आसीत् पुरा विदिशा नाम नगरी, अधुनाsपि अस्ति
मैं कल बहाव में आ गया था, इसलिए अपनी बात साफ साफ नहीं रख सकता था। बात कठोर थी इसलिए जल्दबाजी में कही भी नहीं जा सकती थी। मैं कहना यह चाहता था कि हमारे शिक्षाशास्त्री शिक्षा के बारे मे उससे भी कम जानते हैं जितना एक जंगली आदमी या जंगली पशु।
‘’कमाल की व्याख्या है तुम्हारी। जानवर और जंगली आदमी शिक्षित होता है, शिक्षित नहीं, सुशिक्षित होता है और सुशिक्षित व्यक्ति जंगली लोगों और जानवरों से भी कुशिक्षित होता है। मैंने तुम्हारी बात को समझने में कोई भूल तो नहीं की?”
‘’अदालत की समझ में कुछ आ जाय यही एक मुश्किल काम है। आ गया यह एक आश्चर्य है। अदालत अपने हाथ में तराजू रखती है और आंखों पर पट्टी बांध लेती है और नजर सीधे एकसौअस्सी अंश के कोण पर रखती हैजाे कोण होता ही नही। इसलिए उसे यह तक नहीं दिखाई देता कि उसकी ठीक नाक के नीचे पेशकार किसे क्या इशारा कर रहा है और उसका बेलिफ उसी के हुक्मं की तामील के लिए उसके हुक्म को अमल में लाने के लिए किस फोर्स के सक्रिय होने की प्रतीक्षा में हैं।‘’
’’तुम किस फोर्स की बात कर रहे हो?”
‘’इसे भौतिकी में मोटिव फोर्स, अर्थात् चालक बल कहा जाता है पर न्यायालयों में दस्तूरी कहा जाता है। दस्तूरी का मतलब तो आपको पता होगा ही।‘’
अदालत सर्वज्ञ होती है फिर भी कुछ चीजों का पता उसे भी नहीं होता इसलिए वह दूसरों से पूछती रहती है। इस बार मुझसे पूछना पड़ा तो मुझे बताना ही था, ‘’दस्तूर का मतलब रीति है, पर यह आपकी समझ में नहीं आयेगा, इसलिए अंग्रेजी में इसे कनवेन्शन कहते हैं, यह बताने से काम चल जाएगा। इसकी ताकत क्या है यह ‘रघुुकुल रीति सदा चलि आई प्राण जायं पर बचन न जाई से ही पता चला जाएगा। कुछ देशों में संविधान नहीं है, वहां कनवेंशन ही संविधान का स्थान ले लेता है, जैसे इंगलैंड में जिससे अदालत ने झुलसती गर्मी में भी अपना चोंगा और विग और वकीलों ने अपना काला कोट और टाई उत्तराधिकार में पाया है।
”इसलिए आप संविधान की दुहाई देते हैं और आपकी न्याय प्रणाली कनवेंशन अर्थात् रीति से चलती है। यदि अदालत की अनुमति हो तो इसका एक उदाहरण पेश करना चाहूंगा।‘’
अदालत इस डर से कि कहीं उसे पक्षपाती न मान लिया जाय, ऐसी अनुमति दे देती है और इसके चलते मुझे इन्दिरा जी के मेहरौली के प्लााट के रजिस्ट्रेशन का किस्सा याद आगया। उन्हें इस सिलसिले में सब-रजिस्ट्रार के सामने पेश होना था। वह आईं, सब कुछ तैयार था, दस्तखत किया और चलने लगीं तो सब-रजिस्ट्रार को सुनाते हुए अपने कारिंदों से बोलीं, इनका जो कुछ बनता हो वह दे दीजिएगा।
उन्हें शक था कि इस धौंस में कि यह प्रधानमंत्री का मामला है कोई कुछ मांग कैसे सकता है, इन्दिरा जी कह रही थीं, मुझे अपने पद का लाभ देने की जरूरत नहीं, जो रीति है उसका पालन होना चाहिए। ये वे दुर्लभ गुण है जिनके लिए मैं इन्दिरा जी को असाधारण मानता हूं जब कि कोई दूसरा इसे भ्रष्टाचार का समर्थन और इस मामले में निश्चिन्त होने का आशय भी तलाश सकता है।
