बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जो बात अपने बाहुबल पर गर्व करने वाले गद्य के संभाले नहीं संभलती, उसके पांव डगमगाते देख यह नाजनीन कविता सामने आ जाती है, लाओ, इसे मैं काबू में करती हूं। जो किला तुम्हारे प्रहार से फतह न होगा, उसे मैं अपनी मुस्कराहट से फतह कर लूंगी, एक कटाक्ष से कर लूंगी, और उससे भी काम न बना तो हाइड्रोजन बम कैसे काम में लाया जाता है यह रहस्य तो हमें ही पता है।
कविता की शक्ति और अपने गिट्टों की नुमायश करने वाले गद्य की असमर्थता को यदि स्त्रियों ने समझा होता तो नारीवादी आन्दोलन के तहत वे हर मानी मे पुरुष बनने की होड़ मे आ कर अपनी महिमा को कम नहीं करतीं। इस तरह के विचार पहली बार एक संकट के कारण आए और उसको व्यक्त करने के लिए गद्य जवाब दे गया। तुकबन्दी इस रूप में सामने आई:
सोचा न कभी मैंने दिन यह कभी आएगा
सुनने को मिलेगा यह, कहने को बचेगा यह ।
आज फेसबुक पर एक लंबी बहस से गुजरने को बाध्य होने के बाद सहज भाव से ग्लानि और क्षोभ के मिश्रित घोल के शब्दबद्ध होने का परिणाम थीं ये पंक्तियां और उसके बाद इसके शीर्षक के रूप में वह पंक्ति याद आई।
मैंने जो जीवन, जिस विनय और दर्प की संधि रेखा पर जिया है, उसका दूसरा उदाहरण नजर आता तो कहीं नतशिर होने का सौभाग्य तो प्राप्त होता। उसकी चर्चा इस क्लेशकर क्षण में भी नहीं। मेरा क्लेश नया नहीं है। उभरता है तो टीस पैदा होती है। मार्क्संवाद का मजाक उड़ाते समय भी मैं अपने को मार्क्सवादी कहता हूं तो एक खतरा उठा कर। मार्क्सवादियों की जमात में मेरे लिए जगह बची रह नहीं सकती और उसके विरोधियों को अपना मानता नहीं, न वे मुझे अपना मान सकते हैं, पर जिसे मैं मार्क्सवाद मानता हूं उसके सिद्धान्तों के आधार पर मार्क्स तक को गलत पाता हूं तो क्षमा नहीं करता। इस कसौटी पर मुझे दूसरा कोई अनुकरणीय नहीं मिला और यही मेरा मार्क्सवाद है, और कई बार मैं अपना मजाक उड़ाने की चुनौती देते हुए अपने को अकेला मार्क्सवादी कहता हूं कि कम्बख्तो अब तो मेरे परखचे उड़ाओ, आलोचना करो और जो भी चाहो सिद्ध कर दो।
इसका साहस आज तक किसी मार्क्सवादी को क्यों न हुआ? क्यों न किसी ने मेरे लेखन से ऐसा कोई तथ्य निकाला जिससे यही सिद्ध किया जा सकता कि मैं उन सिद्धान्तों में से किसी पर लचर साबित होता हूं जिन्हें मार्क्सवादी दर्शन का मूलाधार कहा जा सकता है? इसके विपरीत मैं उन्हें भाववादी, मार्क्सवाद विरोधी और अवसरवादी यहां तक कि घटिया सौदेबाज या आत्मविक्रयी तक कहता रहा हूं। किसी को तो उन आरोपों का उत्तर देना था। नहीं दिया! चाहा, प्रयत्न किया पर नहीं दे सके। उसका व्या ख्यान भी आत्मप्रशस्ति बन जाएगा इसलिए उसे छोड़ा जा सकता है।
हाल में मुझे खेद इस बात को ले कर हुआ कि मेरे कुछ मित्रों ने दो गलतियां कीं। एक तो मेरी अहैतुक प्रशंसा, जब कि मैं याचना के स्वर में अपनी कमियों की ओर ध्यान दिलाने का अनुरोध करता हूं। दूसरे एक ऐसे आदमी को जो स्वयं अपने ही लेखन से यह सिद्ध कर चुका कि उसने मेरी कोई कृति पढ़ी ही नहीं, जनसत्ता में मेरी पुस्तक की समीक्षा की कल्पना कर ली, जिसमें उस पर कुछ प्रकाशित हुआ ही न था, एक ऐसे सिरफिरे द्वारा लिखी समीक्षा कहीं पढ़ी, और फिर किसी पत्रिका में उसी लेखक द्वारा उसी की आव़त्ति दूसरे रूप में देखी। मैं उस लेखक का आविष्ट नृत्य देखता रहा जिसे देखने और सराहने वाले न थे और वह अकेला घूम घूम कर नाच रहा था।
क्यों ? क्योंकि वह पुस्तक कोसंबी के वैदिक अध्ययन के खोखलेपन को उजागर करने के लिए लिखी गई थी जिन्हें मार्क्सवादी इसलिए अकाट्य मानते रहे कि उनमें किसी को न संस्कृत का ज्ञान था, न वैदिक की समझ। यदि यह कमी यह समीक्षक पूरा कर पाता तो उसका प्रतिवाद करने का औचित्य होता।
जिस लेखक की आलोचना का हवाला था वह अंग्रेजी में लिखने की योग्यता हासिल होने के कारण हिन्दी लेखकों को ‘हिन्दीि वाले’ लिखता है, जो दूसरी कई सीमाओं से ग्रस्त है जिनमें सबसे प्रधान है ‘अब मैं अग्रेजी में भी लिख और छप जाता हूं, हिन्दी् वाले मेरे सामने क्या हैं, पर जिसकी आज तक कोई पुस्तक न साहित्य पर देखने में आई न पत्रकारिता पर।
