आयेंगे जल्द ही यह कह कर घर से निकले थे
वो मेरा घर है मगर देखिए तो घर भी नहीं।
यही जन्नत है जमीं पर उतर कर फैली है
बात जिस शहर में कहते थे वह शहर भी नहीं।
कहीं भी जाओ, कहीं भी, यह घर तुम्हारा है
बात यह किसने, कब कही थी, या कही ही नहीं।
यह अपना देश है अपने ही घर में रहता हूं
सही तो है ही मगर देखिए सही भी नहीं।
(मैं तो आज की पोस्ट लिख रहा था। आधा कर चुका था और तभी शीर्षक की याद आई। शीर्षक एक अर्धाली ‘सही तो है ही मगर देखिए सही भी नहीं’ सूझा और पता नहीं किस रहस्यमय तर्क से अनुपम खेर और कल तक मेरे सबसे प्रिय और मेरी कलासाधना के दो आदर्शों (तसलीमा नसरीन और नसीरुद्दीन शाह) में से एक नसीरुद्दीन शाह की बहस याद आ गई और आगे का लिखना छूट गया। जो उस दबाव में लिखा गया वह उूपर है। शायद यह मेरी रचनाप्रक्रिया के किसी पक्ष को उजागर करे। अब अपने को नियन्त्रित कर चुका हूं इसलिए आगे का लेखन उस पंक्ति के सिरे पर /// का चिन्ह लगाने के बाद करूंगा। पर क्या यह संभव हो पाएगा।)
‘शिक्षा में गिरावट की तुम्हारी शिकायत सही है। यह भी सही है कि जब दक्षिणपन्थी खतरे का कोई अन्देशा नहीं था तब दक्षिणपन्थी उभार से बचाने का हौवा खड़ा करके हमने सचमुच इसे इतना ताकतवर बना दिया कि यह सत्ता पर हावी हो गया और हमें कगार पर कोने तलाशने पड़ रहे हैं। तुम्हारी यह शिकायत भी सही है कि शिक्षा के महत्व को समझा ही नहीं गया। गैस पाइप की तुम्हारी उपमा तो बहुत वेधक है और उतनी ही खतरनाक भी। फिर भी मैं मानता हूं कि शिक्षा प्रणाली के महत्व को नहीं समझा गया और इसे हमने अपने स्वार्थ से राजनीति का ओवरडोज पिलाया जिसका उदाहरण दुनिया में अन्यत्र कहीं न मिलेगा। लेकिन आज शिक्षा में सुधार के नाम पर जो कुछ किया जा रहा है उसे क्या ठीक समझते हो? मैं राजस्थान और गुजरात की पाठ्यपुस्तकों में किए जाने वाले बदलाव की बात कर रहा हूं। मैं पुराण और मिथक को इतिहास बनाने के प्रयत्न की बात कर रहा हूं। मैं कहानियों की काल्पनिकता को इतिहास का सच मानने और इसके बहाने प्राचीन भारत में आधुनिक वैज्ञानिक उपलब्धियों के दावों की बात कर रहा हूं। मैं इतिहासकारों को इतिहास से बाहर फेंकने और निकरधारियों को निकर की महिमा से इतिहासकार बनाए जाने की बात कर रहा हूं। तुम इसे उचित मानते हो?’’
’’मैंने आपको अपने पैरोकार से लेकर जज तक का काम सौंपा है, ऐसा किया भी अपने मुअक्किल के हित को ध्यान में रख कर ही है कि इस बहाने उसकी भी तो कोई सुनेगा। अभी तक तो कोई सुनने को राजी ही न था। आपकी आशंका में दम है, लेकिन यदि मैं कहूं कि इसके लिए भी वही लोग जिम्मेदार है जिनके पक्ष में आप खड़े रहे हैं तो सुन कर आपको झटका लगेगा।”
”झटका लगेगा ही। तुम क्या समझते हो यह सब हमसे पूछ कर किया जा रहा है?’’
”आप से पूछ कर नहीं, घबराहट में किया जा रहा है। आप जानते हैं शिक्षा में इतनी शरारतें हमारे सुशिक्षित विद्वान करते रहे हैं जिसे कमीनापन कहा जाय तो गलत न होगा। शब्द कठोर है, पर आरोप सही है। जान बूझ कर उकसाने, अपमानित करने के प्रयत्न इस अपेक्षा में किए जाते रहे कि इससे भड़क कर हम जो कुछ करेंगे उसको तमाशा बना कर हमारा उपहास किया जायेगा और इसका मजा लेने की आदत ने एक ऐसी बौखलाहट पैदा की जिसमें इतिहास और पुराण का, सत्य और मनगढंत का फर्क ही मिट गया। आप मखौल को विज्ञान बनाने पर तुले रहे और उन्होंने माखौल का सामान अपनी ओर से पैदा करना शुरू कर दिया, कि हंसना ही चाहते हो तो जम कर हंसो, इसके बीच बहानों का आविष्कार न करना पड़े। हैरानी की बात है कि इस प्रवृत्ति को बदलने का नैतिक साहस तक आप खो चुके हैं क्योंकि आपका इतिहास दर्शन यही करता था, और अब आप जिनका मजाक उड़ाते थे उन्हीं की नकल खुद करने लगे हैं।/// त्रिपुरा के पाठ्यक्रम को अदालत के सामने पेश करता हूं। अपने बहुमूल्य समय में से कुछ समय इसे दान करते हुए ही सही, इसे पढ़ें। आज मैं अपनी ओर से स्थगगन का अनुरोध करता हूं।