’अदालत के हाथ किन किन रस्सियों से बंधे हैं इसका तो हमें पता नहीं। यह तक पता नहीं कि हम एक बन्दी बनाई जा चुकी न्याय व्यवस्था से न्याय चाहते हैं जो सहूलियत देख कर कभी संविधान की ओर देखती है, जो स्वतंत्र होने के बाद बना, इसलिए पहले के विधानों से आगे जाता है, कभी दंडसंहिता की ओर देखती है जो अंग्रेजों के समय में बना इसलिए उस समय के राजहितकारी और जनविरोधी विधानों के साथ और कहें तो स्वतंत्र भारत में उपनिवेशवादी अवशेषों के साथ होती है और फिर जब नागर विधानों के मामले आते हैं तो संपत्ति से जुड़े नियम संपत्ति हड़पने वालों की रक्षा के लिए बनाए गए मिलते हैं क्योंकि उपनिवेशवादी सत्ता स्वयं इसी कोटि में आती थी और जब पारिवारिक और सामाजिक व्ययवहार का मामला आता है तो यह पर्सनल लाज की हथकड़ी बेड़ी पहन लेता है, क्योंकि धार्मिक समुदायों को भारतीय समाज बनाने का प्रयत्न तक नहीं हुआ इसलिए हिंदू कोड बिल के माध्यम से एक ऐसे देश को जिसे हमने अपने संविधान से सेक्युंलर और समावेशी बनाने का संकल्प लिया था, उसे हिन्दू राष्ट्र बना दिया गया। परन्तु सबसे अधिक बकवास हैं प्रक्रियागत संहिताएं जिन्हें नियम और न्याय से उूपर माना जाता है और जो ही न्या्य में विलंब और अन्याय के संरक्षण में सहायक होती हैं। जब तक ये हैं तब तक अदालत कर्मंकांड की दासी है और न्यांयप्रणाली ऐसा हवन कुंड जिसमें उत्पीडि़तों की हवि दी जाती है ।‘’
मैंने इस ओर गौर ही नहीं किया था कि अदालत के चेहरे पर रक्त का दबाव मेरे बयान के साथ बढ़ता चला गया था और वह अब इतना लाल हो गया था कि लगता था रक्त की केशिकाएं फट जायेंगी और चेहरा अपने आवेश के कारण ही लहूलुहान हो जाएगा। चुप लगाया तो चेहरा तो नहीं फटा पर अदालत फट पड़ी, ‘’तुम्हें पता है तुमने अदालत का कितना बहुमूल्यक समय बर्वाद किया है? तुमको अपने सबूत और गवाह इस बात को साबित करने के लिए रखने थे कि शिक्षित लोग जानवरों और जंगली लोगों से भी कुशिक्षित है और तुमने शिक्षा प्रणाली के बाद न्याय प्रणाली पर भी हमला कर दिया।”
‘’यूं तो अदालत को अपराध का सहभागी कभी बनाया नहीं गया क्यों कि लोग इसके नतीजे क्यां होंगे यह जानते थे, परन्तु आपने पहले पुरानी आदत बदलते हुए देखने और सुनने की जरूरत समझी है इसलिए इस बर्वादी में आपको भी सहभागी बताउूं तो संभव है इसे आप मान लें। आपको जो तथ्य मालूम थे, हर आदमी को मालूम हैं तो आप तो दूसरों से अधिक जानकार हैं ही, उन्हें आपको मान लेना चाहिए था और दस्तू र की व्याख्या करने के लिए मुझे उकसाना नहीं चाहिए था।‘’
’’फिर भी इसका कोई तुक ताल तो होना चाहिए?”
“है मान्यवर, मैं यह कहना चाहता हूं कि हमारी शिक्षाप्रणाली ही घटिया नहीं है, न्यप्रणाली भी जीवों जन्तु ओं और अनपढ़ गंवारों और जंगली लोगों के अपने प्रबन्धन से अधिक पिछडी हुई है।”