इस विवाद में एक ऐसे लेखक ने जिसकी किसी कृति का परिचय मिले तो पता चले उसका बौद्धिक स्तर क्या है, कुछ बचकानी बातें कीं। वह उस समीक्षा के बारे में कहीं से सुन सुना कर उस पुस्तक को ही खारिज कर रहा था, जिस पर वह समीक्षा भी न थी और यह तक न जानता था कि वह समीक्षा कहां छपी थी। ऐसे गैरजिम्मेदार व्यक्ति को गंभीरता से लेते हुए वाद प्रतिवाद की ऐसी वैतरणी बह चली कि मुझे भी एक स्तर पर उसमें हाथ डालना पड़ा। उसने स्वयं बता दिया कि वह पढ़ने और जानने समझने की झंझट मोल नहीं लेता, कहीं कोई इबारत पढ़ ली, काम की लगी तो उसका इस्तेमाल कर लिया।
सूचना के लिए बता दें कि भावुक अतिरेक भरी वह समीक्षा पहली बार हिंदू में छपी , फिर वह विस्तार से समयान्तर में छपी जिसके संपादक और उसकी समझ पर चुप रहना अच्छा है। मेरे मित्र कान्तिमोहन ने उसकी प्रति सुलभ कराते हुए जानना चाहा कि कैसी लगी। यह सोच समझ कर मेरे पास भेजी गई थी इसलिए मैंने उसे पढ़ कर चुप लगा लिया। कान्तिमोहन वही व्यक्ति हैं जो मेरे संवादों में प्रतिपक्ष या मेरे प्रतिवादी मित्र बन जाते हैं। वह मेरा लिखा पढ़ते तक नहीं, कि कहीं अपनी मान्यता न बदलनी पड़ जाय पर मैत्री सचमुच ऐसी जो विरोध के बाद भी पचास साल से निभती जा रही है। मेरे और उनके परिवार के सदस्यों को छोड़ कर कोई दूसरा इस रहस्य को जानता तक नहीं कि मेरा प्रतिवादी काल्पनिक नहीं है और जिद के मामले में मैं अतिरंजना से काम नहीं लेता। पर जब मुझे खिझाने के लिए उसने पूछा, कैसा लगा, तो मैंने कहा, पहले पत्रिका संपादक से पूछ लो, इसका जवाब लिखूं तो वह छापेगा भी।
उसने पूछा तो पता लगा यह संभव नहीं है।
परन्तु मेरे लिए यह संभव था कि एक आदमी अपनी उपेक्षा से तिलमिलाकर हिंदी में ऐसे कोने में लिखता है जहां पूर्वाग्रह इतने प्रबल है कि आरोप छप सकता है उसका निराकरण छप नहीं सकता और चर्चा में आने के लिए ऐसे अवसरवादियों तक को पटा सकता है जो बिरला परिवार के पुरोहित, अभी पता चला किसी कंपनी के पदाधिकारी और कम्युनिस्ट एस साथ हो सकते हैं। तर्कहीन और तथ्यहीन आरोपों का जवाब नहीं देता। मैं यह देखता हूें कि क्या वह व्यक्ति उस विषय को जानता है या नहीं। यदि नहीं तो उसे लाजवाब ही रहने देना चाहिए। परन्तु कोई सूचना कहीं से आए, हितकारी होती है। उसने अपने भर्त्सना लेख में केवल एक बात होश में लिखी थी और बताया था कि अमुक संस्था का नाम अमुक था। मैंने अगले संस्करण में उसे ठीक करके उसे इसके लिए उसे धन्यंवाद भी दिया था। पर इससे आगे।
मेरे विषय में जो कुछ कहा गया उससे मैं प्रभावित नहीं हूं, पर जो लोग उत्तेजित हो जाते हैं उनसे मैं एक निवेदन करना चाहता हूं। क्या आपको पता है कि आपको फेसबुक के माध्य म से कितना श्लाघ्य सभागार मिला है जिसकी गरिमा आपके संयत आचार से बच सकती है और आपकी अभद्रता से नष्ट हो सकती है। हमारे युग में लोग एकल परिवार होने के कारण अपने बच्चों को अधिकाधिक प्या्र देने लगे हैं जिसके चलते बच्चा अपने पिता को पिता नहीं अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने वाला नौकर समझने लगता है और अपने पितरों के साथ उसके रुख में कुछ बदलाव आने लगता है। स्नेह वश हम अपने अबोध बच्चे को अपना मोबाइल, टीवी का रिमोट, लैपटाप ही नहीं, सड़क पर उतरने वाली गाडि़यां तक समर्पित कर देते हैं। वे उसे खिलौना समझ कर मनमाने प्रयोग करते हैं जिससे उनका बौद्धिक ह्रास आरंभ होता है। हम फेस बुक का प्रयोग क्या उन नादान बच्चों की तरह नहीं कर रहे हैं। फेसबुक के सभासद बन कर हम अपनी भाषा और विचार में अल्पतम गरिमा का निर्वाह किसी के समर्थन या निन्दा में करें, क्या यह अधिक उचित न होगा। यह मात्र एक निवेदन है वर्ना आजादियां तो यहां अकल्पकनीय हैं। आलोचना हो, तर्क संगत हो, इस अधिकार के साथ हों कि आप विषय को जानते हैं, या इस नम्रता के साथ कि आप जो लोग जानते हैं उनसे कुछ सीखना चाहते हैं। कितना बड़ा मंच है, निर्व्याध प्रवेश, पर प्रवेश के बाद मर्यादा का ध्यान तो रखें।