ समझा नहीं सकते, फिर मेरी क्या औकात! मैं तो सिर्फ निवेदन कर सकता हूं कि मैं शिक्षा प्रणाली की जगह शिक्षा व्यवस्था की बात कर रहा था।‘’

कुर्सी की समझ में नहीं आया कि शब्दों के इस मामूली हेर-फेर से मैं कहना क्या चाहता हूं। मैंने कुर्सी की मदद के लिए पूछा, ‘’क्या प्रणाली का अर्थ कुर्सी को मालूम है?”

कुर्सी को मालूम था, ‘’प्रणाली का मतलब सिस्टम और सिस्टम का मतलब प्रणाली। इसमें समझने की बात कहां से आ गई?”

मैंने नम्रता से कहा, ‘’आना चाहे भी तो आने न दूंगा, पर लोग कहते हैं नाली का मतलब नली या पतली धारा होता है, परनाली का प्रयोग नहीं करते पर परनाले का प्रयोग करते है, घर के नाभदान को भी परनाला कह देते हैं।‘’

कुर्सी को भी भाषा पर कुछ अधिकार था, बोली, ‘’नाभदान नहीं नाबदान बोलो, यह फारसी का शब्दे है।‘’

मैं निवेदन ही कर सकता था, ‘’कुर्सी गलत हो ही नहीं सकती, पर इसमें नाब नाभि या केन्द्रीय क्षेत्र (आंगन) का तद्भव है और दान तो कुर्सी के काठ तक को पता होगा कि दोनों में यहां एक ही अर्थ रखता है, अपने से मुक्त करके किसी अन्य के सुपुर्द करने वाला। सो मेरी अल्पमति में नाभदान का अर्थ हुआ आंगन के पानी को बाहर निकालने का रास्ता जिसे परनाला भी कह दिया जाता है। अब कुर्सी यह भी समझना चाहे तो समझ आ जाना था कि फारसी के शब्द उसी तरह अपने हैं जैसे अपनी बोलियों में संस्कृत शब्दों के परिवर्तित रूप और इस तरह के छोटे छोटे टुकड़ों में यह इबारत साफ लिखी है कि ईरानी या फारसी की भाषा अपभ्रंश है और इस बात का प्रमाण भी कि अपभ्रंश हो या बोलियां अवसर मिलने पर किसी को क्लासिकी ऊँचाई तक पहुंचाया जा सकता है।‘’

कुर्सी कुछ उचकी, उसकी आंख कुछ फैली जिससे विश्वास हुआ उसकी आंख काम कर रही है और फिर अपने नार्मल पर आ गई। ”मतलब तुम अदालत का समय जाया करने के लिए उसे भाषाविज्ञान पढ़ाने लगे?”

मैंने निवेदन किया, क्योंकि यही मैं कर सकता था, ‘’कुर्सी को कुछ पढ़ाने की हिम्मत मुझमें हो भी सकती है ! मैं तो यह आशा कर रहा था कि कुर्सी के प्रताप से अदालत को स्वयं समझ में आ जाएगा कि प्रणाली या परनाली परनाले से भी संकुचित होती है। शिक्षा प्रणाली आरंभ से ही शिक्षा का प्रसार करने के लिए कृतसंकल्प नहीं थी। उसका प्रयत्न शिक्षा को एक नितान्त सीमित समुदाय तक रोक कर रखने की थी। जिस समाज में शिक्षा, किसी भी कारण से, बहुत छोटे से समुदाय तक सीमित कर दी जाए क्या उसमें शिक्षा से वंचितों का अपना जंगल राज कायम न रहेगा?”

कुर्सी कुछ डगमगाई पर चारों पायों पर जम गई, ‘’तुम समझते हो हमारे समाज में जो अपराध हैं, कदाचार हैं, ऐसे आचरण हैं जो अवांछनीय हैं पर अपराध की कोटि में नहीं आते फिर भी जिनसे हमारा समाज प्रभावित होता है, वे सब हमारी शिक्षा प्रणाली के कारण है?”

मैं इस बात पर हैरान था कि अपनी मूढ़ता के बाद भी मैं कुर्सी तक को यह समझाने में सफल हो गया। पर डर था नासमझी की कई मंजिलों को पार करने के बाद लोग अन्तिम कुर्सी और अन्तिम न्याय तक पहुंचते है जो न्याय की परिभाषा बदल देता है । हमारा न्याय अन्यायियों को अपने बचाव का भरपूर मौका देने के लिए बना है जिसमें अन्यायी अपने को संतप्त और संतप्त को अत्याचारी सिद्ध कर सकता है। कुर्सी की आवाज आदमी की आवाज से अधिक उूंची होती है, कई बार सही भी, उसकी दहाड़ सुनाई पड़ी, ‘’तुम्हें शिक्षाप्रणाली पर बात करनी थी और तुम न्याय प्रणाली की कमियां बताने लगे। तुम्हें पता है तुम किसका केस ले बैठे हो।‘’ ऐसा तेवर तो आज तक किसी कुर्सी का देखा ही नहीं था।

मैंने समझाना चाहा कि अन्याय के क्षेत्र नहीं होते, जब होता है तो घर और घोंसले तक पहुंच जाता है और न्याय की कोई सीमा नहीं होती। वह होता है तो सार्वदेशिक और सार्वभौम होता है।‘’

कुर्सी की समझ में क्या आया, क्यों आया, जो समझ में आया वह कब तक टिका रहेगा, इसे जानने के लिए यह जानना जरूरी है कि वह बनी किस काठ की है, टंगी किस काठ पर है और अगर लुढ़के तो उसे बचाने वाला कोई काठ होगा या नहीं। मैं स्वयं भ्रमित था इसलिए अगले दिन की मोहलत ली और इस संतोष के साथ लौटा कि कम से कम आज का दिन तो अच्छा गया।